मंगलवार, 20 अप्रैल 2010

आज प्रस्तुत है, मक्सीम गोर्की की कहानी 'एक पाठक'। मक्सीम गोर्की भारत में उतने ही लोकप्रिय हैं, जितने की प्रेमचन्द। दिल्ली के प्रकाशन 'मेधा बुक्स' ने आज से तीन वर्ष पहले नौ खण्डों में गोर्की की रचनाएँ छापने का बीड़ा उठाया था। लेकिन उन्होंने अभी तक इस रचनावली के सिर्फ़ दो ही खण्ड छापे हैं। पहले खण्ड के रूप में गोर्की का उपन्यास 'माँ' छापा है और दूसरा खण्ड गोर्की की कहानियों का है। कहानियों का अनुवाद प्रसिद्ध अनुवादक नरोत्तम नागर ने किया है और 'माँ' उपन्यास का अनुवाद कभी 'ब्लिट्ज' के सम्पादक रहे मुनीश नारायण सक्सेना ने।

एक पाठक

रात काफी हो गई थी जब मैं उस घर से विदा हुआ जहाँ मित्रों की एक गोष्ठी में अपनी प्रकाशित कहानियों में से एक का मैंने अभी पाठ किया था । उन्होंने तारीफ़ के पुल बांधने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी और मैं धीरे-धीरे मगन भाव से सड़क पर चल रहा था, मेरा हृदय आनंद से छलक रहा था और जीवन के एक ऐसा सुख का अनुभव मैं कर रहा था जैसा पहले कभी नहीं किया था ।

फरवरी का महीना था, रात साफ़ थी और खूब तारों से जड़ा मेघरहित आकाश धरती पर स्फूर्तिदायक शीतलता का संचार कर रहा था, जो नयी गिरी बर्फ से सोलहों सिंगार किये हुए थी ।

’इस धरती पर लोगों की नज़रों में कुछ होना अच्छा लगता है!’ मैंने सोचा और मेरे भविष्य के चित्र में उजले रंग भरने में मेरी कल्पना ने कोई कोताही नहीं की ।

“हां, तुमने एक बहुत ही प्यारी-सी चीज़ लिखी है, इसमें कोई शक नहीं,” मेरे पीछे सहसा कोई गुनगुना उठा,

मैं अचरज से चौंका और घूमकर देखने लगा।

काले कपड़े पहने एक छोटे कद का आदमी आगे बढ़कर निकट आ गया और पैनी लघु मुस्कान के साथ मेरे चेहरे पर उसने अपनी आँखें जमा दीं, उसकी हर चीज़ पैनी मालूम होती थी-उसकी नज़र, उसके गालों की हड्डियाँ, उसकी दाढ़ी जो बकरे की दाढ़ी की तरह नोकदार थी, उसका समूचा छोटा और मुरझाया-सा ढाँचा, जो कुछ इतना विचित्र नुकीलापन लिए था कि आँखों में चुभता था, उसकी चाल हल्की और निःशब्द थी, ऐसा मालूम होता था जैसे वह बर्फ़ पर फिसल रहा हो, गोष्ठी में जो लोग मौजूद थे, उनमें वह मुझे नज़र नहीं आया था ओर इसीलिए उसकी टिप्पणी ने मुझे चकित कर दिया था, वह कौन था ? और कहाँ से आया था?

“क्या आपने...मेरा मतलब है ...मेरी कहानी सुनी थी? मैंने पूछा

"हां, मुझे उसे सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ ।"

उसकी आवाज़ तेज़ थी, उसके होंठ पतले और मूछें छोटी व काली थीं जो उसकी मुस्कान को छिपा नहीं पाती थीं। मुस्कान उसके होंठो से विदा होने का नाम ही नहीं लेती थी और यह मुझे बड़ा अटपटा मालूम हो रहा था ।

“अपने आपको अन्य सबसे अनोखा अनुभव करना बड़ा सुखद मालूम होता है, क्यों, ठीक है न ?” मेरे साथी ने पूछा,

मुझे इस प्रश्न में ऐसी कोई बात नहीं लगी जो असाधारण हो ,सो मुझे सहमति प्रकट करने में देर नहीं लगी ।

“हो-हो-हो!” पतली उगलियों से अपने छोटे हाथों को मलते हुए वह तीखी हँसी हँसा, उसकी हँसी मुझे अपमानित करने वाली थी ।

“तुम बड़े हँसमुख जीव मालूम होते हो,” मैंने रूख़ी आवाज़ में कहा, “अरे हाँ, बहुत !” मुस्काराते और सिर हिलाते हुए उसने ताईद की, “साथ ही मैं बाल की खाल निकालने वाला भी हूँ क्योंकि मैं हमेशा चीज़ों को जानना चाहता हूँ-हर चीज़ को जानना चाहता हूँ।”

वह फिर अपनी तीख़ी हँसी हँसा और बेध देने वाली अपनी काली आंखों से मेरी ओर देखता रहा, मैंने अपने कद की ऊँचाई से एक नज़र उस पर डाली और ठंडी आवाज़ में पूछा, “माफ़ करना, लेकिन क्या मैं जान सकता हूँ कि मुझे किससे बातें करने का सौभाग्य ...."

“मैं कौन हूँ ? क्या तुम अनुमान नहीं लगा सकते ? जो हो, फिलहाल तुम्हें आदमी का नाम उस बात से ज्यादा महत्वपूर्ण मालूम होता है जो कि वह कहने जा रहा है ?”

“निश्चय ही नहीं, लेकिन यह सब कुछ ... बहुत ही अजीब है,” मैंने जवाब दिया ।

उसने मेरी आस्तीन पकड़ कर उसे एक हल्का-सा झटका दिया और शांत हँसी के साथ कहा, “होने दो अजीब, आदमी कभी तो जीवन की साधारण और घिसी-पिटी सीमाओं को लाँघना चाहता ही है, अगर एतराज न हो तो आओ, जरा खुलकर बातें करें, समझ लो कि मैं तुम्हारा एक पाठक हूँ-एक विचित्र प्रकार का पाठक, जो यह जानना चाहता है कि कोई पुस्तक-मिसाल के लिए तुम्हारी अपनी लिखी हुई पुस्तकें-कैसे और किस उद्देश्य के लिए लिखी गयी है, बोलो, इस तरह की बातचीत पसंद करोगे ?”

“ओह, ज़रूर !” मैंने कहा, “मुझे ख़ुशी होगी, ऐसे आदमी से बात करने का अवसर रोज़-रोज़ नहीं मिलता है,” लेकिन मैंने यह झूठ कहा था, क्योंकि मुझे यह सब बेहद नागवार मालूम हो रहा था, फिर भी मैं उसके साथ चलता रहा-धीमे क़दमों से, शिष्टाचार की ऐसी मुद्रा बनाए, मानो मैं उसकी बात ध्यान से सुन रहा हूँ ।

मेरा साथी क्षण भर के लिए चुप हो गया और फिर बड़े विश्वासपूर्ण स्वर में उसने कहा, “मानवीय व्यवहार में निहित उद्देश्यों और इरादों से ज़्यादा विचित्र और महत्वपूर्ण चीज़ इस दुनिया में और कोई नहीं है, तुम यह मानते हो न ?” मैने सिर हिलाकर हामी भरी ।

“ठीक, तब आओ, ज़रा खुलकर बातें करें, सुनो, तुम जब तक जवान हो तब तक खुलकर बात करने का एक भी अवसर हाथ से नहीं जाने देना चाहिए ।”

’अजीब आदमी है!’ मैंने सोचा, लेकिन उसके शब्दों ने मुझे उलझा लिया था ।

“सो तो ठीक है,” मैंने मुस्कराते हुए कहा, “लेकिन हम बातें किस चीज़ के बारे में करेंगे ?

पुराने परिचित की भाँति उसने घनिष्ठता से मेरी आँखों में देखा और कहा, “साहित्य के उद्देश्यों के बारे में, क्यों, ठीक है न ?”

“हाँ मगर....देर काफ़ी हो गई है....”

“ओह, तुम अभी नौजवान हो, तुम्हारे लिए अभी देर नहीं हुई ।”

मैं ठिठक गया, उसके शब्दों ने मुझे स्तब्ध कर दिया था । किसी और ही अर्थ में उसने इन शब्दों का उच्चारण किया था और इतनी गंभीरता से किया था कि वे भविष्य का उदघोष मालूम होते थे । मैं ठिठक गया था, लेकिन उसनें मेरी बाँह पकड़ी और चुपचाप किंतु दृढ़ता के साथ आगे बढ़ चला ।

“रुको नहीं, मेरे साथ तुम सही रास्ते पर हो” उसने कहा, “बात शुरू करो, तुम मुझे यह बताओ कि साहित्य का उद्देश्य क्या है ?” मेरा अचरज बढ़ता जा रहा था और आत्म-संतुलन घटता जा रहा था । आख़िर यह आदमी मुझसे चाहता क्या है? और यह है कौन ? निस्संदेह वह एक दिलचस्प आदमी था, लेकिन मैं उससे खीज उठा था । उससे पिंड छुडा़ने की एक और कोशिश करते हुए ज़रा तेज़ी से आगे की ओर लपका, लेकिन वह भी पीछे न रहा, साथ चलते हुए शांत भाव से बोला, “मैं तुम्हारी दिक्कत समझ सकता हूँ, एकाएक साहित्य के उद्देश्य की व्याख्या करना तुम्हारे लिए कठिन है, कही तो मैं कोशिश करूँ?”

