एक बड़े रूसी कवि येव्गेनी येव्तुशेंको रूस के बेहद विवादास्पद कवियों में से एक हैं। बहुत से रूसी कवि तो उन्हें सिर्फ़ इस बात पर कवि नहीं मानते क्योंकि उनकी कविताएँ एक तरह से रूस में घटने वाली घटनाओं की डायरी हैं। हिन्दी के कवि नागार्जुन की तरह वे किसी भी महत्त्वपूर्ण घटना पर तुरन्त अपनी प्रतिक्रिया दर्ज़ करते हैं और एक कविता लिख देते हैं। सबसे बड़ी बात तो यह है कि सोवियत शासन में भी, जब कवियों का दमन आम बात थी, वो सत्ता के साथ अपनी असहमती दर्ज़ करने से घबराते नहीं थे। लेकिन सरकार ने ही उन्हें नहीं छेड़ा क्योंकि वे दुनिया भर में इतने प्रसिद्ध थे कि सोवियत सरकार को ही यह डर लगा रहता था कि वह उनके विरुद्ध कार्रवाई करके कहीं दुनिया भर में विरोध की कोई मुसीबत मोल न ले ले।
येव्तुशेंको ने रूसी जीवन का बड़ा अच्छा और बड़ा सच्चा ख़ाका अपनी कविताओं में खींचा है। सन 2004 में मैंने उनकी कविताओं का एक संग्रह 'मेधा बुक्स' प्रकाशन से छपवाया था, जिसका नाम था "धूप खिली थी और रिमझिम वर्षा"। यह संग्रह अब आऊट ऑफ़ प्रिंट है। आज उसी संग्रह से उनकी कुछ ऐसी कविताएँ प्रस्तुत हैं जो जीवन के हर पक्ष को चित्रित करती हैं।
1.
"औरत लोग"
मेरे जीवन में आईं हैं औरतें कितनी
गिना नहीं कभी मैंने
पर हैं वे एक ढेर जितनी
अपने लगावों का मैंने
कभी कोई हिसाब नहीं रक्खा
पर चिड़ी से लेकर हुक्म तक की बेगमों को परखा
खेलती रहीं वे खुलकर मुझसे उत्तेजना के साथ
और भला क्या रखा था
दुनिया के इस सबसे अविश्वसनीय
बादशाह के पास
समरकन्द में बोला मुझ से एक उज़्बेक-
"औरत लोग होती हैं आदमी नेक"
औरत लोगो के बारे में मैंने अब तक जो लिखी कविताएँ
एक संग्रह पूरा हो गया और वे सबको भाएँ
मैंने अब तक जो लिखा है और लिखा है जैसा
औरत लोगों ने माँ और पत्नी बन
लिख डाला सब वैसा
पुरुष हो सकता है अच्छा पिता सिर्फ़ तब
माँ जैसा कुछ होता है उसके भीतर जब
औरत लोग कोमल मन की हैं दया है उनकी आदत
मुझे बचा लेंगी वे उस सज़ा से, जो देगी मुझे
पुरुषों की दुष्ट अदालत
मेरी गुरनियाँ, मेरी टीचर, औरत लोग हैं मेरी ईश्वर
पृथ्वी लगा रही है देखो, उनकी जूतियों के चक्कर
मैं जो कवि बना हूँ आज, कवियों का यह पूरा समाज
सब उन्हीं की कृपा है
औरत लोगों ने जो कहा, कुछ भी नहीं वृथा है
सुन्दर, कोमलांगी लेखिकाएँ जब गुजरें पास से मेरे
मेरे प्राण खींच लेते हैं उनकी स्कर्टों के घेरे
2.
"पुराना दोस्त"
मुझे सपने में दिखाई देता है पुराना दोस्त
दुश्मन हो चुका है जो अब
लेकिन सपने में वह दुश्मन नहीं होता
बल्कि दोस्त वही पुराना, अपने उसी पुराने रूप में
साथ नहीं वह अब मेरे
पर आस-पास है, हर कहीं है
सिर मेरा चकराए यह देख-देख
कि मेरे हर सपने में सिर्फ़ वही है
मुझे सपने में दिखाई देता है पुराना दोस्त
चीख़ता है दीवार के पास
पश्चाताप करता है ऎसी सीढ़ियों पर खड़ा हो
जहाँ से शैतान भी गिरे तो टूट जाए पैर उसका
घृणा करता है वह बेतहाशा
मुझसे नहीं, उन लोगों से
जो कभी दुश्मन थे हमारे और बनेंगे कभी
भगवान कसम!
