मंगलवार, 29 सितंबर 2015


                   कवि मन्देलश्ताम का जीवन 

                              अनिल जनविजय का लेख




दोस्तो, आपने रूस के लेनिनग्राद यानी पितेरबुर्ग नगर की सफ़ेद रातों के बारे में अवश्य पढ़ा या सुना होगा। जिन्हें रूसी साहित्य से लगाव है, उन्होंने फ़्योदर दस्तायेवस्की की उपन्यासिका ’सफ़ेद रातें’ भी पढ़ी होगी। भारत में हम लोग इस बात पर केवल अचरज ही कर सकते हैं कि रूस के पितेरबुर्ग नगर में वर्ष भर में क़रीब एक माह का समय ऐसा होता है जब दिन कभी नहीं छिपता। सूरज कुछ समय के लिए डूबता ज़रूर है, लेकिन पूरी तरह से नहीं। दिन का इतना प्रकाश गगन में छाया रहता है कि आप आराम से खुले आकाश के नीचे कहीं भी बैठकर पुस्तक पढ़ सकते हैं। पितेरबुर्ग में ये रातें अद्‍भुत्त होती हैं। दुनिया भर से लोग इन ’सफ़ेद रातों’ को देखने के लिए जून माह में पितेरबुर्ग आते हैं। कवियों-लेखकों व कलावन्तों के लिए भी ये दिन रचनात्मक सक्रियता के, आन्तरिक उत्साह और ऊर्जा के, दुस्साहस के तथा जोश और जोख़िम उठाकर अपने सम्वेदी मन को पुख़्ता बनाने के दिन होते हैं।

1921 में वे सफ़ेद रातों के ही दिन थे, जब साहित्यकारों के बीच यह अफ़वाह फैल गई कि कवि ओसिप मन्देलश्ताम अचानक न जाने कहाँ ग़ायब हो गए। मन्देलश्ताम जैसा चपल, चुलबुला और मिलनसार व्यक्ति, जो दिन-भर यहाँ से वहाँ भाग-दौड़ करता रहता था और पूरे पितेरबुर्ग में लोग उसे ख़ूब अच्छी तरह जानते-पहचानते थे, एक शाम अचानक ही दिखना बन्द हो गया। उन दिनों मन्देलश्ताम अक्सर सुबह-सवेरे अपना चुरुट दाँतों में दबाए क़िताबों की किसी दुकान पर खड़े दिखाई दे जाते थे। तब वे अपने साथ खड़े लोगों पर अपने चुरुट की राख उड़ाते हुए हाल ही में प्रकाशित किसी नए कविता-संग्रह पर बहस कर रहे होते। इसके क़रीब डेढ़-दो घण्टे बाद वे किसी पत्रिका के सम्पादकीय कार्यालय में लेखकों के बीच बैठे अपना सिर ऊपर को उठाए अपनी कविताएँ सुनाते नज़र आते। दोपहर में वे सरकारी कैण्टीन में लेखकों के साथ बैठे वह दलिया खा रहे होते, जो 1917 की समाजवादी क्रान्ति के बाद के उन अकालग्रस्त वर्षों में नई मज़दूर सरकार द्वारा लेखकों को विशेष रूप से जारी कूपनों के बदले ही मिलता था। दोपहर के बाद मन्देलश्ताम कभी लाइब्रेरी में बैठे नज़र आते, कभी विश्वविद्यालय में कोई लैक्चर सुनते हुए तो कभी किसी साहित्यिक गोष्ठी में भाग लेते हुए। उनकी शामें अक्सर कॉफ़ी हाउस में बीता करतीं, जहाँ वे अपने हम-उम्र युवा लेखकों से घिरे साहित्य-सम्बन्धी नई से नई योजनाएँ बनाया करते।

और अचानक ही पूरे शहर में मन्देलश्ताम दिखाई देने बन्द हो गए। एक दिन गुज़र गया, फिर दूसरा दिन, फिर तीसरा...फिर एक हफ़्ता, दूसरा हफ़्ता...। और फिर लेखकों के बीच अचानक यह ख़बर फैली कि मन्देलश्ताम ने विवाह कर लिया है।