उसने मुस्कराते हुए मेरी ओर देखा लेकिन मेरे उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना ही कहने लगा, “शायद मेरी इस बात से तुम सहमत होगे अगर मैं ये कहूँ कि साहित्य का उद्देश्य है-ख़ुद अपने को जानने में इंसान की मदद करना, उसके आत्मविश्वास को दृढ़ बनाना और उसके सत्यान्वेषण को सहारा देना, लोगों की अच्छाईयों का उद् घाटन करना और सौंदर्य की पवित्र भावना से उनके जीवन को शुभ बनाना, क्यों, इतना तो मानते हो ?”

“हाँ,” मैंने कहा, “कमोबेश यह सही है, यह तो सभी मानते है कि साहित्य का उद्देश्य लोगों को और अच्छा बनाना है।”

"तब देखो न, लेखक के रुप में तुम कितने ऊँचे उद्देश्य के लिए काम करते हो ! "मेरे साथी ने गंभीरता के साथ अपनी बात पर ज़ोर देते हुए कहा और फिर अपनी वही तीख़ी हँसी हँसने लगा, "हो-हो-हो !"

उसका यह रवैया मुझे बड़ा अपमानजनक लगा। मैं दुख और खीज से चीख़ उठा, "आखिर तुम मुझसे क्या चाहते हो ?"

"आओ, थोड़ी देर बाग में चलकर बैठते हैं।" उसने फिर एक हल्की हँसी हँसते हुए और मेरा हाथ पकड़ कर मुझे खींचते हुए कहा।

उस समय हम सिटी-गार्डन के एक रास्ते पर चल रहे थे । चारों ओर बबूल और लिलक की नंगी टहनियाँ दिखाई दे रही थीं, जिन पर बर्फ की परत चढ़ी हुई थी । चाँद की रोशनी में चमचमाती हुई वे मेरे सिर के ऊपर भी छाई हुई थीं औऱ ऐसा मालूम होता था जैसे बर्फ का कवच पहने ये सख्त टहनियाँ मेरे सीने को बेध कर सीधे मेरे दिल तक पहुँच गई हों।

मैंने बिना एक भी शब्द कहे अपने साथी की ओर देखा, उसके व्यवहार ने मुझे चक्कर में डाल दिया था। ’इसके दिमाग का कोई पुर्जा ढीला मालूम होता है।’ मैंने सोचा औऱ इसके व्यवहार की इस व्याख्या से अपने मन को संतोष देने की कोशिश की।

“शायद तुम्हारा ख़याल है कि मेरा दिमाग कुछ चल गया है” उसने जैसे मेरे भावों को ताड़ते हुए कहा। “लेकिन ऐसे ख़याल को अपने दिमाग से निकाल दो। यह तुम्हारे लिए नुकसानदेह है और शोभनीय भी नहीं है.... बजाय इसके कि हम उस आदमी को समझने की कोशिश करें, जो हमसे भिन्न है। इस बहाने की ओट लेकर हम उसे समझने के झंझट से छुट्टी पा जाना चाहते हैं । मनुष्य के प्रति मनुष्य की दुखद उदासीनता का यह एक बहुत ही अच्छा प्रमाण है।”

“ओह ठीक है,” मैंने कहा । मेरी खीज बराबर बढ़ती ही जा रही थी, “लेकिन माफ करना, मैं अब चलूँगा, काफी समय हो गया।”
"जाओ," अपने कंधों को बिचकाते हुए उसने कहा। “जाओ, लेकिन यह जान लो कि तुम ख़ुद अपने से भाग रहे हो।” उसने मेरा हाथ छोड़ दिया और मैं वहाँ से चल दिया।

वह बाग में ही टीले पर रुक गया। वहा से वोल्गा नज़र आ रही थी जो अब बर्फ़ की चादर ताने थी और ऐसा मालूम होता था जैसे बर्फ़ की उस चादर पर सड़कों के काले फीते टंके हों। सामने दूर तट के निस्तब्ध और उदासी में डूबे विस्तृत मैदान फैले थे। वह वहीं पड़ी हुई एक बैंच पर बैठ गया और सूने मैदानों की ओर ताकता हुआ एक परिचित गीत की धुन की सीटी बजाने लगा।

वो क्या दिखायेंगे राह हमको
जिन्हें खुद अपनी ख़बर नहीं

मैंने घूमकर उसकी ओर देखा अपनी कुहनी को घुटने पर और ठोडी की हथेली पर टिकाए, मुँह से सीटी बजाता, वह मेरी ही ओर नज़र जमाए हुए था और चाँदनी से चमकते उसने चेहरे पर उसकी नन्हीं काली मूँछें फड़क रही थीं। यह समझकर कि यही विधि का विधान है, मैंने उसके पास लौटने का निश्चय कर लिया। तेज़ कदमों से मैं वहां पहुँचा और उसके बराबर में बैठ गया।

“देखो, अगर हमें बात करनी है तो सीध-सादे ढंग से करनी चाहिए,” मैने आवेशपूर्वक लेकिन स्वयं को संयत रखते हुए कहा।

“लोगों को हमेशा ही सीधे-सादे ढंग से बात करनी चाहिए।” उसने सिर हिलाते हुए स्वीकार किया, “लेकिन यह तुम्हें भी मानना पड़ेगा कि अपने उस ढंग से काम लिये बिना मैं तुम्हारा ध्यान आकर्षित नहीं कर सकता था। आजकल सीधी-सादी और साफ़ बातों को नीरस और रूखी कहकर नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है। लेकिन असल बात यह है कि हम खुद ठंडे और कठोर हो गये हैं और इसीलिए हम किसी भी चीज में जोश या कोमलता लाने में असमर्थ रहते हैं । हम तुच्छ कल्पनाओं और दिवास्तप्नों में रमना तथा अपने आपको कुछ विचित्र और अनोखा जताना चाहते हैं, क्योंकि जिस जीवन की हमने रचना की है, वह नीरस, बेरंग और उबाऊ है, जिस जीवन को हम कभी इतनी लगन और आवेश के साथ बदलने चले थे, उसने हमें कुचल और तोड़ डाला है “एक पल चुप रहकर उसने पूछा,” क्यों, मैं ठीक कहता हूं न ?”

“हाँ,” मैंने कहा, “तुम्हारा कहना ठीक है,”

“तुम बड़ी जल्दी घुटने टेक देते हो!” त़ीखी हँसी हँसते हुए मेरे प्रतिवादी न मेरा मखौल उडाया। मैं पस्त हो गया। उसने अपनी पैनी नज़र मुझ-पर जमा दी और मुस्कराता हुआ बोला, “तुम जो लिखते हो उसे हजारों लोग पढ़ते हैं। तुम किस चीज का प्रचार करते हो ? और क्या तुमने कभी अपने से यह पूछा है कि दूसरों को सीख देने का तुम्हें क्या अधिकार है ?”




जीवन में पहली बार मैंने अपनी आत्मा को टटोला, उसे जांचा-परखा। हाँ, तो मैं किस चीज का प्रचार करता हूँ ? लोगों से कहने के लिए मेरे पास क्या है ? क्या वे ही सब चीजें, जिन्हें हमेशा कहा-सुना जाता है, लेकिन जो आदमी को बदल कर बेहतर नहीं बनातीं ? और उन विचारों तथा नीतिवचनों का प्रचार करने का मुझे क्या हक है, जिनमें न तो मैं यकीन करता हूँ और न जिन्हें मैं लाता हूँ ? जब मैंने खुद उनके खिलाफ आचरण किया, तब क्या यह सिद्ध नहीं होता कि उनकी सच्चाई में मेरा विश्वास नहीं है ? इस आदमी को मैं क्या जवाब दूँ जो मेरी बगल में बैठा है ?