मुझे सपने में दिखाई देता है पुराना दोस्त
जीवन के पहले उस प्यार की तरह
फिर कभी वापिस नहीं लौटेगा जो
हमने साथ-साथ ख़तरे उठाए
साथ-साथ युद्ध किया जीवन से, जीवन भर
और अब हम दुश्मन हैं एक-दूसरे के
दो भाइयों जैसे पुराने दोस्त
मुझे सपने में दिखाई देता है पुराना दोस्त
जैसे दिखाई दे रहा हो लहराता हुआ ध्वज
युद्ध में विजयी हुए सैनिकों को
उसके बिना मैं- मैं नहीं
मेरे बिना वह- वह नहीं
और यदि हम वास्तव में दुश्मन हैं तो अब वह समय नहीं
मुझे सपने में दिखाई देता है पुराना दोस्त
मेरी ही तरह मूर्ख है वह भी
कौन सच्चा है, कौन है दोषी
मैं इस पर बात नहीं करूंगा अभी
नए दोस्तों से क्या हो सकता है भला
बेहतर होता है पुराना दुश्मन ही
हाँ, एकबारगी दुश्मन नया हो सकता है
पर दोस्त तो चाहिए मुझे पुराना ही
3.
मैंने तुम्हें बहुत समझाया
बहुत मनाया और बहलाया
बहुत देर कंधे सहलाए
पर रोती रहीं,
रोती ही रहीं तुम, हाय!
लड़ती रहीं मुझसे-
मैं तुमसे बात नहीं करना चाहती...
कहती रहीं मुझसे-
मैं तुम्हें अब प्यार नहीं करना चाहती...
और यह कहकर भागीं तुम बाहर
बाहर बारिश थी, तेज़ हवा थी
पर तुम्हारी ज़िद्द की नहीं कोई दवा थी
मैं भागा पीछे साथ तुम्हारे
खुले छोड़ सब घर के द्वारे
मैं कहता रहा-
रुक जाओ, रुक जाओ ज़रा
पर तुम्हारे मन में तब गुस्सा था बड़ा
काली छतरी खोल लगा दी
मैंने तुम्हारे सिर पर
बुझी आँखों से देखा तुमने मुझे
तब थोड़ा सिहिर कर
फिर सिहरन-सी तारी हो गई
तुम्हारे पूरे तन पर
बेहोशी-सी लदी हुई थी
ज्यों तुम्हारे मन पर
नहीं बची थी पास तुम्हारे
कोमल, नाज़ुक वह काया
ऎसा लगता था शेष बची है
सिर्फ़ उसकी हल्की-सी छाया
चारों तरफ़ शोर कर रही थीं
वर्षा की बौछारें
मानो कहती हों तू है दोषी
कर मेरी तरफ़ इशारे-
हम क्रूर हैं, हम कठोर हैं
हम हैं बेरहम
हमें इस सबकी सज़ा मिलेगी
अहम से अहम
पर सभी क्रूर हैं
सभी कठोर हैं
चाहे अपने घर की छत हो
या घर की दीवार
बड़े नगर की अपनी दुनिया
अपना है संसार
दूरदर्शन के एंटेना से फैले
मानव लाखों-हज़ार
सभी सलीब पर चढ़े हुए हैं
ईसा मसीह बनकर, यार!
4.
धूप खिली थी
और रिमझिम वर्षा
छत पर ढोलक-सी बज रही थी लगातार
सूर्य ने फैला रखी थीं बाहें अपनी
वह जीवन को आलिंगन में भर
कर रहा था प्यार
नव-अरुण की
ऊष्मा से
हिम सब पिघल गया था
जमा हुआ
जीवन सारा तब
जल में बदल गया था
वसन्त कहार बन
बहंगी लेकर
हिलता-डुलता आया ऎसे
दो बाल्टियों में
भर लाया हो
दो कम्पित सूरज जैसे
5.
बाकू के
एक प्रसूतिगृह के दरवाज़े पर
एक बूढ़ी आया ने
दंगाइयों को धमकाते हुए कहा--
हटो, पीछे हटो,
मैं हमेशा ही रला-मिला देती थी
शिशुओं के हाथों में बंधे टैग
अब यह जानना बेहद कठिन है
कि तुममें कौन है अरमेनियाई
और कौन अज़रबैजानी...