ओसिप मन्देलश्ताम ने विवाह कर लिया? यह एक ऐसी बेहूदी और बेतुकी ख़बर थी, जिस पर किसी को भी तुरन्त विश्वास नहीं हुआ। आन्ना अख़्मातवा अपने संस्मरणों में लिखती हैं -- ’उस समय कोई यह कल्पना तक नहीं कर सकता था कि मन्देलश्ताम जैसा आदमी शादी भी कर सकता है...’
कियेव की बीस वर्षीया चित्रकार नाद्‍या हाज़िना और कवि ओसिप मन्देलश्ताम की मुलाक़ात 1919 में यानी उनके विवाह से क़रीब डेढ़-पौने दो वर्ष पहले कियेव नगर की सबसे बड़ी सराय के तहख़ाने में बने उस रात्रि-क्लब में हुई थी, जहाँ तब कियेव के लेखक-कलाकार इकट्ठे हुआ करते थे। इस क्लब का नाम था — ’काठ-कबाड़’। बाहर से कियेव आने वाला हर लेखक-कलाकार ’काठ-कबाड़’ में ज़रूर आता था। कियेव की हर हस्ती से वहाँ मुलाक़ात हो जाती थी।
 
1919 की उन गर्मियों में एक दिन ओसिप मन्देलश्ताम ख़ारकफ़ से कियेव पहुँचे तो सराय के प्रबन्धक ने उनके लिए सराय का सबसे शानदार कमरा खुलवा दिया। मन्देलश्ताम ख़ुद दंग हो रहे थे कि उन्हें ठहरने के लिए इतना अच्छा कमरा दे दिया गया है। शायद सराय के मैनेजर ने उन्हें कोई और व्यक्ति समझ लिया था। ख़ैर...। शाम को ’काठ-कबाड़’ क्लब के हॉल में घुसते ही मन्देलश्ताम की नज़र सबसे पहले छोटे-छोटे बालों वाली, पतली-दुबली-सी एक बेहद शर्मीली लड़की पर पड़ी जो युवक-युवतियों के एक झुण्ड में चुपचाप बैठी हुई थी और बस कभी-कभी किसी बात पर मुस्कराने लगती थी। मन्देलश्ताम उस झुण्ड के पास पहुँचे ही थे कि वहाँ बैठे एक नवयुवक ने उन्हें पहचान लिया। अब उस मेज़ पर बैठे सभी लोग उनसे वहीं पर बैठ जाने और नई कविताएँ सुनाने का आग्रह करने लगे। जैसाकि बाद में मन्देलश्ताम ने नाद्‍या हाज़िना को बताया कि वे उनके साथ वहाँ नहीं बैठना चाहते थे, लेकिन नाद्‍या के आकर्षण के कारण वे उनके बीच बैठ गए और थोड़ी-सी ना-नुकर के बाद अपनी कविताएँ सुनाने लगे। उनके बारे में अपने संस्मरणों में कवि आन्ना अख़्मातवा लिखती हैं —

"मन्देलश्ताम लोगों को अपनी कविताएँ सुनाने के लिए हमेशा तैयार रहते थे। यहाँ तक कि कभी-कभी वे लोगों के अनुरोध पर सड़क पर खड़े-खड़े ही अपनी कविताओं का पाठ शुरू कर देते। कविता-पाठ करते हुए वे कविता में इतना डूब जाते कि अपने आसपास के वातावरण तक को भूल जाते और अधमुन्दी आँखों से स्वयं अपने कविता-पाठ का आनन्द उठाते हुए देर तक कविताएँ पढ़ते रहते।"
 
उस दिन उस मेज़ पर मन्देलश्ताम की कविताओं ने नाद्‍या हाज़िना को जैसा मोहित कर लिया था। वह उनसे इतना प्रभावित हुई कि मन्देलश्ताम के आग्रह पर वह उनके उस शानदार कमरे में भी चली गई जो उन्हें ग़लती से दे दिया गया था। मन्देलश्ताम ने जैसे अपनी कविताओं के वशीकरण से उसे बाँध लिया था। बाद में अपने संस्मरणों में नाद्‍या ने लिखा — "तब कौन सोच सकता था कि हम सारी ज़िन्दगी के लिए एक-दूसरे के हो जाएँगे?... हाँलाकि शायद ओसिप जानबूझकर मुझे उस झुण्ड से उठाकर अपने साथ ले गए थे क्योंकि वे किसी के भी साथ होने वाली पहली मुलाक़ात में ही यह अन्दाज़ लगा लेते थे कि इस व्यक्ति की उनके जीवन में आगे क्या भूमिका होने वाली है...।"