लेकिन उसने, मेरे जवाब की प्रतीक्षा से ऊब कर, फिर बोलना शुरू कर दिया, “एक समय था जब यह धरती लेखन-कला विशारदों, जीवन और मानव-हृदय के अध्येताओं और ऐसे लोगों से आबाद थी जो दुनिया को अच्छा बनाने की सर्वप्रबल आकांक्षा एवं मानव-प्रकृति में गहरे विश्वास से अनुप्राणित थे, उन्होंने ऐसी पुस्तकें लिखीं जो कभी विस्मृति के गर्भ में विलीन नहीं होंगी, कारण, वे अमर सच्चाइयों को अंकित करती हैं और उनके पन्नों से कभी मलिन न होने वाला सौंदर्य प्रस्फुटित होता है । उनमें चित्रित पात्र जीवन के सच्चे पात्र हैं, क्योंकि प्रेरणा ने उनमें जान फूंकी है, उन पुस्तकों में साहस है, दहकता हुआ गुस्सा और उन्मुक्त सच्चा प्रेम है, और उनमें एक भी शब्द भरती का नहीं है ।

“तुमने, मैं जानता हूं, ऐसी ही पुस्तकों से अपनी आत्मा के लिए पोषण ग्रहण किया है, फिर भी तुम्हारी आत्मा उसे पचा नहीं सकी, सत्य और प्रेम के बारे में तुम जो लिखते हो, वह झूठा और अनुभूतिशून्य प्रतीत होता है, लगता है, जैसे शब्द जबरदस्ती मुँह से निकाले जा रहे हों, चंद्रमा की तरह तुम दूसरे की रोशनी से चमकते हो, और यह रोशनी भी बुरी तरह मलिन है-वह परछाइयाँ खूब डालती है, लेकिन आलोक कम देती है और गरमी तो उसमें जरा भी नहीं हैं ।

“असल में तुम खुद गरीब हो, इतने कि दूसरों को ऐसी कोई चीज नहीं दे सकते जो वस्तुतः मूल्यवान हो, और जब देते भी हो तो सर्वोच्च संतोष की इस सजग अनुभूति के साथ नहीं कि तुमने सुंदर विचारों और शब्दों की निधि में वृद्धि करके जीवन को संपन्न बनाया है, तुम केवल इसलिए देते हो कि जीवन से और लोगों से अधिकाधिक ले सको, तुम इतने दरिद्र हो कि उपहार नही दे सकते, या तुम सूदखोर हो और अनुभव के टुकड़ों का लेनदेन करते हो, ताकि तुम ख्याति के रूप में सूद बटोर सको ।

“तुम्हारी लेखनी चीजों की सतह को ही खरोंचती है । जीवन की तुच्छ परिस्थितियों को ही तुम निरर्थक ढंग से कोंचते-कुरेदते रहते हो । तुम साधारण लोगों के साधारण भावों का वर्णन करते रहते हो, हो सकता है, इससे तुम उन्हें अनेक साधारण-महत्वहीन–सच्चाइयां सिखाते हो, लेकिन क्या तुम कोई ऐसी रचना भी कर सकते हो जो मनुष्य की आत्मा को ऊँचा उठाने की क्षमता रखती हो ? नहीं ! तो क्या तुम सचमुच इसे इतना मह्तवपूर्ण समझते हो कि हर जगह पड़े हुए कूड़े के ढेरों को कुरेदा जाये और यह सिद्ध किया जाये कि मनुष्य बुरा है, मूर्ख है, आत्मसम्मान की भावना से बेखबर है, परिस्थितियों का गुलाम है, पूर्णतया और हमेशा के लिए कमजोर, दयनीय और अकेला हैं ?

“अगर तुम पूछो तो मनुष्य के बारे में ऐसा घृणित प्रचार मानवता के शत्रु करते हैं-और दुख की बात यह है कि वे मनुष्य के हृदय में यह विश्वास जमाने में सफल भी हो चुके हैं, तुम ही देखो, मानव-मस्तिष्क आज कितना ठस हो गया है और उसकी आत्मा के तार कितने बेआवाज़ हो गये हैं, यह कोई अचरज की बात नहीं है, वह अपने आपको उसी रूप में देखता है जैसा कि वह पुस्तकों में दिखाया जाता है......

“और पुस्तकें-खास तौर से प्रतिभा का भ्रम पैदा करने वाली वाक्-चपलता से लिखी गयी पुस्तकें-पाठकों को हतबुद्धि करके एक हद तक उन्हें अपने वश में कर लेती हैं, अगर उनमें मनुष्य को कमजोर, दयनीय, अकेला दिखाया गया है तो पाठक उनमें अपने को देखते समय अपना भोंडापन तो देखता है, लेकिन उसे यह नज़र नहीं आता कि उसके सुधार की भी कोई संभावना हो सकती है । क्या तुममें इस संभावना को उभारकर रखने की क्षमता है ? लेकिन यह तुम कैसे कर सकते हो, जबकि तुम खुद ही.... जाने दो, मैं तुम्हारी भावनाओं को चोट नहीं पहुँचाऊंगा, क्योंकि मेरी बात काटने या अपने को यही ठहराने की कोशिश किये बिना तुम मेरी बात सून रहे हो ।




“तुम अपने आपको मसीहा के रूप में देखते हो, समझते हो कि बुराइयों को खोल कर रखने के लिए खुद ईश्वर ने तुम्हें इस दुनिया में भेजा है, ताकि अच्छाइयों की विजय हो, लेकिन बुराइयों को अच्छाइयों से छांटते समय क्या तुमने यह नहीं देखा कि ये दोनों एक-दूसरो से गुंथी हुई हैं और इन्हें अलग नहीं किया जा सकता? मुझे तो इसमें भी भारी संदेह है कि खुदा ने तुम्हें अपना मसीहा बना कर भेजा है । अगर वह भेजता तो तुमसे ज्यादा मजबूत इंसानों को इस काम के लिए चुनता, उनके हृदयों में जीवन, सत्य और लोगों के प्रति गहरे प्रेम की जोत जगाता ताकि वे अंधकार में उसके गौरव और शक्ति का उद्घोष करने वाली मशालों की भांति आलोक फैलायें, तुम लोग तो शैतान की मोहर दागने वाली छड़ की तरह धुआं देते हो, और यह धुआँ लोगों को आत्मविश्वासहीनता के भावों से भर देता है । इसलिय तुमने और तुम्हारी जाति के अन्य लोगों ने जो कुछ भी लिखा है, उस सबका एक सचेत पाठक, मैं तुमसे पूछता हूँ-तुम क्यों लिखते हो? तुम्हारी कृतियाँ कुछ नहीं सिखातीं और पाठक सिवा तुम्हारे किसी चीज पर लज्जा अनुभव नहीं करता, उनकी हर चीज आम-साधारण है, आम-साधारण लोग, आम साधारण विचार, आम-साधारण घटनाएं ! आत्मा के विद्रोह और आत्मा के पुनर्जांगरण के बारे में तुम लोग कब बोलना शुरू करोगे ? तुम्हारे लेखन में रचनात्मक जीवन की वह ललकार कहाँ है, वीरत्व के दृष्टांत और प्रोत्साहन के वे शब्द कहाँ हैं, जिन्हें सुनकर आत्मा आकाश की ऊंचाइयों को छूती है ?

“शायद तुम कहो- ‘जो कुछ हम पेश करते हैं, उसके सिवा जीवन में अन्य नमूने मिलते कहाँ है ?’

न, ऐसी बात मुँह से न निकालना, यह लज्जा और अपमान की बात है कि वह, जिसे भगवान ने लिखने की शक्ति प्रदान की है । जीवन के सम्मुख अपनी पंगुता और उससे ऊपर उठने में अपनी असमर्थता को स्वीकार करे, अगर तुम्हारा स्तर भी वही है, जो आम जीवन का, अगर तुम्हारी कल्पना ऐसे नमूनों की रचना नहीं कर सकती जो जीवन में मौजूद न रहते हुए भी उसे सुधारने के लिए अत्यंत आवश्यक हैं, तब तुम्हारा कृतित्व किस मर्ज की दवा है ? तब तुम्हारे धंधे की क्या सार्थकता रह जाती है?

“लोगों के दिमागों को उनके घटनाविहीन जीवन के फोटोग्राफिक चित्रों का गोदाम बनाते समय अपने हृदय पर हाथ रखकर पूछो कि ऐसा करके क्या तुम नुकसान नहीं पहुँचा रहे हो ? कारण-और तुम्हें अब यह तुरंत स्वीकार कर लेना चाहिए-कि तुम जीवन का ऐसा चित्र पेश करने का ढंग, नहीं जानते जो लज्जा की एक प्रतिशोधपूर्ण चेतना को जन्म दे, जीवन के नये जीवन के स्पंदन को तीव्र और उसमें स्फूर्ति का संचार करना चाहते हो, जैसा कि अन्य लोग कर चुके हैं?”




