रविवार, 24 जुलाई 2016

मदनलाल मधु की याद में
येव्गेनी चेलिशिफ़, अकादमीशियन
बीती सात मई को मास्को में 89 वर्षीय प्रसिद्ध भारतीय लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता डॉ० मदनलाल मधु का देहान्त हो गया। उनका जन्म 1925 में पंजाब राज्य के फ़िरोज़पुर में हुआ था। फ़िरोज़पुर में ही उनकी शिक्षा-दीक्षा हुई। कैशौर्यकाल में ही वे साहित्य लेखन  की तरफ़ आकर्षित हो गए थे और पाँचवे दशक के अन्त में लाहौर, दिल्ली इलाहाबाद और दूसरे शहरों में प्रकाशित होने वाली पत्रिकाओं में उनकी रचनाएँ और साहित्यिक लेख छपने शुरू हो गए थे। कुछ ही समय बाद 1951 में उनका पहला कविता-संग्रह प्रकाशित हुआ, जिसे हिन्दी साहित्य जगत के पाठकों और आलोचकों ने हाथों-हाथ लिया। कवि हरिवंशराय बच्चन का ज़माना था। बच्चन ने कवि मदनलाल मधु की रचनाओं का ऊँचा मूल्यांकन किया।

पहले कविता-संग्रह के बाद कवि मदनलाल मधु का दूसरा कविता-संग्रह प्रकाशित हुआ। मधु उन दिनों बेहद सक्रिय थे और उनकी रचनाएँ उन दिनों प्रकाशित होने वाले सभी संकलनों में शामिल की जा रही थीं। इसके अलावा वे मुशायरों और कवि-सम्मेलनों में भी भाग लेने लगे थे। ऑल इण्डिया रेडियो ने अपने काव्य-संगीत कार्यक्रमों के लिए उन्हें कॉपीराइटर के रूप में अपने यहाँ काम करने के लिए बुलाया था।

भारत में उनका साहित्यिक करियर सफलतापूर्वक शुरू हुआ था, लेकिन उनके भाग्य में कुछ और ही लिखा हुआ था। 1955 में भारत के प्रधानमन्त्री पण्डित जवाहरलाल नेहरू ने रूस की यात्रा की थी। और भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री की उस रूस-यात्रा से हमारे दो देशों के बीच आपसी सम्बन्धों के इतिहास में एक नए दौर की शुरूआत हुई। उन्होंने रूस और भारत के बीच पारस्परिक समझ और दोस्ती की नींव डाली। उनकी इस यात्रा से ही दो देशों के बीच आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में पारस्परिक बहुमुखी सहयोग आरम्भ हुआ। दो देशों के बीच हुए समझौतों के अनुसार, रूस ने न सिर्फ़ भिलाई इस्पात कारखाने के निर्माण और पंजाब में सतलुज नदी पर भाखड़ा नंगल बाँध के निर्माण में भारत की सहायता की, बल्कि पारस्परिक रूप से आपस में सांस्कृतिक आदान-प्रदान की भी शुरूआत हुई। साँस्कृतिक क्षेत्र में किए गए समझौतों में पण्डित नेहरू ने सैद्धान्तिक रूप से एकदम नया और महत्त्वपूर्ण प्रस्ताव रखा था। उन्होंने भारत के उच्च शिक्षा प्राप्त भारतीय विशेषज्ञों को लम्बे समय के लिए रूस भेजने की बात की थी। भारत के विदेश मन्त्रालय ने ऐसे पेशेवर विशेषज्ञों का चुनाव करने के लिए एक कमेटी बनाई और फिर नवम्बर 1956 में इन विशेषज्ञों का पहला दल मास्को आ पहुँचा। इन विशेषज्ञों में भीष्म साहनी, ज़ोए अन्सारी, गोपीकृष्ण गोपेश, सोमा सुन्दरम, नौनी भौमिक और मदनलाल मधु जैसे लोग शामिल थे। मधु जी की सिफ़ारिश तो ख़ुद कवि हरिवंशराय बच्चन ने की थी, जो विदेश मन्त्रालय की इस कमेटी के भी सदस्य थे।