लेकिन नाद्‍या मन्देलश्ताम की तरह दूरदर्शी नहीं थी। तब वह नहीं जानती थी कि उसे आख़िरकार मन्देलश्ताम की पत्नी बनना है। अपने संस्मरणों में नाद्या ने लिखा है — "पहले दिन ही हम दोनों के बीच गहरी दोस्ती हो गई। लेकिन मुझे लग रहा था कि हमारी यह दोस्ती दो हफ़्ते से ज़्यादा चलने वाली नहीं। मैं बस इतना चाहती थी कि जब हम एक-दूसरे से अलग हों तो मैं बहुत अधिक भावुक न हो जाऊँ और अपने भावावेगों के कारण मुझे बेहद पीड़ा और कष्ट न उठाने पड़ें।"
 

परन्तु बाद में जो स्थिति बनी, वह नाद्या की इस इच्छा के एकदम विपरीत थी। नाद्या को मन्देलश्ताम के साथ सारा जीवन न केवल कष्ट झेलने पड़े, बल्कि भारी पीड़ा भी उठानी पड़ी। यह अलग बात है कि उन्हें यह कष्ट मन्देलश्ताम के साथ अपने प्रेम-सम्बन्ध और भावुकता के कारण नहीं, बल्कि जीवन की उन वास्तविक परिस्थितियों के कारण झेलने पड़े, जिनसे उस समय का सारा रूसी समाज और जनजीवन ही भयानक रूप से प्रभावित रहा। लेकिन यह सब बाद की बात है। उस समय तो नाद्या को सब कुछ बेहद रोमाण्टिक और आकर्षक लग रहा था। नाद्या के लिए वे दिन सुखद प्रेम के दिन थे और वह उस सुख में पूरी तरह से डूबी हुई थी। उन दिनों की अपनी मनःस्थिति का ज़िक्र करते हुए बाद में नाद्या हाज़िना ने लिखा — "मैं तब तक इतनी उजड्ड थी कि मैं यह समझती ही नहीं थी कि पति और प्रेमी में क्या फ़र्क होता है। हम लोगों ने एक-दूसरे से वफ़ादारी बरतने का भी कोई वायदा नहीं किया। हम किसी भी क्षण अपना यह सम्बन्ध तोड़ने के लिए तैयार थे क्योंकि हमारे लिए हमारा यह संयोग महज एक इत्तफ़ाक के अलावा और कुछ नहीं था।"
 

लेकिन फिर भी उन दोनों ने खेल-खेल में विवाहनुमा एक रस्म तो की ही थी। मिख़ाइलफ़ मठ के बाहर बने बाज़ार से उन्होंने एक-एक पैसे वाली दो नीली अँगूठियाँ ख़रीद लीं, पर वे अँगूठियाँ उन्होंने एक-दूसरे को पहनाई नहीं। मन्देलश्ताम ने वह अँगूठी अपनी जेब में ठूँस ली और नाद्या हाज़िना ने उसे अपने गले में पहनी ज़ंजीर में पिरो लिया। मन्देलश्ताम ने इस अनोखी शादी के मौक़े पर शरबती आँखों वाली अपनी अति सुन्दर व आकर्षक प्रेमिका को उसी बाज़ार से एक उपहार भी ख़रीदकर भेंट किया। यह उपहार था — लकड़ी की एक हस्तनिर्मित ख़ूबसूरत कंघी, जिस पर लिखा हुआ था — ईश्वर तुम्हारी रक्षा करे। हनीमून की जगह मन्देलश्ताम नाद्या को द्‍नेपर नदी में नौका-विहार के लिए ले गए और उसके बाद नदी किनारे बने कुपेचिस्की बाग़ में अलाव जलाकर उसमें आलू भून-भून कर खाते हुए दोनों ने अपने इस तथाकथित विवाह की सुहागरात मनाई।