मेरा विचित्र साथी रुक गया और मैं, बिना कुछ बोले, उसके शब्दों पर सोचता रहा, थोड़ी देर बाद उसने फिर कहा, “एक बात और, क्या तुम ऐसी आह्लादपूर्ण हास्य-रचना कर सकते हो,जो आत्मा का सारा मैल धो डाले ? देखो न, लोग एकदम भूल गये हैं कि ठीक ढंग से कैसे हँसा जाता है ! वे कुत्सा से हँसते हैं, वे कमीनपन से हँसते हैं, वे अक्सर अपने आँसुओं की बेधकर हँसते हैं, वे हृदय के उस समूच उल्लास से कभी नहीं हँसते जिससे वयस्कों के पेट में बल पड़ जाते हैं, पसलियां बोलने लगती हैं, अच्छी हंसी एक स्वास्थ्यप्रद चीज है । यह अत्यंत आवश्यक है कि लोग हमें, आखिर हँसने की क्षमता उन गिनी-चुनी चीजों में से एक है, जो मनुष्य को पशु से अलग करती हैं, क्या तुम निदा की हँसी के अवाला अन्य किसी प्रकार की हँसी को भी जन्म दे सकते हो ? निंदा की हंसीँ तो बाजारू हँसी है, जो मानव जीवधारियों को केवल हँसी का पात्र बनाती है कि उसकी स्थिति दयनीय है ।

“तुम्हें अपने हृदय में मनुष्य की कमजोरियों के लिए महान घृणा का और मनुष्य के लिए महान प्रेम का पोषण करना चाहिए, तभी तुम लोगों को सीख देने के अधिकारी बन सकोगे, अगर तुम घृणा और प्रेम, दोनों में से किसी का अनुभव नहीं कर सकते, तो सिर नीचा रखो और कुछ कहने से पहले सौ बार सोचो”

सुबह की सफेदी अब फूट चली थी, लेकिन मेरे हृदय में अंधेरे गहरा रहा था, यह आदमी, जो मेरे अंतर के सभी भेदों से वाकिफ था, अब भी बोल रहा था ।

“सब कुछ के बावजूद जीवन पहले से अधिक प्रशस्त और अधिक गहरा होता जा रहा है, लेकिन यह बहुत धीमी गति से हो रहा है, क्योंकि तुम्हारे पास इस गति को तेज़ बनाने के लायक न तो शक्ति है, न ज्ञान, जीवन आगे बढ़ रहा है और लोग दिन पर दिन अधिक और अधिक जानना चाहते हैं । उनके सवालों के जवाब कौन दें ? यह तुम्हारा काम है लेकिन क्या तुम जीवन में इतने गहरे पैठे हो कि उसे दूसरों के सामने खोल कर रख सको ? क्या तुम जानते हो कि समय की मांग क्या है ? क्या तुम्हें भविष्य की जानकारी है और क्या तुम अपने शब्दों से उस आदमी में नयी जान फूंक सकते हो जिसे जीवन की नीचता ने भ्रष्ट और निराश कर दिया है ?”




यह कहकर वह चुप हो गया । मैंने उसकी ओर नहीं देखा. याद नहीं कौन-सा भाव मेरे हृदय में छाया हुआ था-शर्म का अथवा डर का । मैं कुछ बोल भी नहीं सका ।

“तुम कुछ जवाब नहीं देते?” उसी ने फिर कहा, “खैर, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, मैं तुम्हारे मन की हालत समझ सकता हूँ अच्छा, तो अब मैं चला.”

“इतनी जल्दी ?” मैने धीमी आवाज़ में कहा. कारण, मैंउ ससे चाहे जितना भयभीत रहा होऊँ, लेकिन उससे भी अधिक मैं अपने आपसे डर रहा था.

“हाँ, मैं जा रहा हूँ. लेकिन मैं फिर आऊँगा. मेरी प्रतीक्षा करना ।”

और वह चला गया । लेकिन क्या वह सचमुच चला गया ? मैंने उसे जाते हुए नहीं देखा । वह इतनी तेजी से और खामोशी से गायब हो गया जैसे छाया। मैं वहीं बाग में बैठा रहा- जाने कितनी देर तक-और न मुझे ठंड का पता था, न इस बात का कि सूरज उग आया है और पेड़ों की बर्फ से ढंकी टहनियों पर चमक रहा है.

मंगलवार, 6 अप्रैल 2010

आज प्रस्तुत है विश्वप्रसिद्ध अप्रतिम कथाकार अन्तोन चेख़़व की कहानी। अन्तोन चेख़व की इस वर्ष एक सौ पचासवीं जयन्ती मनाई जा रही है। विश्व का यह महान् लेखक सिर्फ़ चवालिस साल की आयु में काल-कवलित हो गया था। और इसके बावजूद उन्होंने इतनी सारी रचनाएँ और पत्र लिखे कि आठ-आठ सौ पृष्ठों के कुल चौबीस खण्डों में उनका समस्त लेखन समाहित हुआ है। इस कहानी का नाम है-- ’एक छोटा-सा मज़ाक’

---------------------------------------------------------------------------------
एक छोटा-सा मज़ाक

सरदियों की ख़ूबसूरत दोपहर... सरदी बहुत तेज़ है। नाद्या ने मेरी बाँह पकड़ रखी है। उसके घुंघराले बालों में बर्फ़ इस तरह जम गई है कि वे चांदनी की तरह झलकने लगे हैं। होंठों के ऊपर भी बर्फ़ की एक लकीर-सी दिखाई देने लगी है। हम एक पहाड़ी पर खड़े हुए हैं। हमारे पैरों के नीचे मैदान पर एक ढलान पसरी हुई है जिसमें सूरज की रोशनी ऎसे चमक रही है जैसे उसकी परछाई शीशे में पड़ रही हो। हमारे पैरों के पास ही एक स्लेज पड़ी हुई है जिसकी गद्दी पर लाल कपड़ा लगा हुआ है।

--चलो नाद्या, एक बार फिसलें! --मैंने नाद्या से कहा-- सिर्फ़ एक बार! घबराओ नहीं, हमें कुछ नहीं होगा, हम ठीक-ठाक नीचे पहुँच जाएंगे।

लेकिन नाद्या डर रही है। यहाँ से, पहाड़ी के कगार से, नीचे मैदान तक का रास्ता उसे बेहद लम्बा लग रहा है। वह भय से पीली पड़ गई है। जब वह ऊपर से नीचे की ओर झाँकती है और जब मैं उससे स्लेज पर बैठने को कहता हूँ तो जैसे उसका दम निकल जाता है। मैं सोचता हूँ-- लेकिन तब क्या होगा, जब वह नीचे फिसलने क ख़तरा उठा लेगी! वह तो भय से मर ही जाएगी या पागल ही हो जाएगी।

--मेरी बात मान लो! --मैंने उससे कहा-- नहीं-नहीं, डरो नहीं, तुममें हिम्मत की कमी है क्या?

आख़िरकार वह मान जाती है। और मैं उसके चेहरे के भावों को पढ़ता हूँ। ऎसा लगता है जैसे मौत का ख़तरा मोल लेकर ही उसने मेरी यह बात मानी है। वह भय से सफ़ेद पड़ चुकी है और काँप रही है। मैं उसे स्लेज पर बैठाकर, उसके कंधों पर अपना हाथ रखकर उसके पीछे बैठ जाता हूँ। हम उस अथाह गहराई की ओर फिसलने लगते हैं। स्लेज गोली की तरह बड़ी तेज़ी से नीचे जा रही है। बेहद ठंडी हवा हमारे चेहरों पर चोट कर रही है। हवा ऎसे चिंघाड़ रही है कि लगता है, मानों कोई तेज़ सीटी बजा रहा हो। हवा जैसे गुस्से से हमारे बदनों को चीर रही है, वह हमारे सिर उतार लेना चाहती है। हवा इतनी तेज़ है कि साँस लेना भी मुश्किल है। लगता है, मानों शैतान हमें अपने पंजों में जकड़कर गरजते हुए नरक की ओर खींच रहा है। आसपास की सारी चीज़ें जैसे एक तेज़ी से भागती हुई लकीर में बदल गई हैं। ऎसा महसूस होता है कि आनेवाले पल में ही हम मर जाएंगे।

मैं तुम से प्यार करता हूँ, नाद्या! --मैं धीमे से कहता हूँ।

स्लेज की गति धीरे-धीरे कम हो जाती है। हवा का गरजना और स्लेज का गूँजना अब इतना भयानक नहीं लगता। हमारे दम में दम आता है और आख़िरकार हम नीचे पहुँच जाते हैं। नाद्या अधमरी-सी हो रही है। वह सफ़ेद पड़ गई है। उसकी साँसें बहुत धीमी-धीमी चल रही हैं... मैं उसकी स्लेज से उठने में मदद करता हूँ।