और दंगाई...
साइकिल की चेन, ईंट-पत्थरों, चाकू-छुरियों
और लोहे की छड़ों से लैस दंगाई
पीछे हट गए
पर उनमें से कुछ चीखे--छिनाल
उस बुढ़िया की
पीठ के पीछे छिपे हुए थे
डरे हुए लोग
और रिरिया रहे थे अपनी जाति से अनजान
हममें से हर एक की रगों में
रक्त का है सम्मिश्रण
हर यहूदी अरब भी है
हर अरब है यहूदी
और यदि कभी कोई भीगा किसी के रक्त में
तो मूर्खतावश, अंधा होकर
भीगा अपने ही रक्त में
एक ही प्रसूतिगृह के हैं हम
पर प्रभु ने बदल डाले हमारे टैग
हमारे जनम के कठिन दौर के पहले ही
और हमारा हर दंगा
अब ख़ुद से ही दंगा है
हे ईश्वर!
इस ख़ूनी उबाल से बचा हमें
अल्लाह, बुद्ध और ईसा के बच्चे
जिन्हें रला-मिला दिया गया था प्रसूतिगृह में ही
बिना टैग के हैं
जीवन और सौन्दर्य की तरह...
6.
हमारी माताएँ
जा रही हैं पास से हमारे
चुपचाप, दबे पाँव
वे गुज़रती जा रही है
और हम
भरपेट भोजन कर
गहन तंद्रा में पड़े हैं
हमें नहीं है कोई ख़्याल
बड़ा भयानक है यह काल
नहीं, अचानक नहीं जातीं
माँएँ हमारे पास से
एकाएक नहीं छोड़तीं वे देह
हमें लगता है सिर्फ़ ऎसा
जब अचानक
हम नहीं पाते उनका नेह
धीरे-धीरे
छिजती जाती हैं वे
धीरे-धीरे छिलती जाती है
हल्के क़दमों से बढ़ती हैं
सीढ़ियाँ उम्र की चढ़ती हैं
कभी-कभी
ऐसा होता है अचानक
बेचैन हो जाते हैं हम किसी वर्ष
मनाते हैं उनका जन्मदिन
हल्ला-गुल्ला करते हैं सहर्ष
लेकिन
यह होता है हमारा
बड़ी देर से किया गया हवन
हम बचाव नहीं कर सकते इससे
अपनी अंतरात्मा का
इससे नहीं बच पाता उनका जीवन
वे सब छोड़
चली जाती हैं
हमसे मुँह मोड़
चली जाती हैं
हम जब तक उनकी परवाह करें
गहरी तन्द्रा से जगें
हाथ हमारे उठें अचानक
ख़ुदा की दुआ में
पर जैसे वे टकराते हैं
ऊपर कहीं हवा में
पैदा हो जाती है वहाँ शीशे की दीवार
देर हो गई बहुत हमें, भाई
अब क्या करें विचार
काल भयानक निकट आ गया
महाकाल हमें भरमा गया
आँसू भरी आँखों से अब
हम देख रहे हैं सारे
कैसे चुपचाप, एक-एक कर
माँएँ स्वर्ग सिधारें
7.