उजड्ड नाद्या को यह सब एक खेल ही लग रहा था और वह बड़े मज़े के साथ सहज ही इस खेल में हिस्सा ले रही थी। वे किसी धार्मिक त्यौहार के दिन थे। कुपेचिस्की बाग़ में मेला लगा हुआ था जो दिन-रात जारी रहता था। सब त्यौहार की मस्ती में डूबे हुए थे और इस तरह के खेलों को कोई भी उन दिनों गम्भीरता से नहीं लेता था। घूमते-घुमाते मन्देलश्ताम नाद्या को कुपेचिस्की बग़ीचे से उस प्रसिद्ध व्लदीमिर पहाड़ी पर ले गए, जिसके लिए जनता के बीच आज भी यह मान्यता बनी हुई है कि यदि स्त्री-पुरुष का जोड़ा यहाँ आता है, तो वे सदा के लिए एक-दूसरे के हो जाते हैं। पहाड़ी पर पहुँचकर मन्देलश्ताम ने नाद्या को बताया कि उनका यह सम्बन्ध कोई आकस्मिक संयोग नहीं है बल्कि उन्हें नाद्या से बहुत गहरा प्रेम हो गया है और वे उसे स्थाई रूप देने का निर्णय ले चुके हैं।

इसके उत्तर में नाद्या खिलखिलाने लगी। वह मन्देलश्ताम के साथ अपने इस प्रेम-सम्बन्ध को अस्थाई माने हुए थी। तब भी, जब मन्देलश्ताम को कुछ ही दिनों में स्थिति स्पष्ट हो जाने के बाद सराय के उस शानदार कमरे से निकाल दिया गया और वे अपना सामान उठाकर उसके घर पर रहने के लिए पहुँच गए। तब भी, जब दोनों एक साथ मास्को की यात्रा पर रवाना हुए और फिर वहाँ से जार्जिया पहुँच गए। इस बीच जब कभी कोई किसी को नाद्या का परिचय ’मन्देलश्ताम की पत्नी’ के रूप में देता तो वह बुरी तरह से नाराज़ हो जाती — "तुम्हें इससे क्या लेना-देना है कि मैं किसके साथ रहती-सोती हूँ, यह मेरा अपना निजी मामला है... तुम मुझे उसकी पत्नी क्यों कहते हो?" नाद्या को तब भी यह लगता था कि उनका यह सम्बन्ध अस्थाई है।

1919 के अन्त में दोनों अलग हो गए। वे क्रान्ति के तुरन्त बाद रूस में शुरू हुए गृह-युद्ध के दिन थे। लोगों के पास न कोई काम-धन्धा था, न नौकरी। जीवन रोज़ नए रंग दिखाता था और लोगों को एक जगह से दूसरी जगह खदेड़ देता था। क्रान्ति-समर्थक लाल सेना और क्रान्ति-विरोधी श्वेत सेना के बीच भारी लड़ाई जारी थी। शहरों, गाँवों, बस्तियों पर कभी क्रान्ति-समर्थकों का अधिकार हो जाता तो कभी क्रान्ति-विरोधियों का। लोग मिलते थे, लोग बिछुड़ जाते थे। उन्हें आदत पड़ गई थी कि अन्ततः अलग होना ही है। नाद्या ने भी यह सोच लिया था कि अब ओसिप मन्देलश्ताम से उसकी मुलाक़ात शायद ही होगी।

लेकिन क़रीब डेढ़ वर्ष के बाद मन्देलश्ताम फिर से कियेव में दिखाई दिए। यही वह समय था जब पितेरबुर्ग में लोगों के बीच मन्देलश्ताम के अचानक रहस्यात्मक रूप से ग़ायब होने की चर्चा शुरू हो गई थी। तब तक नाद्या का परिवार अपने पुराने घर को छोड़कर नए घर में शिफ़्ट हो चुका था। तब नई क्रान्तिकारी मज़दूर सरकार किसी से कभी भी उसका घर ख़ाली करा लेती थी और उसे उससे बड़े या छोटे घर में शिफ़्ट कर देती थी। अमीरों से उनके घर छीनकर ग़रीबों और बेघरबार लोगों के बीच बाँटे जा रहे थे। डेढ़ वर्ष के इस छोटे से काल में दो बार ऐसा हुआ कि हाज़िन परिवार से उनका फ़्लैट लेकर उन्हें पहले से छोटा फ़्लैट दिया गया। तीसरे नए फ़्लैट में हाज़िन परिवार अभी पहुँचा ही था, अभी उन्होंने अपना सामान खोला भी नहीं था कि उनका फ़्लैट देखने के लिए फिर से नई सरकार का कोई अफ़सर वहाँ पहुँच गया और उसने उन्हें बताया कि उन्हें यह फ़्लैट भी ख़ाली करना पड़ेगा। वह अफ़सर अपने साथ फ़्लैट की सफ़ाई करवाने के लिए मज़दूरों को भी लाया था। हाज़िन परिवार बड़े ऊहापोह की स्थिति में था। क्या करें और क्या नहीं। उसी समय मन्देलश्ताम उनके इस नए फ़्लैट में नमूदार हुए।