अब चाहे जो भी हो जाए मै कभी नहीं फिसलूंगी, हरगिज़ नहीं! आज तो मैं मरते-मरते बची हूँ। --मेरी ओर देखते हुए उसने कहा। उसकी बड़ी-बड़ी आँखों में ख़ौफ़ का साया दिखाई दे रहा है। पर थोड़ी ही देर बाद वह सहज हो गई और मेरी ओर सवालिया निगाहों से देखने लगी। क्या उसने सचमुच वे शब्द सुने थे या उसे ऎसा बस महसूस हुआ था, सिर्फ़ हवा की गरज थी वह? मैं नाद्या के पास ही खड़ा हूँ, मैं सिगरेट पी रहा हूँ और अपने दस्ताने को ध्यान से देख रहा हूँ।

नाद्या मेरा हाथ अपने हाथ में ले लेती है और हम देर तक पहाड़ी के आसपास घूमते रहते हैं। यह पहेली उसको परेशान कर रही है। वे शब्द जो उसने पहाड़ी से नीचे फिसलते हुए सुने थे, सच में कहे गए थे या नहीं? यह बात वास्तव में हुई या नहीं। यह सच है या झूठ? अब यह सवाल उसके लिए स्वाभिमान का सवाल हो गया है. उसकी इज़्ज़त का सवाल हो गया है। जैसे उसकी ज़िन्दगी और उसके जीवन की ख़ुशी इस बात पर निर्भर करती है। यह बात उसके लिए महत्त्वपूर्ण है, दुनिया में शायद सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण। नाद्या मुझे अपनी अधीरता भरी उदास नज़रों से ताकती है, मानों मेरे अन्दर की बात भाँपना चाहती हो। मेरे सवालों का वह कोई असंगत-सा उत्तर देती है। वह इस इन्तज़ार में है कि मैं उससे फिर वही बात शुरू करूँ। मैं उसके चेहरे को ध्यान से देखता हूँ-- अरे, उसके प्यारे चेहरे पर ये कैसे भाव हैं? मैं देखता हूँ कि वह अपने आप से लड़ रही है, उसे मुझ से कुछ कहना है, वह कुछ पूछना चाहती है। लेकिन वह अपने ख़यालों को, अपनी भावनाओं को शब्दों के रूप में प्रकट नहीं कर पाती। वह झेंप रही है, वह डर रही है, उसकी अपनी ही ख़ुशी उसे तंग कर रही है...। --सुनिए! --मुझ से मुँह चुराते हुए वह कहती है। --क्या? --मैं पूछता हूँ। --चलिए, एक बार फिर फिसलें।

हम फिर से पहाड़ी के ऊपर चढ़ जाते हैं। मैं फिर से भय से सफ़ेद पड़ चुकी और काँपती हुई नाद्या को स्लेज पर बैठाता हूँ। हम फिर से भयानक गहराई की ओर फिसलते हैं। फिर से हवा की गरज़ और स्लेज की गूँज हमारे कानों को फाड़ती है और फिर जब शोर सबसे अधिक था मैं धीमी आवाज़ में कहता हूँ : --मैं तुम से प्यार करता हूँ, नाद्या।

नीचे पहुँचकर जब स्लेज रुक जाती है तो नाद्या एक नज़र पहले ऊपर की तरफ़ ढलान को देखती है जिससे हम अभी-अभी नीचे फिसले हैं, फिर दूसरी नज़र मेरे चेहरे पर डालती है। वह ध्यान से मेरी बेपरवाह और भावहीन आवाज़ को सुनती है। उसके चेहरे पर हैरानी है। न सिर्फ़ चेहरे पर बल्कि उसके सारे हाव-भाव से हैरानी झलकती है। वह चकित है और जैसे उसके चेहरे पर यह लिखा है-- क्या बात है? वे शब्द किसने कहे थे? शायद इसी ने? या हो सकता है मुझे बस ऎसा लगा हो, बस ऎसे ही वे शब्द सुनाई दिए हों?

उसकी परेशानी बढ़ जाती है कि वह इस सच्चाई से अनभिज्ञ है। यह अनभिज्ञता उसकी अधीरता को बढ़ाती है। मुझे उस पर तरस आ रहा है। बेचारी लड़की! वह मेरे प्रश्नों का कोई उत्तर नहीं देती और नाक-भौंह चढ़ा लेती है। लगता है वह रोने ही वाली है। --घर चलें? -- मैं पूछता हूँ। --लेकिन मुझे... मुझे तो यहाँ फिसलने में ख़ूब मज़ा आ रहा है। --वह शर्म से लाल होकर कहती है और फिर मुझ से अनुरोध करती है: --और क्यों न हम एक बार फिर फिसलें?

हुम... तो उसे यह फिसलना "अच्छा लगता है"। पर स्लेज पर बैठते हुए तो वह पहले की तरह ही भय से सफ़ेद दिखाई दे रही है और काँप रही है। उसे साँस लेना भी मुश्किल हो रहा है। लेकिन मैं अपने होंठों को रुमाल से पोंछकर धीरे से खाँसता हूँ और जब फिर से नीचे फिसलते हुए हम आधे रास्ते में पहुँच जाते हैं तो मैं एक बार फिर कहता हूँ : --मैं तुम से प्यार करता हूँ, नाद्या!

और यह पहेली पहेली ही रह जाती है। नाद्या चुप रहती है, वह कूछ सोचती है... मैं उसे उसके घर तक छोड़ने जाता हूँ। वह धीमे-धीमे क़दमों से चल रही है और इन्तज़ार कर रही है कि शायद मैं उससे कुछ कहूंगा। मैं यह नोट करता हूँ कि उसका दिल कैसे तड़प रहा है। लेकिन वह चुप रहने की कोशिश कर रही है और अपने मन की बात को अपने दिल में ही रखे हुए है। शायद वह सोच रही है।

दूसरे दिन मुझे उसका एक रुक्का मिलता है :"आज जब आप पहाड़ी पर फिसलने के लिए जाएँ तो मुझे अपने साथ ले लें। नाद्या।" उस दिन से हम दोनों रोज़ फिसलने के लिए पहाड़ी पर जाते हैं और स्लेज पर नीचे फिसलते हुए हर बार मैं धीमी आवाज़ में वे ही शब्द कहता हूँ :--मैं तुम से प्यार करता हूँ, नाद्या!

जल्दी ही नाद्या को इन शब्दों का नशा-सा हो जाता है, वैसा ही नशा जैसा शराब या मार्फ़ीन का नशा होता है। वह अब इन शब्दों की ख़ुमारी में रहने लगी है। हालाँकि उसे पहाड़ी से नीचे फिसलने में पहले की तरह डर लगता है लेकिन अब भय और ख़तरा मौहब्बत से भरे उन शब्दों में एक नया स्वाद पैदा करते हैं जो पहले की तरह उसके लिए एक पहेली बने हुए हैं और उसके दिल को तड़पाते हैं। उसका शक हम दो ही लोगों पर है-- मुझ पर और हवा पर। हम दोनों में से कौन उसके सामने अपनी भावना का इज़हार करता है, उसे पता नहीं। पर अब उसे इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता। शराब चाहे किसी भी बर्तन से क्यों न पी जाए-- नशा तो वह उतना ही देती है। अचानक एक दिन दोपहर के समय मैं अकेला ही उस पहाड़ी पर जा पहुँचा। भीड़ के पीछे से मैंने देखा कि नाद्या उस ढलान के पास खड़ी है, उसकी आँखें मुझे ही तलाश रही हैं। फिर वह धीरे-धीरे पहाड़ी पर चढ़ने लगती है ...अकेले फिसलने में हालाँकि उसे डर लगता है, बहुत ज़्यादा डर! वह्बर्फ़ की तरह सफ़ेद पड़ चुकी है, वह काँप रही है, जैसे उसे फ़ाँसी पर चढ़ाया जा रहा हो। पर वह आगे ही आगे बढ़ती जा रही है, बिना झिझके, बिना रुके। शायद आख़िर उसने फ़ैसला कर ही लिया कि वह इस बार अकेली नीचे फिसल कर देखेगी कि "जब मैं अकेली होऊंगी तो क्या मुझे वे मीठे शब्द सुनाई देंगे या नहीं?" मैं देखता हूँ कि वह बेहद घबराई हुई भय से मुँह खोलकर स्लेज पर बैठ जाती है। वह अपनी आँखें बंद कर लेती है और जैसे जीवन से विदा लेकर नीचे की ओर फिसल पड़ती है... स्लेज के फिसलने की गूँज सुनाई पड़ रही है। नाद्या को वे शब्द सुनाई दिए या नहीं-- मुझे नहीं मालूम... मैं बस यह देखता हूँ कि वह बेहद थकी हुई और कमज़ोर-सी स्लेज से उठती है। मैं उसके चेहरे पर यह पढ़ सकता हूँ कि वह ख़ुद नहीं जानती कि उसे कुछ सुनाई दिया या नहीं। नीचे फिसलते हुए उसे इतना डर लगा कि उसके लिए कुछ भी सुनना या समझना मुश्किल था।