इन सभी लोगों को मास्को के ’विदेशी साहित्य प्रकाशनगृह’ के भारतीय विभाग में काम करना था। बाद में इस प्रकाशनगृह का नाम बदलकर ’प्रगति प्रकाशन’ और ’रादुगा प्रकाशन’ कर दिया गया था। द्वितीय विश्वयुद्ध में भाग ले चुके सोवियत सेना के एक पूर्व अधिकारी गिओर्गी पित्रोविच निकिफ़ारफ़ इस भारतीय विभाग के प्रमुख थे। मैं  ख़ुद उन दिनों सोवियत विज्ञान अकादमी के प्राच्य अध्ययन संस्थान में पूर्वी देशों के साहित्य विभाग का प्रमुख था और इसके साथ-साथ सोवियत विदेश मन्त्रालय के अन्तर्गत कार्यरत अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्ध संस्थान में भारतीय भाषा विभाग का भी प्रमुख था।

रूस पहुँचे इन भारतीय विशेषज्ञों द्वारा किए जाने वाले अनुवाद के काम में बिना कोई बाधा पहुँचाए मैं अपने अध्यापन और शोध के काम में उनका अधिक से अधिक लाभदायक रूप से इस्तेमाल करने की कोशिश करता था। रूस और भारत के बीच तूफ़ानी सहयोग के उन वर्षों में रूस में काम करने वाले भारतीय विशेषज्ञों से सभी लोग अधिकतम लाभ उठाना चाहते थे। भीष्म साहनी, जो बाद में भारत के एक प्रमुख लेखक बन गए, अफ़्रो-एशियाई एकजुटता कमेटी के साथ मिलकर लेखकों के अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन के आयोजन के काम में जुट गए थे। नौनी भौमिक रवीन्द्रनाथ टैगोर की रचनाओं की 12 खण्डों वाली रचनावली के तैयारी में व्यस्त हो गए थे। जोए अंसारी, जो रूस से वापिस भारत लौटकर मुम्बई विश्वविद्यालय में रूसी विभाग के प्रमुख बने, उर्दू-रूसी
 शब्दकोश का निर्माण करने और उसका सम्पादन करने में लगे हुए थे। और मदनलाल मधु के साथ हम मिलकर शोधकार्य तो कर ही रहे थे, इसके अलावा हम ’सोवियत-भारतीय मैत्री समाज’ की गतिविधियों में सक्रिय रूप से व्यस्त हो गए थे। ’सोवियत-भारतीय मैत्री समाज’ ने हमारे दो देशों के बीच सांस्कृतिक सम्बन्धों को प्रगाढ़ करने में भारी योग दिया। मुझे पहले इस संगठन का उपाध्यक्ष बनने और फिर अध्यक्ष बनने का भी सौभाग्य मिला। मधु जी उन्हीं दिनों रूस में कार्यरत भारतीय लोगों के संगठन ’हिन्दुस्तानी समाज’ के अध्यक्ष चुने गए थे।
अपने काग़ज़ों में मुझे ’हिन्दुस्तानी समाज’ की स्वर्ण जयन्ती के अवसर पर प्रकाशित ’हिन्दुस्तानी समाज’ के संक्षिप्त इतिहास की जानकारी मिली है। इस जानकारी से पता लगता है कि ’हिन्दुस्तानी समाज’ का गठन जून 1957 में भारतीय विशेषज्ञों के रूस पहुँचने के कुछ ही महीनों बाद किया गया था। हाल ही में मधु जी के संस्मरणों की एक किताब प्रकाशित हुई थी -- ’यादों के चेहरे’। इस क़िताब में हिन्दुस्तानी समाज के गठन की दिलचस्प कहानी विस्तार से लिखी हुई है। मेरा मन है कि मदनलाल मधु की इस क़िताब का अनुवाद रूसी भाषा में भी उपलब्ध हो क्योंकि उसमें बहुत-सी ऐसी नई जानकारियाँ हैं, जो सभी के काम आ सकती हैं और जो रूसी भारतीय सम्बन्धों के अब तक के विकास पर और आगे होने वाले विकास की सम्भावनाओं पर भी काफ़ी प्रकाश डाल सकती हैं।