मैंने दोस्त खो दिया
और आप देश की बात करते हैं
मेरा बन्धु खो गया
और आप जनता की चर्चा कर रहे हैं
मुझे नहीं चाहिए वह देश,जहाँ हर चीज़ की कीमत है
मुझे नहीं चाहिए वह जनता, जो आज़ाद होकर भी ग़ुलाम है
मेरा दोस्त खो गया, और खो गया मैं भी
हमने खो दिया वह जो देश से अधिक है
अब आसान नहीं होगा
हमें हमारी आवाज़ों से पहचानना
तो कोने में गोली एक छूटती है
तो रॉकेटों का रुदन सुनाई देता है
मैं थोड़ा-सा वह था
और वह थोड़ा-सा मैं
उसने मुझे कभी बेचा नहीं और मैंने भी उसे
देश हमेशा दोस्त नहीं होता
वह मेरा देश था
जनता बेवफ़ा दोस्त होती है
वह मेरी जनता था
मैं रूसी
वह जार्जियाई
काकेशस अब शवगृह है
लोगों के बीच बेहूदा लड़ाई जारी है
यदि दोस्त मेरा मर गया, मेरी जनता भी मर गई
यदि दोस्त मेरा मारा गया, देश भी मारा गया
अब जोड़ नहीं सकते हम
अपना टूटा हुआ वह देश
हाथ से छूट कर गिर पड़ा है जो
मृतक शरीरों के उस ढेर के बीच
दफ़ना दिया गया है जिन्हें बिना कब्र के ही
मेरा दोस्त कभी मरा नहीं
वह इसलिए दोस्त है
और दोस्त व जनता पर कभी
सलीब खड़ा नहीं किया जा सकता
सोमवार, 22 मार्च 2010
रविवार, 21 मार्च 2010
आज रूस के उस कवि की कविताएँ प्रस्तुत करना चाहता हूँ जिसे सिर्फ़ इसलिए मौत का मुँह देखना पड़ा क्योंकि उसने अपने देश के तानाशाह शासक की अपनी कविता में खिल्ली उड़ाई थी। ओसिप मंदेलश्ताम ऐसे ही कवि थे। उन्हें उनकी कविता के कारण बार-बार गिरफ़्तार किया गया और फिर एक ऐसे यातना-शिविर में झोंक दिया गया, जहाँ कुछ ही हफ़्तों में वे मर गए। उनकी लाश को यातना शिविर के कैदियों की एक सामूहिक क़ब्र के गड्ढे में डाल कर दफ़ना दिया गया। सिर्फ़ उनके पाठकों की ज़ुबान पर उनका नाम और उनकी 352 कविताएँ हमारी इस दुनिया में बाक़ी रह गईं। अपनी इन कविताओं के आधार पर ही उनका नाम आज रूस के प्रमुख महाकवियों में से एक माना जाता है। प्रस्तुत हैं उनकी कुछ कविताएँ :
1.
चांद पर
जन्म नहीं लेती
एक भी गीत-कथा
चांद पर
सारी जनता
बनाती है टोकरियाँ
बुनती है पयाल से
हल्की-फुल्की टोकरियाँ
चांद पर
अंधेरा है
उसके आधे हिस्से में
और शेष में
घर हैं साफ़-सुथरे
नहीं, नहीं
घर नहीं हैं चांद पर
सिर्फ़ कबूतरख़ाने हैं
नीले-आसमानी घर
जिनमें रहते हैं कबूतर
(रचनाकाल : 1914)
2.
कुछ भी कहने की ज़रूरत नहीं
कुछ सीखने की भी ज़रूरत नहीं
बहुत उदास है पर है भली-भली
उसकी वहशियाना आत्मा काली
कुछ सीखना वह चाहती नहीं
और ख़ुद कुछ कह पाती नहीं
तैर रही है युवा डेल्फ़िन-सी
दुनिया के प्राचीन भँवर में ही
(रचनाकाल : 1909)
3.
मुझे दिया गया शरीर, मैं क्या करूँ इसका
जितना बेजोड़ यह मेरा है और भला किसका ?
इस शान्त ख़ुशी, इन साँसों और जीवन के लिए
किसका शुक्रिया अदा करूँ मैं, बताओ प्रिय ?
मैं ख़ुद ही माली हूँ और मैं ही तो हूँ बग़ीचा,
दुनिया के इस अंधेरे में, सिर्फ़ मैं ही नहीं हूँ रीता ।
अमरत्व के इस काँच पर, ऎ फकीर !
लेटी हुई है आत्मा मेरी और शरीर ।
इस काँच पर ख़ुदे हुए हैं कुछ बेलबूटे ऎसे,
पहचानना कठिन है जिन्हें पिछले कुछ समय से ।
समय की गन्दी धारा यह बह जाने दो
ख़ुदे हुए इन प्रिय बेलबूटों को रह जाने दो ।
(रचनाकाल : 1909)
4.
भय देखे हमने बहुतेरे
बड़बोले ओ साथी मेरे!
ओह! छूटे खैनी की फँक्की
मूर्ख है तू सनकी है झक्की!
गूँजे यदि जीवन, कूके मयूरी
खाने को मिलते तब हलवा-पूरी
पर लगता है रह जाएगी अब
यार तेरी यह चाहत अधूरी
(रचनाकाल : अक्तूबर 1930, तिफ़लिस)
5.
मुझ से
समुद्र छीन कर
छीन कर
दौड़ और उड़ान
मेरी एड़ियों को
बलपूर्वक
ज़मीन में ठोंककर
आपको क्या मिला ?