फिर कुछ ही समय बाद वसन्त का मौसम आ गया। मार्च का महीना है... सूरज की किरंएं पहले से अधिक गरम हो गई हैं। हमारी बर्फ़ से ढकी वह सफ़ेद पहाड़ी भी काली पड़ गई है, उसकी चमक ख़त्म हो गई है। धीरे-धीरे सारी बर्फ़ पिघल जाती है। हमारा फिसलना बंद हो गया है और अब नाद्या उन शब्दों को नहीं सुन पाएगी। उससे वे शब्द कहने वाला भी अब कोई नहीं है : हवा ख़ामोश हो गई है और मैं यह शहर छोड़कर पितेरबुर्ग जाने वाला हूँ-- हो सकता है कि मैं हमेशा के लिए वहाँ चला जाऊंगा।

मेरे पितेरबुर्ग रवाना होने से शायद दो दिन पहले की बात है। संध्या समय मैं बगीचे में बैठा था। जिस मकान में नाद्या रहती है यह बगीचा उससे जुड़ा हुआ था और एक ऊँची बाड़ ही नाद्या के मकान को उस बगीचे से अलग करती थी। अभी भी मौसम में काफ़ी ठंड है, कहीं-कहीं बर्फ़ पड़ी दिखाई देती है, हरियाली अभी नहीं है लेकिन वसन्त की सुगन्ध महसूस होने लगी है। शाम को पक्षियों की चहचहाट सुनाई देने लगी है। मैं बाड़ के पास आ जाता हूँ और एक दरार में से नाद्या के घर की तरफ़ देखता हूँ। नाद्या बरामदे में खड़ी है और उदास नज़रों से आसमान की ओर ताक रही है। बसन्ती हवा उसके उदास फीके चेहरे को सहला रही है। यह हवा उसे उस हवा की याद दिलाती है जो तब पहाड़ी पर गरजा करती थी जब उसने वे शब्द सुने थे। उसका चेहरा और उदास हो जाता है, गाल पर आँसू ढुलकने लगते हैं... और बेचारी लड़की अपने हाथ इस तरह से आगे बढ़ाती है मानो वह उस हवा से यह प्रार्थना कर रही होकि वह एक बार फिर से उसके लिए वे शब्द दोहराए। और जब हवा का एक झोंका आता है तो मैं फिर धीमी आवाज़ में कहता हूँ : --मैं तुम से प्यार करता हूँ, नाद्या!

अचानक न जाने नाद्या को क्या हुआ! वह चौंककर मुस्कराने लगती है और हवा की ओर हाथ बढ़ाती है। वह बेहद ख़ुश है, बेहद सुखी, बेहद सुन्दर।

और मैं अपना सामान बांधने के लिए घर लौट आता हूँ...।


यह बहुत पहले की बात है। अब नाद्या की शादी हो चुकी है। उसने ख़ुद शादी का फ़ैसला किया या नहीं-- इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता। उसका पति-- एक बड़ा अफ़सर है और उनके तीन बच्चे हैं। वह उस समय को आज भी नहीं भूल पाई है, जब हम फिसलने के लिए पहाड़ी पर जाया करते थे। हवा के वे शब्द उसे आज भी याद हैं, यह उसके जीवन की सबसे सुखद, हृदयस्पर्शी और ख़ूबसूरत याद है।

और अब, जब मैं प्रौढ़ हो चुका हूँ, मैं यह नहीं समझ पाता हूँ कि मैंने उससे वे शब्द क्यों कहे थे, किसलिए मैंने उसके साथ ऎसा मज़ाक किया था!...

सोमवार, 22 मार्च 2010

येव्गेनी येव्तुशेंको

एक बड़े रूसी कवि येव्गेनी येव्तुशेंको रूस के बेहद विवादास्पद कवियों में से एक हैं। बहुत से रूसी कवि तो उन्हें सिर्फ़ इस बात पर कवि नहीं मानते क्योंकि उनकी कविताएँ एक तरह से रूस में घटने वाली घटनाओं की डायरी हैं। हिन्दी के कवि नागार्जुन की तरह वे किसी भी महत्त्वपूर्ण घटना पर तुरन्त अपनी प्रतिक्रिया दर्ज़ करते हैं और एक कविता लिख देते हैं। सबसे बड़ी बात तो यह है कि सोवियत शासन में भी, जब कवियों का दमन आम बात थी, वो सत्ता के साथ अपनी असहमती दर्ज़ करने से घबराते नहीं थे। लेकिन सरकार ने ही उन्हें नहीं छेड़ा क्योंकि वे दुनिया भर में इतने प्रसिद्ध थे कि सोवियत सरकार को ही यह डर लगा रहता था कि वह उनके विरुद्ध कार्रवाई करके कहीं दुनिया भर में विरोध की कोई मुसीबत मोल न ले ले।
येव्तुशेंको ने रूसी जीवन का बड़ा अच्छा और बड़ा सच्चा ख़ाका अपनी कविताओं में खींचा है। सन‍ 2004 में मैंने उनकी कविताओं का एक संग्रह 'मेधा बुक्स' प्रकाशन से छपवाया था, जिसका नाम था "धूप खिली थी और रिमझिम वर्षा"। यह संग्रह अब आऊट ऑफ़ प्रिंट है। आज उसी संग्रह से उनकी कुछ ऐसी कविताएँ प्रस्तुत हैं जो जीवन के हर पक्ष को चित्रित करती हैं।

1.

"औरत लोग"


मेरे जीवन में आईं हैं औरतें कितनी
गिना नहीं कभी मैंने
पर हैं वे एक ढेर जितनी

अपने लगावों का मैंने
कभी कोई हिसाब नहीं रक्खा
पर चिड़ी से लेकर हुक्म तक की बेगमों को परखा
खेलती रहीं वे खुलकर मुझसे उत्तेजना के साथ
और भला क्या रखा था
दुनिया के इस सबसे अविश्वसनीय
बादशाह के पास

समरकन्द में बोला मुझ से एक उज़्बेक-
"औरत लोग होती हैं आदमी नेक"
औरत लोगो के बारे में मैंने अब तक जो लिखी कविताएँ
एक संग्रह पूरा हो गया और वे सबको भाएँ

मैंने अब तक जो लिखा है और लिखा है जैसा
औरत लोगों ने माँ और पत्नी बन
लिख डाला सब वैसा

पुरुष हो सकता है अच्छा पिता सिर्फ़ तब
माँ जैसा कुछ होता है उसके भीतर जब
औरत लोग कोमल मन की हैं दया है उनकी आदत
मुझे बचा लेंगी वे उस सज़ा से, जो देगी मुझे
पुरुषों की दुष्ट अदालत

मेरी गुरनियाँ, मेरी टीचर, औरत लोग हैं मेरी ईश्वर
पृथ्वी लगा रही है देखो, उनकी जूतियों के चक्कर
मैं जो कवि बना हूँ आज, कवियों का यह पूरा समाज
सब उन्हीं की कृपा है
औरत लोगों ने जो कहा, कुछ भी नहीं वृथा है

सुन्दर, कोमलांगी लेखिकाएँ जब गुजरें पास से मेरे
मेरे प्राण खींच लेते हैं उनकी स्कर्टों के घेरे

2.

"पुराना दोस्त"

मुझे सपने में दिखाई देता है पुराना दोस्त
दुश्मन हो चुका है जो अब
लेकिन सपने में वह दुश्मन नहीं होता
बल्कि दोस्त वही पुराना, अपने उसी पुराने रूप में
साथ नहीं वह अब मेरे
पर आस-पास है, हर कहीं है
सिर मेरा चकराए यह देख-देख
कि मेरे हर सपने में सिर्फ़ वही है

मुझे सपने में दिखाई देता है पुराना दोस्त
चीख़ता है दीवार के पास
पश्चाताप करता है ऎसी सीढ़ियों पर खड़ा हो
जहाँ से शैतान भी गिरे तो टूट जाए पैर उसका
घृणा करता है वह बेतहाशा
मुझसे नहीं, उन लोगों से
जो कभी दुश्मन थे हमारे और बनेंगे कभी
भगवान कसम!