मैं यहाँ पर संक्षेप में कुछ ही तथ्यों को प्रस्तुत करना चाहता हूँ। मधु ने ’हिन्दुस्तानी समाज’ की स्थापना का जो समय बताया है, उससे कुछ ही पहले मुझे गिओर्गी निकीफ़ारफ़ ने फ़ोन किया और उनसे व भारतीय अनुवादकों से मिलने का प्रस्ताव रखा। मैं बड़ी ख़ुशी से सबसे मुलाक़ात करने को तैयार हो गया और वे सब सोवियत विज्ञान अकादमी में प्राच्य अध्ययन संस्थान में मुझसे मिलने के लिए पहुँचे। हमारे बीच एक लम्बी और सारगर्भित बातचीत हुई। मैं उन लोगों से बहुत प्रभावित हुआ। मैं समझ गया कि सभी विशेषज्ञ बेहद शिक्षित और विद्वान हैं। सबसे बड़ी बात तो यह थी कि वे सभी सोवियत भारतीय मैत्री और सांस्कृतिक सहयोग को मज़बूत बनाने के लिए अपना सारा दम-खम लगाकर इस काम में जुट जाना चाहते हैं। हमने मुख्य रूप से मास्को में ’हिन्दुस्तानी समाज’ की गतिविधियों पर चर्चा की। मुझे बताया गया कि रूस में भारत के तत्कालीन राजदूत के०पी०एस० मेनन ने भी ’हिन्दुस्तानी समाज’ के गठन का पूरा-पूरा समर्थन किया है। यही नहीं उन्होंने इन लोगों से ’हिन्दुस्तानी समाज’ की नियमावली और उसकी भावी गतिविधियों का कार्यक्रम भी माँगा है। अपनी तरफ़ से मैंने भारतीय विशेषज्ञों से यह वायदा किया कि ’सोवियत-भारतीय मैत्री समाज’ इस नए संगठन ’हिन्दुस्तानी समाज’ के साथ पूरा-पूरा सहयोग करेगा।

उसके बाद जून 1957 में मास्को में रहने वाले और काम करने वाले भारतीयों ने एक मीटिंग करके ’हिन्दुस्तानी समाज’ की नींव डाली। प्रसिद्ध भारतीय कवि रामकुमार वर्मा ’हिन्दुस्तानी समाज’ के पहले अध्यक्ष चुने गए थे। कुछ समय बाद जब वे वापिस भारत लौट गए तो मदनलाल मधु के गहरे मित्र और सहयोगी भीष्म साहनी ’हिन्दुस्तानी समाज’ के अध्यक्ष बन गए। फिर 1975 में मदनलाल मधु ने यह पद सम्भाल लिया और उसके बाद उन्होंने अगले 30 साल तक अध्यक्ष के रूप में ’हिन्दुस्तानी समाज’ का संचालन किया। यहाँ इस बात का उल्लेख किया जाना चाहिए कि मदनलाल मधु द्वारा स्थापित और लम्बे समय तक संचालित इस सामाजिक संगठन ने हमारे दो देशों के बीच पारस्परिक मैत्री को सुदृढ़ करने में भारी योग दिया है।