नाद्या उन्हें वहाँ देखकर दंग रह गई। लेकिन मन्देलश्ताम वहाँ उपस्थित मज़दूरों, वहाँ फैले सामान और परिवार के बीच अफ़रा-तफ़री की हालत देखकर भी वैसे ही सहज बने रहे। और थोड़ी ही देर बाद मन्देलश्ताम वहाँ सबको अपनी कविताएँ सुना रहे थे। अचानक उन्होंने कविता पढ़ना बन्द कर दिया और अपने सुनहरी दाँत चमकाते हुए ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगे और फिर नाद्या से बोले — "अबकी बार मैं तुझे छोड़कर कहीं नहीं जाऊँगा।" इसके तीन सप्ताह बाद ही वे दोनों मास्को के लिए रवाना हो गए। फ़रवरी 1922 में उन दोनों ने पितेरबुर्ग में अधिकृत रूप से विवाह कर लिया। और फिर एक-दूसरे से वे कभी नहीं बिछुड़े। ’फिर कभी नहीं बिछुड़े’ से हमारा तात्पर्य है कि वे फिर हमेशा के लिए एक-दूसरे के हो गए। बिछुड़ना तो उन्हें कई बार पड़ा। 

पहली बार तब जब नाद्या को अस्थमा हो गया। मन्देलश्ताम ने ज़बरदस्ती नाद्या को कुछ महीनों के इलाज के लिए याल्ता सेनेटोरियम में भेज दिया। लेकिन वह उन दोनों का शारीरिक बिछोह था। मन से, आत्मा से दोनों एक-दूसरे से गहरे जुड़े हुए थे। मन्देलश्ताम हर रोज़ नाद्या को एक पत्र लिखते। नाद्या भी उनके हर ख़त का जवाब ज़रूर देती। अब वे सभी पत्र प्रकाशित हो चुके है। उन्हें पढ़कर पता लगता है कि उनके बीच कितना गहरा लगाव और आत्मीयता थी, उनका पारिवारिक जीवन कितना सफल था। लेकिन फिर भी नाद्या ने अपने संस्मरणों में लिखा है — "पत्नी की भूमिका मेरे लिए कोई विशेष महत्त्व नहीं रखती थी। समय भी ऐसा नहीं था कि मैं सही अर्थों में उनकी पत्नी बन पाती। पत्नी तब होती है, जब घर हो, घरबार हो, बच्चे हों, आय का कोई स्थाई साधन हो... और हमारे जीवन में यह सब कुछ कभी नहीं रहा... अपना घर तो हमें कभी मिला ही नहीं रहने के लिए। हमारे क़दमों के नीचे धरती हमेशा डोलती रहती थी।"

और इसका कारण उन पर लगातार गिरने वाली राजनीतिक विपत्तियों की गाज़ ही नहीं थी बल्कि पारस्परिक दाम्पत्य-सम्बन्धों में लगातार बना रहने वाला उलझाव भी था। नाद्या के लिए ’विवाह’ एक ऐसा बेकार शब्द था, जिसका वह जीवन में कोई महत्त्व नहीं समझती थी, लेकिन मन्देलश्ताम के लिए नाद्या के साथ यह सम्बन्ध जैसे उनके जीवन का मुख्य-आधार था। नाद्या हाज़िना ने अपने संस्मरणों में लिखा है — "सच-सच कहूँ तो वे जैसे मुझे अपनी काँटेदार हथेलियों के बीच बन्द करके रखते थे। मैं मन ही मन उनसे बेहद डरती थी, लेकिन ऊपर से सहज दिखाई देती थी और बराबर इस कोशिश में लगी रहती थी कि किसी तरह इन भयानक हथेलियों के बीच से फिसल कर बाहर निकल सकूँ, हमेशा के लिए नहीं तो कम से कम कुछ देर के लिए ही सही।"
 