मुझे सपने में दिखाई देता है पुराना दोस्त
जीवन के पहले उस प्यार की तरह
फिर कभी वापिस नहीं लौटेगा जो

हमने साथ-साथ ख़तरे उठाए
साथ-साथ युद्ध किया जीवन से, जीवन भर
और अब हम दुश्मन हैं एक-दूसरे के
दो भाइयों जैसे पुराने दोस्त

मुझे सपने में दिखाई देता है पुराना दोस्त
जैसे दिखाई दे रहा हो लहराता हुआ ध्वज
युद्ध में विजयी हुए सैनिकों को
उसके बिना मैं- मैं नहीं
मेरे बिना वह- वह नहीं
और यदि हम वास्तव में दुश्मन हैं तो अब वह समय नहीं

मुझे सपने में दिखाई देता है पुराना दोस्त
मेरी ही तरह मूर्ख है वह भी
कौन सच्चा है, कौन है दोषी
मैं इस पर बात नहीं करूंगा अभी
नए दोस्तों से क्या हो सकता है भला
बेहतर होता है पुराना दुश्मन ही
हाँ, एकबारगी दुश्मन नया हो सकता है
पर दोस्त तो चाहिए मुझे पुराना ही

3.


मैंने तुम्हें बहुत समझाया
बहुत मनाया और बहलाया
बहुत देर कंधे सहलाए
पर रोती रहीं,
रोती ही रहीं तुम, हाय!

लड़ती रहीं मुझसे-
मैं तुमसे बात नहीं करना चाहती...
कहती रहीं मुझसे-
मैं तुम्हें अब प्यार नहीं करना चाहती...
और यह कहकर भागीं तुम बाहर
बाहर बारिश थी, तेज़ हवा थी
पर तुम्हारी ज़िद्द की नहीं कोई दवा थी

मैं भागा पीछे साथ तुम्हारे
खुले छोड़ सब घर के द्वारे
मैं कहता रहा-
रुक जाओ, रुक जाओ ज़रा
पर तुम्हारे मन में तब गुस्सा था बड़ा

काली छतरी खोल लगा दी
मैंने तुम्हारे सिर पर
बुझी आँखों से देखा तुमने मुझे
तब थोड़ा सिहिर कर
फिर सिहरन-सी तारी हो गई
तुम्हारे पूरे तन पर
बेहोशी-सी लदी हुई थी
ज्यों तुम्हारे मन पर
नहीं बची थी पास तुम्हारे
कोमल, नाज़ुक वह काया
ऎसा लगता था शेष बची है
सिर्फ़ उसकी हल्की-सी छाया

चारों तरफ़ शोर कर रही थीं
वर्षा की बौछारें
मानो कहती हों तू है दोषी
कर मेरी तरफ़ इशारे-
हम क्रूर हैं, हम कठोर हैं
हम हैं बेरहम
हमें इस सबकी सज़ा मिलेगी
अहम से अहम

पर सभी क्रूर हैं
सभी कठोर हैं
चाहे अपने घर की छत हो
या घर की दीवार
बड़े नगर की अपनी दुनिया
अपना है संसार
दूरदर्शन के एंटेना से फैले
मानव लाखों-हज़ार
सभी सलीब पर चढ़े हुए हैं
ईसा मसीह बनकर, यार!

4.

धूप खिली थी
और रिमझिम वर्षा
छत पर ढोलक-सी बज रही थी लगातार
सूर्य ने फैला रखी थीं बाहें अपनी
वह जीवन को आलिंगन में भर
कर रहा था प्यार

नव-अरुण की
ऊष्मा से
हिम सब पिघल गया था
जमा हुआ
जीवन सारा तब
जल में बदल गया था

वसन्त कहार बन
बहंगी लेकर
हिलता-डुलता आया ऎसे
दो बाल्टियों में
भर लाया हो
दो कम्पित सूरज जैसे

5.

बाकू के
एक प्रसूतिगृह के दरवाज़े पर
एक बूढ़ी आया ने
दंगाइयों को धमकाते हुए कहा--
हटो, पीछे हटो,
मैं हमेशा ही रला-मिला देती थी
शिशुओं के हाथों में बंधे टैग
अब यह जानना बेहद कठिन है
कि तुममें कौन है अरमेनियाई
और कौन अज़रबैजानी...

और दंगाई...
साइकिल की चेन, ईंट-पत्थरों, चाकू-छुरियों
और लोहे की छड़ों से लैस दंगाई
पीछे हट गए
पर उनमें से कुछ चीखे--छिनाल

उस बुढ़िया की
पीठ के पीछे छिपे हुए थे
डरे हुए लोग
और रिरिया रहे थे अपनी जाति से अनजान

हममें से हर एक की रगों में
रक्त का है सम्मिश्रण
हर यहूदी अरब भी है
हर अरब है यहूदी
और यदि कभी कोई भीगा किसी के रक्त में
तो मूर्खतावश, अंधा होकर
भीगा अपने ही रक्त में

एक ही प्रसूतिगृह के हैं हम
पर प्रभु ने बदल डाले हमारे टैग
हमारे जनम के कठिन दौर के पहले ही
और हमारा हर दंगा
अब ख़ुद से ही दंगा है

हे ईश्वर!
इस ख़ूनी उबाल से बचा हमें
अल्लाह, बुद्ध और ईसा के बच्चे
जिन्हें रला-मिला दिया गया था प्रसूतिगृह में ही
बिना टैग के हैं
जीवन और सौन्दर्य की तरह...

6.

हमारी माताएँ
जा रही हैं पास से हमारे
चुपचाप, दबे पाँव
वे गुज़रती जा रही है
और हम
भरपेट भोजन कर
गहन तंद्रा में पड़े हैं
हमें नहीं है कोई ख़्याल
बड़ा भयानक है यह काल

नहीं, अचानक नहीं जातीं
माँएँ हमारे पास से
एकाएक नहीं छोड़तीं वे देह
हमें लगता है सिर्फ़ ऎसा
जब अचानक
हम नहीं पाते उनका नेह

धीरे-धीरे
छिजती जाती हैं वे
धीरे-धीरे छिलती जाती है
हल्के क़दमों से बढ़ती हैं
सीढ़ियाँ उम्र की चढ़ती हैं

कभी-कभी
ऐसा होता है अचानक
बेचैन हो जाते हैं हम किसी वर्ष
मनाते हैं उनका जन्मदिन
हल्ला-गुल्ला करते हैं सहर्ष

लेकिन
यह होता है हमारा
बड़ी देर से किया गया हवन
हम बचाव नहीं कर सकते इससे
अपनी अंतरात्मा का
इससे नहीं बच पाता उनका जीवन

वे सब छोड़
चली जाती हैं
हमसे मुँह मोड़
चली जाती हैं
हम जब तक उनकी परवाह करें
गहरी तन्द्रा से जगें

हाथ हमारे उठें अचानक
ख़ुदा की दुआ में
पर जैसे वे टकराते हैं
ऊपर कहीं हवा में
पैदा हो जाती है वहाँ शीशे की दीवार
देर हो गई बहुत हमें, भाई
अब क्या करें विचार

काल भयानक निकट आ गया
महाकाल हमें भरमा गया
आँसू भरी आँखों से अब
हम देख रहे हैं सारे
कैसे चुपचाप, एक-एक कर
माँएँ स्वर्ग सिधारें

7.

मैंने दोस्त खो दिया
और आप देश की बात करते हैं
मेरा बन्धु खो गया
और आप जनता की चर्चा कर रहे हैं
मुझे नहीं चाहिए वह देश,जहाँ हर चीज़ की कीमत है
मुझे नहीं चाहिए वह जनता, जो आज़ाद होकर भी ग़ुलाम है
मेरा दोस्त खो गया, और खो गया मैं भी
हमने खो दिया वह जो देश से अधिक है
अब आसान नहीं होगा
हमें हमारी आवाज़ों से पहचानना
तो कोने में गोली एक छूटती है
तो रॉकेटों का रुदन सुनाई देता है

मैं थोड़ा-सा वह था
और वह थोड़ा-सा मैं
उसने मुझे कभी बेचा नहीं और मैंने भी उसे
देश हमेशा दोस्त नहीं होता
वह मेरा देश था
जनता बेवफ़ा दोस्त होती है
वह मेरी जनता था

मैं रूसी
वह जार्जियाई
काकेशस अब शवगृह है
लोगों के बीच बेहूदा लड़ाई जारी है
यदि दोस्त मेरा मर गया, मेरी जनता भी मर गई
यदि दोस्त मेरा मारा गया, देश भी मारा गया

अब जोड़ नहीं सकते हम
अपना टूटा हुआ वह देश
हाथ से छूट कर गिर पड़ा है जो
मृतक शरीरों के उस ढेर के बीच
दफ़ना दिया गया है जिन्हें बिना कब्र के ही

मेरा दोस्त कभी मरा नहीं
वह इसलिए दोस्त है
और दोस्त व जनता पर कभी
सलीब खड़ा नहीं किया जा सकता

रविवार, 21 मार्च 2010

आज रूस के उस कवि की कविताएँ प्रस्तुत करना चाहता हूँ जिसे सिर्फ़ इसलिए मौत का मुँह देखना पड़ा क्योंकि उसने अपने देश के तानाशाह शासक की अपनी कविता में खिल्ली उड़ाई थी। ओसिप मंदेलश्ताम ऐसे ही कवि थे। उन्हें उनकी कविता के कारण बार-बार गिरफ़्तार किया गया और फिर एक ऐसे यातना-शिविर में झोंक दिया गया, जहाँ कुछ ही हफ़्तों में वे मर गए। उनकी लाश को यातना शिविर के कैदियों की एक सामूहिक क़ब्र के गड्ढे में डाल कर दफ़ना दिया गया। सिर्फ़ उनके पाठकों की ज़ुबान पर उनका नाम और उनकी 352 कविताएँ हमारी इस दुनिया में बाक़ी रह गईं। अपनी इन कविताओं के आधार पर ही उनका नाम आज रूस के प्रमुख महाकवियों में से एक माना जाता है। प्रस्तुत हैं उनकी कुछ कविताएँ :

1.