मुझे लगता है कि हिन्दुस्तानी समाज ’जन-कूटनीति’ का एक केन्द्र बन गया था, जिसे आज हम उस ’नर्म ताक़त’ की एक कड़ी कहकर पुकार सकते हैं, जो हमारे दो देशों की जनता के बीच विश्वस्त मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों के विकास में सक्रिय बनी रही। यहाँ यह बात भी उल्लेखनीय है कि ’हिन्दुस्तानी समाज’ की गतिविधियों को तूफ़ानी गति से विकसित हो रहे रूसी भारतीय सम्बन्धों के उस दौर में सोवियत संघ में काम करने वाले  के० पी० एस० मेनन, दुर्गाप्रसाद धर, नुरुल हसन, त्रिलोकी नाथ कौल, इन्द्र कुमार गुजराल और केवल सिंह जैसे भारतीय कूटनीतिज्ञों का सहयोग, समर्थन और मार्गदर्शन मिला। हिन्दुस्तानी समाज को भारत में काम करने वाले  ए०एन० बिनिदीक्तफ़, न०म० पिगोफ़ और यू०एम० वरन्त्सोफ़  जैसे रूसी कूटनीतिज्ञों के पाण्डित्य, अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्धों और कूटनीति के क्षेत्र में उनके गहरे ज्ञान, विद्वता और अनुभव  का भी फ़ायदा मिला। इनके साथ-साथ मैं यहाँ पर भिलाई इस्पात कारख़ाने के निर्माता निकलाय वसिल्येविच गील्दिन को भी ज़रूर याद करना चाहूँगा, जो मुझ से पहले सोवियत भारतीय मैत्री समाज के अध्यक्ष थे। मैं इन सभी लोगों से बहुत अच्छी तरह से परिचित रहा हूँ और इन सभी लोगों का बहुत आदर करता हूँ। मेरे मित्र मधु के भी इन लोगों के साथ सम्पर्क थे। इन लोगों के बारे में मधु हमेशा बड़े आदर से बात करते थे क्योंकि वे जानते थे कि इन्होंने सोवियत-भारतीय कूटनीति और रूसी भारतीय सम्बन्धों के विकास में अप्रतिम योग दिया है।

मधु विशेष रूप से अनेक वर्षों तक सोवियत संघ में भारत के राजदूत रहे के० पी० एस० मेनन का बड़ा ऊँचा मूल्यांकन और बड़ा सम्मान करते थे। मास्को से लौटने के बाद उन्हें भारतीय सोवियत सांस्कृतिक समाज का अध्यक्ष चुन लिया गया था। उनके सम्पर्क में उन दिनों जो भी व्यक्ति आया होफ़ा, वह लम्बे समय तक उस दौर को याद करेगा, जब वे भारतीय सोवियत सांस्कृतिक समाज के अध्यक्ष रहे। मुझे भी उनके साथ और उनकी पत्नी के साथ हुई मुलाक़ातें और बातें याद हैं। मैं उनसे न सिर्फ़ दिल्ली में हुई मीटिंगों के दौरान मिला करता था, बल्कि केरल में उनके घर भी गया था और भारत में दूसरी जगहों पर भी उनसे अक्सर भेंट-मुलाक़ातें होती रहती थीं। मुझे मालूम है कि वे मधु के प्रति कितनी आत्मीयता और पितृभाव जैसा रखते थे, बल्कि कहना चाहिए कि मधु की सक्रियता देखकर मुग्ध हो जाते थे।