आपने
हिसाब पूरा कर लिया
शानदार ढंग से
पर
मेरे फड़फड़ाते होंठ
मुझ से
आप छीन नहीं पाए
(रचनाकाल : 1935)
6.
कितना धीमे
चल रहे हैं घोड़े
लालटेन की रोशनी कितनी कम है
शायद ये अजनबी
जानते हैं ये बात
कहाँ ले जा रहे हैं मुझे वे इस रात
मेरी चिन्ता
अब उनको ही करनी है
मुझे तो नींद आ रही है
मैं सोना चाहता हूँ
शायद पहुँच गया हूँ उस मोड़ पर
जहाँ बन जाऊंगा मैं किसी तारे की रोशनी
सिर मेरा गर्म है
चक्कर आ रहे हैं
कोई अजनबी कोमल हाथ
मुझे छू रहा है
दिखाई दे रहे हैं मुझे
फर-वृक्षों के काले आकार
जिन्हें पहले नहीं देखा कभी मैंने
ऎसे कुछ धुंधले उभार
(रचनाकाल : 1911)
1.
चांद पर
जन्म नहीं लेती
एक भी गीत-कथा
चांद पर
सारी जनता
बनाती है टोकरियाँ
बुनती है पयाल से
हल्की-फुल्की टोकरियाँ
चांद पर
अंधेरा है
उसके आधे हिस्से में
और शेष में
घर हैं साफ़-सुथरे
नहीं, नहीं
घर नहीं हैं चांद पर
सिर्फ़ कबूतरख़ाने हैं
नीले-आसमानी घर
जिनमें रहते हैं कबूतर
(रचनाकाल : 1914)
2.
कुछ भी कहने की ज़रूरत नहीं
कुछ सीखने की भी ज़रूरत नहीं
बहुत उदास है पर है भली-भली
उसकी वहशियाना आत्मा काली
कुछ सीखना वह चाहती नहीं
और ख़ुद कुछ कह पाती नहीं
तैर रही है युवा डेल्फ़िन-सी
दुनिया के प्राचीन भँवर में ही
(रचनाकाल : 1909)
3.
मुझे दिया गया शरीर, मैं क्या करूँ इसका
जितना बेजोड़ यह मेरा है और भला किसका ?
इस शान्त ख़ुशी, इन साँसों और जीवन के लिए
किसका शुक्रिया अदा करूँ मैं, बताओ प्रिय ?
मैं ख़ुद ही माली हूँ और मैं ही तो हूँ बग़ीचा,
दुनिया के इस अंधेरे में, सिर्फ़ मैं ही नहीं हूँ रीता ।
अमरत्व के इस काँच पर, ऎ फकीर !
लेटी हुई है आत्मा मेरी और शरीर ।
इस काँच पर ख़ुदे हुए हैं कुछ बेलबूटे ऎसे,
पहचानना कठिन है जिन्हें पिछले कुछ समय से ।
समय की गन्दी धारा यह बह जाने दो
ख़ुदे हुए इन प्रिय बेलबूटों को रह जाने दो ।
(रचनाकाल : 1909)
4.
भय देखे हमने बहुतेरे
बड़बोले ओ साथी मेरे!
ओह! छूटे खैनी की फँक्की
मूर्ख है तू सनकी है झक्की!
गूँजे यदि जीवन, कूके मयूरी
खाने को मिलते तब हलवा-पूरी
पर लगता है रह जाएगी अब
यार तेरी यह चाहत अधूरी
(रचनाकाल : अक्तूबर 1930, तिफ़लिस)
5.
मुझ से
समुद्र छीन कर
छीन कर
दौड़ और उड़ान
मेरी एड़ियों को
बलपूर्वक
ज़मीन में ठोंककर
आपको क्या मिला ?
आपने
हिसाब पूरा कर लिया
शानदार ढंग से
पर
मेरे फड़फड़ाते होंठ
मुझ से
आप छीन नहीं पाए
(रचनाकाल : 1935)
6.