चांद पर
जन्म नहीं लेती
एक भी गीत-कथा

चांद पर
सारी जनता
बनाती है टोकरियाँ

बुनती है पयाल से
हल्की-फुल्की टोकरियाँ

चांद पर
अंधेरा है
उसके आधे हिस्से में

और शेष में
घर हैं साफ़-सुथरे

नहीं, नहीं
घर नहीं हैं चांद पर
सिर्फ़ कबूतरख़ाने हैं

नीले-आसमानी घर
जिनमें रहते हैं कबूतर

(रचनाकाल : 1914)

2.

कुछ भी कहने की ज़रूरत नहीं
कुछ सीखने की भी ज़रूरत नहीं
बहुत उदास है पर है भली-भली
उसकी वहशियाना आत्मा काली

कुछ सीखना वह चाहती नहीं
और ख़ुद कुछ कह पाती नहीं
तैर रही है युवा डेल्फ़िन-सी
दुनिया के प्राचीन भँवर में ही

(रचनाकाल : 1909)

3.

मुझे दिया गया शरीर, मैं क्या करूँ इसका
जितना बेजोड़ यह मेरा है और भला किसका ?

इस शान्त ख़ुशी, इन साँसों और जीवन के लिए
किसका शुक्रिया अदा करूँ मैं, बताओ प्रिय ?

मैं ख़ुद ही माली हूँ और मैं ही तो हूँ बग़ीचा,
दुनिया के इस अंधेरे में, सिर्फ़ मैं ही नहीं हूँ रीता ।

अमरत्व के इस काँच पर, ऎ फकीर !
लेटी हुई है आत्मा मेरी और शरीर ।

इस काँच पर ख़ुदे हुए हैं कुछ बेलबूटे ऎसे,
पहचानना कठिन है जिन्हें पिछले कुछ समय से ।

समय की गन्दी धारा यह बह जाने दो
ख़ुदे हुए इन प्रिय बेलबूटों को रह जाने दो ।

(रचनाकाल : 1909)

4.

भय देखे हमने बहुतेरे
बड़बोले ओ साथी मेरे!

ओह! छूटे खैनी की फँक्की
मूर्ख है तू सनकी है झक्की!

गूँजे यदि जीवन, कूके मयूरी
खाने को मिलते तब हलवा-पूरी

पर लगता है रह जाएगी अब
यार तेरी यह चाहत अधूरी

(रचनाकाल : अक्तूबर 1930, तिफ़लिस)

5.

मुझ से
समुद्र छीन कर

छीन कर
दौड़ और उड़ान

मेरी एड़ियों को
बलपूर्वक
ज़मीन में ठोंककर

आपको क्या मिला ?


आपने
हिसाब पूरा कर लिया
शानदार ढंग से

पर
मेरे फड़फड़ाते होंठ
मुझ से
आप छीन नहीं पाए

(रचनाकाल : 1935)

6.


कितना धीमे
चल रहे हैं घोड़े
लालटेन की रोशनी कितनी कम है
शायद ये अजनबी
जानते हैं ये बात
कहाँ ले जा रहे हैं मुझे वे इस रात

मेरी चिन्ता
अब उनको ही करनी है
मुझे तो नींद आ रही है
मैं सोना चाहता हूँ
शायद पहुँच गया हूँ उस मोड़ पर
जहाँ बन जाऊंगा मैं किसी तारे की रोशनी

सिर मेरा गर्म है
चक्कर आ रहे हैं
कोई अजनबी कोमल हाथ
मुझे छू रहा है
दिखाई दे रहे हैं मुझे
फर-वृक्षों के काले आकार
जिन्हें पहले नहीं देखा कभी मैंने
ऎसे कुछ धुंधले उभार

(रचनाकाल : 1911)

शनिवार, 20 मार्च 2010

अलेक्सान्दर पूश्किन इस रूसी कवि का नाम है। लेकिन हम हिन्दी वालों ने इस नाम को ’अलेक्सान्द्र पुश्किन’ बना दिया है।
क्या हम इस नाम को सुधार कर नहीं लिख और पढ़ सकते हैं। ख़ैर, आज कवि अलेक्सान्दर पूश्किन की तीन कविताएँ।
मुझे आशा है कि ये कविताएँ आपको अच्छी लगेंगी।

1.

विदा, प्रिय प्रेमपत्र, विदा, यह उसका आदेश था
तुम्हें जला दूँ मैं तुरन्त ही यह उसका संदेश था

कितना मैंने रोका ख़ुद को कितनी देर न चाहा
पर उसके अनुरोध ने, कोई शेष न छोड़ी राह
हाथों ने मेरे झोंक दिया मेरी ख़ुशी को आग में
प्रेमपत्र वह लील लिया सुर्ख़ लपटों के राग ने

अब समय आ गया जलने का, जल प्रेमपत्र जल
है समय यह हाथ मलने का, मन है बहुत विकल
भूखी ज्वाला जीम रही है तेरे पन्ने एक-एक कर
मेरे दिल की घबराहट भी धीरे से रही है बिखर

क्षण भर को बिजली-सी चमकी, उठने लगा धुँआ
वह तैर रहा था हवा में, मैं कर रहा था दुआ
लिफ़ाफ़े पर मोहर लगी थी तुम्हारी अंगूठी की
लाख पिघल रही थी ऎसे मानो हो वह रूठी-सी

फिर ख़त्म हो गया सब कुछ, पन्ने पड़ गए काले
बदल गए थे हल्की राख में शब्द प्रेम के मतवाले
पीड़ा तीखी उठी हृदय में औ' उदास हो गया मन
जीवन भर अब बसा रहेगा मेरे भीतर यह क्षण ।।

2.

(येकेतिरिना बाकूनिना के लिए)

सुनी क्या तुमने जंगल से आती आवाज़ वो प्यारी
गीत प्रेम के, गीत रंज के, गाता है वह न्यारे
सुबह - सवेरे शान्त पड़े जब खेत और जंगल सारे
पड़ी सुनाई आवाज़ दुखभरी कान में हमारे
यह आवाज़ कभी सुनी क्या तुमने ?

मिले कभी क्या घुप्प अंधेरे जंगल में तुम उससे
गाए सदा जो बड़े रंज से अपने प्रेम के किस्से
बहे कभी क्या आँसू तुम्हारे मुस्कान कभी देखी क्या
भरी हुई हो जो वियोग में ऎसी दृष्टि लेखी क्या
मिले कभी क्या तुम उससे ?

साँस भरी क्या दुख से कभी आँखों की वीरानी देख
गीत वो गाए बड़े रंज से दे अपने दुख के संदेश
घूम रहा इस किशोर वय में जंगल में प्रेमी उदास
बुझी हुई आँखों में उसकी अब ख़त्म हो चुकी आस
साँस भरी दुख से क्या कभी तुमने ?

3.

(ओदेस्साई कन्या अमालिया रीज़निच के लिए)

सब ख़त्म हो गया अब हममें कोई सम्बन्ध नहीं है
हम दोनों के बीच प्रेम का अब कोई बन्ध नहीं है
अन्तिम बार तुझे बाहों में लेकर मैंने गाए गीत
तेरी बातें सुनकर लगा ऎसा, ज्यों सुना उदास संगीत ।

अब ख़ुद को न दूंगा धोखा, यह तय कर लिया मैंने
डूब वियोग में न करूंगा पीछे तय कर लिया मैंने
गुज़र गया जो भूल जाऊंगा, तय कर लिया है मैंने
पर तुझे न भूल पाऊंगा, यह तय किया समय ने

शायद प्रेम अभी मेरा चुका नहीं है, ख़त्म नहीं हुआ है
सुन्दर है, आत्मीय है तू, प्रिया मेरी अभी बहुत युवा है
अभी इस जीवन में तुझ से न जाने कितने प्रेम करेंगे
जाने कितने अभी मर मिटेंगे और तुझे देख आहें भरेंगे ।