रूसी भारतीय सहयोग के क्षेत्र में काम करने वाले दोनों सामाजिक संगठनों -- हिन्दुस्तानी समाज और सोवियत-भारतीय मैत्री समाज का उद्देश्य चूँकि एक ही था, इसलिए दोनों लम्बे समय तक आपस में फ्रलप्रद सहयोग करते रहे। सोवियत संघ की यात्रा करने वाले फ़ैज़ अहमद फ़ैज़, सुमित्रानन्दन पन्त, रामधारी सिंह दिनकर, हरिवंशराय बच्चन, यशपाल, कैफ़ी आज़मी, राजिन्दर सिंह बेदी, कमलेश्वर और शिवमंगल सिंह सुमन जैसे भारत में बेहद लोकप्रिय और प्रसिद्ध लेखकों के साथ  मदनलाल मधु के बेहद गहरे और निकट के सम्पर्क थे। मधु की पहल पर ही साहित्यिक समारोहों और फ़िल्म महोत्सवों में राजकपूर और नर्गिस जैसे प्रसिद्ध भारतीय फ़िल्म अभिनेता भाग लिया करते थे। रामेश्वरी नेहरु और स्वर्ण सिंह जैसे बड़े क़द वाले भारतीय राजनीतिक नेता भी अक्सर  हमारे दो संगठनों द्वारा आयोजित सांस्कृतिक कार्यक्रमों में हिस्सेदारी किया करते थे।

एक साहित्यिक आलोचक और साहित्यशास्त्री  के रूप में भी मदनलाल मधु ने रूस में महती भूमिका निभाई। उन्होंने रूस और भारत के दो महान् लेखकों गोर्की और प्रेमचन्द के साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन किया और  मास्को विश्चचिद्यालय में अपना यह शोध-प्रबन्ध प्रस्तुत करके पीएच०डी० की डिग्री पाई।  1983 में उनका यह शोध-प्रबन्ध ’गोर्की और प्रेमचन्द’ के नाम से रादुगा प्रकाशन से प्रकाशित हुआ।

भारत सम्बन्धी रूसी विशेषज्ञों के लिए वह हिन्दी-रूसी शब्दकोश भी बड़ा महत्त्व रखता है, जो उन्होंने 1998 में प्रकाशित कराया था। अनेक वर्षों तक उन्होंने मेरे एक सहपाठी इ०या० गोलुबेफ़ के साथ सहयोग करते हुए भारतीय पाठकों के लिए मास्को से प्रकाशित होने वाली पत्रिका ’सोवियत नारी’ का भी रूसी से हिन्दी में अनुवाद किया। अनुवाद का यह काम करते हुए उन्होंने भारतीय समाचार-पत्रों ’सण्डे मेल वीकली’, ’नवभारत टाइम्स’ और ’ट्रिब्यून’ के लिए लगातार लेख भी लिखे। यह कल्पना तक करना मुश्किल है कि यह सारा विशाल काम एक ही व्यक्ति कर सकता है।

मदनलाल मधु की अन्तिम प्रकाशित पुस्तक रूसी महाकवि अलेक्सान्दर पूश्किन की 200वीं जयन्ती के अवसर पर उनकी कविताओं का वह हिन्दी में अनूदित संग्रह है, जो 1999 में मास्को स्थित भारतीय सांस्कृतिक केन्द्र ने प्रकाशित किया था। यह संग्रह रूसी और हिन्दी भाषाओं में एक साथ प्रकाशित पूश्किन की कविताओं का एकमात्र संग्रह है। मुझे दुख है कि हमारी एक सँयुक्त योजना को पूरा करने से पहले ही मधु जी इस दुनिया से चले गए। वह योजना थी -- ’भारत में मायकोवस्की’ नामक पुस्तक के प्रकाशन की। अपने अन्तिम दिनों में मधु बस, इतना ही कर पाए कि उन्होंने दो खण्डों में अपने जीवन और गतिविधियों के बारे में ’यादों के चेहरे’ नाम से अपने संस्मरण प्रकाशित करवाए।