कितना धीमे
चल रहे हैं घोड़े
लालटेन की रोशनी कितनी कम है
शायद ये अजनबी
जानते हैं ये बात
कहाँ ले जा रहे हैं मुझे वे इस रात
मेरी चिन्ता
अब उनको ही करनी है
मुझे तो नींद आ रही है
मैं सोना चाहता हूँ
शायद पहुँच गया हूँ उस मोड़ पर
जहाँ बन जाऊंगा मैं किसी तारे की रोशनी
सिर मेरा गर्म है
चक्कर आ रहे हैं
कोई अजनबी कोमल हाथ
मुझे छू रहा है
दिखाई दे रहे हैं मुझे
फर-वृक्षों के काले आकार
जिन्हें पहले नहीं देखा कभी मैंने
ऎसे कुछ धुंधले उभार
(रचनाकाल : 1911)
शनिवार, 20 मार्च 2010
अलेक्सान्दर पूश्किन इस रूसी कवि का नाम है। लेकिन हम हिन्दी वालों ने इस नाम को ’अलेक्सान्द्र पुश्किन’ बना दिया है।
क्या हम इस नाम को सुधार कर नहीं लिख और पढ़ सकते हैं। ख़ैर, आज कवि अलेक्सान्दर पूश्किन की तीन कविताएँ।
मुझे आशा है कि ये कविताएँ आपको अच्छी लगेंगी।
1.
विदा, प्रिय प्रेमपत्र, विदा, यह उसका आदेश था
तुम्हें जला दूँ मैं तुरन्त ही यह उसका संदेश था
कितना मैंने रोका ख़ुद को कितनी देर न चाहा
पर उसके अनुरोध ने, कोई शेष न छोड़ी राह
हाथों ने मेरे झोंक दिया मेरी ख़ुशी को आग में
प्रेमपत्र वह लील लिया सुर्ख़ लपटों के राग ने
अब समय आ गया जलने का, जल प्रेमपत्र जल
है समय यह हाथ मलने का, मन है बहुत विकल
भूखी ज्वाला जीम रही है तेरे पन्ने एक-एक कर
मेरे दिल की घबराहट भी धीरे से रही है बिखर
क्षण भर को बिजली-सी चमकी, उठने लगा धुँआ
वह तैर रहा था हवा में, मैं कर रहा था दुआ
लिफ़ाफ़े पर मोहर लगी थी तुम्हारी अंगूठी की
लाख पिघल रही थी ऎसे मानो हो वह रूठी-सी
फिर ख़त्म हो गया सब कुछ, पन्ने पड़ गए काले
बदल गए थे हल्की राख में शब्द प्रेम के मतवाले
पीड़ा तीखी उठी हृदय में औ' उदास हो गया मन
जीवन भर अब बसा रहेगा मेरे भीतर यह क्षण ।।
2.
(येकेतिरिना बाकूनिना के लिए)
सुनी क्या तुमने जंगल से आती आवाज़ वो प्यारी
गीत प्रेम के, गीत रंज के, गाता है वह न्यारे
सुबह - सवेरे शान्त पड़े जब खेत और जंगल सारे
पड़ी सुनाई आवाज़ दुखभरी कान में हमारे
यह आवाज़ कभी सुनी क्या तुमने ?
मिले कभी क्या घुप्प अंधेरे जंगल में तुम उससे
गाए सदा जो बड़े रंज से अपने प्रेम के किस्से
बहे कभी क्या आँसू तुम्हारे मुस्कान कभी देखी क्या
भरी हुई हो जो वियोग में ऎसी दृष्टि लेखी क्या
मिले कभी क्या तुम उससे ?
साँस भरी क्या दुख से कभी आँखों की वीरानी देख
गीत वो गाए बड़े रंज से दे अपने दुख के संदेश
घूम रहा इस किशोर वय में जंगल में प्रेमी उदास
बुझी हुई आँखों में उसकी अब ख़त्म हो चुकी आस
साँस भरी दुख से क्या कभी तुमने ?
3.
(ओदेस्साई कन्या अमालिया रीज़निच के लिए)
सब ख़त्म हो गया अब हममें कोई सम्बन्ध नहीं है
हम दोनों के बीच प्रेम का अब कोई बन्ध नहीं है
अन्तिम बार तुझे बाहों में लेकर मैंने गाए गीत
तेरी बातें सुनकर लगा ऎसा, ज्यों सुना उदास संगीत ।
अब ख़ुद को न दूंगा धोखा, यह तय कर लिया मैंने
डूब वियोग में न करूंगा पीछे तय कर लिया मैंने
गुज़र गया जो भूल जाऊंगा, तय कर लिया है मैंने
पर तुझे न भूल पाऊंगा, यह तय किया समय ने
शायद प्रेम अभी मेरा चुका नहीं है, ख़त्म नहीं हुआ है
सुन्दर है, आत्मीय है तू, प्रिया मेरी अभी बहुत युवा है
अभी इस जीवन में तुझ से न जाने कितने प्रेम करेंगे
जाने कितने अभी मर मिटेंगे और तुझे देख आहें भरेंगे ।
क्या हम इस नाम को सुधार कर नहीं लिख और पढ़ सकते हैं। ख़ैर, आज कवि अलेक्सान्दर पूश्किन की तीन कविताएँ।
मुझे आशा है कि ये कविताएँ आपको अच्छी लगेंगी।
1.