और कभी-कभी नाद्या अपने इस उद्देश्य की पूर्त्ति में सफल हो भी जाती थी। एक बार वह मन्देलश्ताम के पिंजरे से ऐसे उड़ी कि ख़ुद मन्देलश्ताम भी दंग हो गए। दो सीटों वाले हवाई जहाज़ के एक पायलट ने नाद्या को आकाश में उड़ने का निमन्त्रण दिया। उन दिनों हवाई जहाज़ों की उड़ान ऐसी आम नहीं थी, जैसी कि आज है। वायुयान का आविष्कार हुए कुछ ही वर्ष हुए थे। नाद्या ने पायलट का निमन्त्रण स्वीकार कर लिया और उसके साथ उसके हवाई जहाज़ में उड़ चली। लेकिन पायलट ने कुछ देर की उड़ान के बाद, आकाश में अपनी उड़ान के कुछ साहसी करतब उसे दिखाने के बाद अपने यान को वापिस नीचे उतार लिया और बड़ी शिष्टता से नाद्या के लिए यान से बाहर निकलने का दरवाज़ा खोल दिया।

निश्चय ही नाद्या की इस बहादुरी के लिए मन्देलश्ताम ने उसे मालाओं से नहीं लाद दिया। मदेलश्ताम से उसे भयानक डाँट-फटकार सुननी पड़ी। क्यों गई थी वहाँ? क्या ज़रूरत थी ख़तरा उठाने की? कोई दुर्घटना हो जाती तो? मदेलश्ताम किसी भी तरह यह नहीं समझ पा रहे थे कि उनकी पत्नी, जो उनके अपने ’स्व’ का ही एक हिस्सा है, के जीवन-मूल्य उनके अपने जीवन-मूल्यों से अलग कैसे हो सकते हैं। ऐसा कैसे हो सकता है कि नाद्या कोई भी बात मन्देलश्ताम से अलग सोचे? ऐसा कैसे हो सकता है कि जब वे उसे अभी-अभी लिखी गई या सिर्फ़ सोची गई कोई कविता पढ़कर सुनाएँ तो वह उसे याद न रह जाए? उनका ख़याल था कि उनके मन की बात उसके दिमाग़ में भी ज्यों की त्यों उतर जानी चाहिए। नाद्या लिखती है — "मन्देलश्ताम हमेशा इस बात को लेकर दुखी रहते कि मुझे उनकी कविताएँ याद क्यों नहीं रह जातीं। कभी वे अपनी कोई कविता सुनाते, मैं उसे ज्यों का त्यों लिख लेती। और जब बाद में उन्हें उनकी वे कविता-पँक्तियाँ पढ़कर सुनाती तो उन्हें वे पसन्द नहीं आतीं तो वे यह नहीं समझ पाते थे कि मैंने क्यों यह सब बकवास लिख डाली है। पर जब कभी-कभी मैं उनकी मिज़ाजपुर्सी करते-करते बेहद तंग आ जाती और उनकी कही हुई बातें लिखना नहीं चाहती तो वे बड़े अधिकार से मुझसे कहते — ’अरे, तुम यह क्या कर रही हो। यहाँ आओ, मेरे पास बैठो। और जो कुछ भी मैं बोल रहा हूँ, चुपचाप लिखती जाओ।’ "
 
लेकिन मन्देलश्ताम का एक दूसरा रूप भी था। एक बार गर्मियों के दिनों में जब मन्देलश्ताम नाद्या के साथ जार्जिया के बातूमी नगर में किसी के यहाँ रुके हुए थे तो भयानक गर्मी की वजह से उन दोनों को रात में खुली छत पर सोना पड़ गया। छत पर मच्छर बहुत थे। रात को अचानक नाद्या की आँख खुली तो उसने देखा की मन्देलश्ताम — "वहाँ पलंग के पास ही कुर्सी पर बैठे हुए थे और उनके हाथ में एक अख़बार था" जिससे वे पंखा-सा बनाकर नाद्या के ऊपर हवा कर रहे थे और मच्छरों को उड़ा रहे थे। नाद्या लिखती है — "एक-दूसरे के साथ हम दोनों का जीवन कितना सुखद था। पता नहीं क्यों, दुनिया वालों ने हमें एक साथ वह जीवन जीने नहीं दिया?"