मास्को में रहते हुए उन्होंने जो सबसे महत्त्वपूर्ण काम किया, वो यह कि उन्होंने रूसी क्लासिक साहित्य और आधुनिक साहित्य तथा रूसी बाल साहित्य की सौ से ज़्यादा कृतियों का अनुवाद किया। इन कृतियों में अलेक्सान्दर पूश्किन, मिख़ायल लेरमन्तफ़, व्लदीमिर मायकोवस्की, करनेई चुकोवस्की, सेर्गेय मरशाक और अगिन बरतो की कविताएँ शामिल हैं। इसके अलावा उन्होंने लेव तलस्तोय के ’युद्ध और शान्ति’ तथा ’आन्ना करेनिना’ जैसे विशाल उपन्यासों का अनुवाद किया और फ़्योदर दस्तायेवस्की, निकलाय गोगल, इवान तुर्गेनफ़, मिख़ायल शोलाख़फ़, चिंगीज़ आयत्मातफ़ और रसूल गम्जातफ़ की रचनाओं व उपन्यासो व अलेक्सान्दर अस्त्रोवस्की, अन्तोन चेख़व व मक्सीम गोर्की के नाटकों का अनुवाद किया।

मैंने मधु से कई बार यह सवाल पूछा कि कैसे अकेले वे यह भारी मेहनत का काम कर लेते हैं, जिसमें सिर्फ़ पेशेवर कुशलता की ही ज़रूरत नहीं पड़ती, बल्कि तकनीकी सहयोग की भी भारी ज़रूरत होती है। मधु कहते थे -- अकेला कहाँ हूँ, तत्याना निकलायेव्ना भी तो हैं। निश्चय ही मास्को में इतने ज़्यादा वर्षों के भारी और फलप्रद काम के दौरान उनकी पत्नी ने न केवल उनकी ख़ुद की देखभाल और चिन्ता की बल्कि उनके अनुवाद और प्रकाशन के काम में भी उनकी लगातार मदद और सहायता की। हर साल ये दोनों कई-कई महीने के लिए भारत चले जाते थे। इस तरह मधु ने अपने सभी भारतीय मित्रों और साथियों से भी नियमित सम्बन्ध बनाकर रखे हुए थे।

जब आपका कोई सगा-सम्बन्धी काल-कवलित होता है तो यह आपके लिए भी एक बहुत भारी नुक़सान होता है। मैं तत्याना निकलायेव्ना के प्रति बेहद आदर और स्नेह का भाव रखता हूँ और उनके लिए शोक की इस घड़ी में उनके साथ अपनी हार्दिक संवेदनाएँ व्यक्त करता हूँ।

अपनी बहुवर्षीय फलप्रद साहित्यिक और सामाजिक गतिविधियों के लिए मधु को भारत के राष्ट्रपति ने ’पद्मश्री’ प्रदान कर सम्मानित किया था और रूस ने उन्हें रूसी भारतीय मानविकी सहयोग के क्षेत्र में सक्रियता दिखाने के लिए ’मैत्री पदक’ प्रदान किया, जो विदेशियों को रूस की तरफ़ से दिया जाने वाला सर्वोच्च राजकीय सम्मान है।
रूसी भारतीय सहयोग जिन दिनों अभूतपूर्व ऊँचाइयों पर था, उन्हीं दिनों भारत की बहुत-सी भाषाओं में अनूदित रूसी साहित्य की जो बाढ़ आई हुई थी, उसने हमारे दो देशों के बीच, हमारे दो देशों की जनता के बीच पारस्परिक मैत्री को बहुत ज़्यादा प्रगाढ़ किया। महान् रूसी लेखक लेव तलस्तोय के विचारों से सहमत होते हुए और उनका समर्थन करते हुए महात्मा गाँधी क्या सोच रहे थे? भारत की राजधानी दिल्ली के केन्द्र में आज भी लेव तलस्तोय की स्मृति में ’टालस्टाय मार्ग’ बना हुआ है। दिल्ली में ही साहित्य अकादमी के प्रांगण में रूसी महाकवि अलेक्सान्दर पूश्किन की प्रतिमा लगी हुई है, जिन्होंने रूस के प्राकृतिक सौन्दर्य और मानवीय प्रकृति की सुन्दरता के गीत गाए।