विदा, प्रिय प्रेमपत्र, विदा, यह उसका आदेश था
तुम्हें जला दूँ मैं तुरन्त ही यह उसका संदेश था
कितना मैंने रोका ख़ुद को कितनी देर न चाहा
पर उसके अनुरोध ने, कोई शेष न छोड़ी राह
हाथों ने मेरे झोंक दिया मेरी ख़ुशी को आग में
प्रेमपत्र वह लील लिया सुर्ख़ लपटों के राग ने
अब समय आ गया जलने का, जल प्रेमपत्र जल
है समय यह हाथ मलने का, मन है बहुत विकल
भूखी ज्वाला जीम रही है तेरे पन्ने एक-एक कर
मेरे दिल की घबराहट भी धीरे से रही है बिखर
क्षण भर को बिजली-सी चमकी, उठने लगा धुँआ
वह तैर रहा था हवा में, मैं कर रहा था दुआ
लिफ़ाफ़े पर मोहर लगी थी तुम्हारी अंगूठी की
लाख पिघल रही थी ऎसे मानो हो वह रूठी-सी
फिर ख़त्म हो गया सब कुछ, पन्ने पड़ गए काले
बदल गए थे हल्की राख में शब्द प्रेम के मतवाले
पीड़ा तीखी उठी हृदय में औ' उदास हो गया मन
जीवन भर अब बसा रहेगा मेरे भीतर यह क्षण ।।
2.
(येकेतिरिना बाकूनिना के लिए)
सुनी क्या तुमने जंगल से आती आवाज़ वो प्यारी
गीत प्रेम के, गीत रंज के, गाता है वह न्यारे
सुबह - सवेरे शान्त पड़े जब खेत और जंगल सारे
पड़ी सुनाई आवाज़ दुखभरी कान में हमारे
यह आवाज़ कभी सुनी क्या तुमने ?
मिले कभी क्या घुप्प अंधेरे जंगल में तुम उससे
गाए सदा जो बड़े रंज से अपने प्रेम के किस्से
बहे कभी क्या आँसू तुम्हारे मुस्कान कभी देखी क्या
भरी हुई हो जो वियोग में ऎसी दृष्टि लेखी क्या
मिले कभी क्या तुम उससे ?
साँस भरी क्या दुख से कभी आँखों की वीरानी देख
गीत वो गाए बड़े रंज से दे अपने दुख के संदेश
घूम रहा इस किशोर वय में जंगल में प्रेमी उदास
बुझी हुई आँखों में उसकी अब ख़त्म हो चुकी आस
साँस भरी दुख से क्या कभी तुमने ?
3.
(ओदेस्साई कन्या अमालिया रीज़निच के लिए)
सब ख़त्म हो गया अब हममें कोई सम्बन्ध नहीं है
हम दोनों के बीच प्रेम का अब कोई बन्ध नहीं है
अन्तिम बार तुझे बाहों में लेकर मैंने गाए गीत
तेरी बातें सुनकर लगा ऎसा, ज्यों सुना उदास संगीत ।
अब ख़ुद को न दूंगा धोखा, यह तय कर लिया मैंने
डूब वियोग में न करूंगा पीछे तय कर लिया मैंने
गुज़र गया जो भूल जाऊंगा, तय कर लिया है मैंने
पर तुझे न भूल पाऊंगा, यह तय किया समय ने
शायद प्रेम अभी मेरा चुका नहीं है, ख़त्म नहीं हुआ है
सुन्दर है, आत्मीय है तू, प्रिया मेरी अभी बहुत युवा है
अभी इस जीवन में तुझ से न जाने कितने प्रेम करेंगे
जाने कितने अभी मर मिटेंगे और तुझे देख आहें भरेंगे ।
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