भारतीय लेखक प्रेमचन्द और रूसी लेखक मक्सीम गोर्की में वे क्या चीज़ें थीं, जो उन्हें एक-दूसरे से जोड़ती थीं? बहुत से रूसी और भारतीय आलोचकों और साहित्यकारों ने इस विषय पर विचार किया है, जिनमें मदनलाल मधु भी एक थे। भारत में रूसी कवि व्लदीमिर मायकोवस्की की इतनी ज़्यादा लोकप्रियता का कारण क्या है? रूसी लेखकों की रचनाओं में भारतीय पाठक इन सभी सवालों और दूसरे सवालों के उत्तर खोजते हैं।

बड़े खेद की बात है कि इन सवालों के उचित उत्तर अब मुश्किल से मिल पाते हैं क्योंकि भारतीय भाषाओं में रूसी साहित्य का अनुवाद करने वाले लोग बहुत कम रह गए हैं और कुछ भारतीय उत्साही लेखक ही आज भी इस काम को कर रहे हैं। हालाँकि उनके उत्साह और परिश्रम की प्रशंसा करनी चाहिए, लेकिन उनके द्वारा किया जा रहा यह काम उस दौर में मदनलाल मधु और उनके साथियों द्वारा किए गए काम के सामने कुछ भी नहीं है। तब भारतीय अनुवादकों ने जिन पुस्तकों के अनुवाद किए थे, उन्हें फिर से प्रकाशित क्यों नहीं किया जा सकता है? यह सवाल भी बार-बार उठाया जाता है। लेकिन तरह-तरह के बहानों और बाधाओं के कारण इस बात पर कभी अमल न हो सका। इस सवाल पर हमने मधु जी के साथ कई बार चर्चा की और विभिन्न स्तरों पर इस सिलसिले में पत्र-व्यवहार भी किया। लेकिन परिणाम वही ढाक के तीन पात रहा। कितना अच्छा होता यदि आज हमारा मास्को का ’ख़ुदोझिस्तविन्नया लितिरातूरा" (ललित साहित्य) प्रकाशनगृह यह काम अपने हाथ में ले लेता और ’मदनलाल मधु और उनके सहयोगियों की पुस्तकें’ शीर्षक से उनके द्वारा अनूदित पुस्तकों को प्रकाशित करता।

मदनलाल मधु के साथ मेरी अक्सर मुलाक़ातें होती थीं और उन मुलाक़ातों में हमने रूसी-भारतीय सम्बन्धों से जुड़ी लगभग सभी महत्त्वपूर्ण सवालों पर चर्चा की। उनमें से एक समस्या के बारे में यहा भी बताता हूँ। यह काफ़ी पुरानी बात है। मधु ने मुझे फ़ोन करके कहा कि आपसे तुरन्त मिलना चाहता हूँ। यह 1993 का साल था और जनवरी का महीना चल रहा था। मेरे पास सुरक्षित काग़ज़ों में समाचार-पत्र ’हिन्दू’  में प्रकाशित व्लदीमिर राद्युख़िन के लेख की वह कटिंग भी है, जिसका शीर्षक है ’रूसी संसद के सदस्य भारत के साथ निकट सम्पर्कों के पक्ष में। इस कटिंग पर  मधु के हाथ से वह तारीख़ लिखी हुई है, जिस तारीख़ को वह लेख प्रकाशित हुआ था। इस लेख में रूस के राष्ट्रपति बरीस येलत्सिन की भारत यात्रा की पूर्ववेला में रूस की संसद की कार्यवाही की संक्षिप्त रिपोर्ट दी गई है, जिसमें हमारे देश की विदेश नीति में रूसी-भारतीय सम्बन्धों की भूमिका और उनकी क्या जगह है, इस पर दो विभिन्न नज़रिए दिखाई दे रहे हैं। मुझे याद है कि तब मुझे अपने देश के उपविदेशमन्त्री गिओर्गी कुनाद्ज़े से, जो एशियाई देशों के साथ रूस के सम्बन्ध नामक विभाग देखा करते थे, बड़ी कठोर बातें कहनी पड़ी थीं। व्लदीमिर राद्युख़िन ने अपने लेख में लिखा है -- "भारत में प्रतिष्ठित अकादमीशियन येव्गेनी चेलिशेव ने खुले आम यह कहा है कि वे आज पैदा हो गई परिस्थिति से बेहद निराश हैं, जब मास्को की पश्चिम समर्थक नीतियों के कारण रूसी-भारतीय सम्बन्ध ख़राब होते जा रहे हैं। उन्होंने ज़ोर दिया है कि बरीस येल्तसिन की भारत-यात्रा दो देशों के बीच सम्बन्धों को पुराने स्तर पर पुनुरुज्जीवित करने में सहायक होनी चाहिए।" अब इतने साल बीतने के बाद मुझे यह बताते हुए ख़ुशी हो रही है कि तब मेरी बात सुनी गई थी और रूसी सांसदों ने रूस के राष्ट्रपति की भारत-यात्रा कि पूर्ववेला में रूस की सरकार के सामने अपने प्रस्ताव रखते हुए मेरी बात की ओर भी ध्यान दिया था। तब मधु जी के साथ हम लम्बे समय तक इस ज्वलन्त समस्या पर बात करते रहे थे कि हमें इस दिशा में बदलाव लाने के लिए और क्या-क्या क़दम उठाने चाहिए।

यह निष्ठुर समय हमारे प्रिय लोगों को हमेशा के लिए अपने साथ ले जाता है। मेरे प्रिय मित्र, सहयोगी, रूसी-भारतीय सम्बन्धों की बेहतरी के लिए अथक परिश्रम करने वाले साथी मधु भी यह दुनिया छोड़कर चले गए। इस अपूरणीय क्षति के बारे में गहरे दुख से सोचते हुए मुझे हमारी एक अन्तिम मुलाक़ात याद आ रही है। तब हम  देर तक इस विषय में बात करते रहे थे कि जीवन में मानव का ध्येय क्या होना चाहिए, उसका भाग्य कैसे बनता है, उसका दायित्त्व क्या होता है, इस ज़मीन पर मनुष्य जन्म ही क्यों लेता है? इस बारे में सबके अपने-अपने विचार हो सकते हैं। मुझे याद है कि तब मैंने मधु को प्रमुख रूसी दार्शनिक व्लदीमिर स्लाव्योफ़ की एक कविता सुनाई थी, जो उन्होंने 1898 में अपने गहरे मित्र कवि मायकोफ़ की मृत्यु पर लिखी थी। मुझे अच्छी तरह से याद है कि मधु तब वह कविता सुनकर कितने भाव-विह्वल हो उठे थे। कविता इस प्रकार है :

गुज़र रही हैं बूढ़ी छायाएँ धीरे-धीरे
खनकते कलशों में बन्द हो रही है आत्मा
बहुत लोग पहुँच गए हैं भजन के तीरे
श्रेष्ठी जनों का हो रहा है ख़ात्मा


ओ बूढ़ी छायाओं ! यह दुनिया तुम्हें सस्नेह
चमकते कलशों में विदा  दे रही है
भजन की मधुर ध्वनि सुनने के लिए
भविष्य को बुलाओ यह कह रही है
आज, जब मेरे दोस्त मदनलाल मधु इस दुनिया में नहीं रह गए हैं, मेरी नज़र में इस कविता की अन्तिम पंक्तियाँ बड़ी प्रतीकात्मक हैं क्योंकि उनके द्वारा किए गए शानदार अनुवाद और उनका साहित्यिक श्रम चमकते कलशों की तरह आज भी हमारे बीच सुरक्षित है और हमें बार-बार अपने जीए हुए जीवन और भविष्य के बारे में सोचने पर मज़बूर करता है। हमारा भविष्य ही अब हमारा वर्तमान बन गया है।
मूल रूसी से अनुवाद : अनिल जनविजय

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