नाद्या ने मन्देलश्ताम के साथ अपने जीवन के संस्मरणों की मोटी-मोटी तीन किताबें लिखी हैं, जिनमें उसने विस्तार से तत्कालीन सोवियत समाज का चित्रण किया है कि कौन लोग उन दिनों सुखपूर्वक सहज जीवन बिता रहे थे, कौन लोग किसी तरह जीवन जीने की कोशिश कर रहे थे और वे कौन लोग थे जो लोगों का जीवन जीना दूभर बना रहे थे।

किसी भी अन्य सच्चे कवि की तरह मन्देलश्ताम कभी घुन्ने नहीं हो सकते थे। स्तालिन-विरोधी जो कविताएँ उन्होंने लिख ली थीं, अगर वे उन्हें छिपाए रहते या अपना नाम गुप्त रखकर जनता के बीच फैला देते तो उन्हें वे कष्ट नहीं झेलने पड़ते जो सत्ता ने उन्हें दिए। लेकिन मन्देलश्ताम तो उन दिनों सबको अपनी वे स्तालिन-विरोधी कविताएँ ही सुनाते नज़र आते। जब मई 1934 में उन्हें पहली बार गिरफ़्तार किया गया तब भी उन्होंने अपनी कविताओं से किनारा नहीं किया और एकदम यह बात मान ली कि वे कविताएँ उन्हीं की लिखी हुई हैं। 

बाद में पुलिस-हिरासत में ही उन्होंने अपनी कलाई की नस काट कर आत्महत्या करने की कोशिश की। पर मन्देलश्ताम को बचा लिया गया और तीन वर्ष के लिए मास्को से साइबेरियाई नगर चेरदिन के लिए निर्वासित कर दिया गया। लेकिन आन्ना अख़्मातवा और पस्तेरनाक जैसे कवियों तथा बुख़ारिन जैसे राजनेता ने जब मन्देलश्ताम की पैरवी की और गारण्टी दी तो उनकी सज़ा कम करके उनका निर्वासन वरोनिझ नगर के लिए कर दिया गया जो चेरदिन के मुक़ाबले कहीं बेहतर शहर माना जाता था। नाद्या को निर्वासन की सज़ा नहीं दी गई थी। नाद्या चाहती तो मास्को में ही रह सकती थी। लेकिन नाद्या ने भी अपने पति ओसिप मन्देलश्ताम के साथ स्वैच्छिक-निर्वासन की राह चुनी। शायद नाद्या द्वारा की गई सेवा-सुश्रुषा के कारण ही उस वर्ष मन्देलश्ताम की जान बच गई और उनका जीवन कुछ और लम्बा हो गया। 

स्तालिन की सरकार द्वारा बुरी तरह से तिरस्कृत और प्रताड़ित किए जा रहे महाकवि मन्देलश्ताम ने अप्रैल 1936 में वरोनिझ से महाकवि पस्तेरनाक को लिखे एक पत्र में सूचित किया — "मैं वास्तव में बहुत बीमार चल रहा हूँ। मेरे बचने की आशा कम ही है। अब शायद ही कोई ताक़त मुझे बचा पाए। पिछले दिसम्बर से ही मेरी हालत लगातार ख़राब होती जा रही है। अब तो कमरे से बाहर निकलना भी मुश्किल हो गया है। मैं यह जो अपना नया जीवन आज थोड़ा-बहुत जी पा रहा हूँ, इसका सारा श्रेय मेरी जीवन-संगिनी को जाता है। वह नहीं होती तो मैं न जाने कब का ख़ुदा को प्यारा हो चुका होता।"
 

1937 में सज़ा पूरी होने के बाद मन्देलश्ताम दम्पत्ति मास्को वापिस लौट आए। लेकिन कुछ समय बाद ही 2 मई 1938 को मन्देलश्ताम को फिर से गिरफ़्तार कर लिया गया। मन्देलश्ताम दम्पत्ति इस दिन हमेशा अपने विवाह की वर्षगाँठ मनाते थे। लेकिन तब मन्देलश्ताम की हालत बहुत ख़राब थी और वे मास्को के निकट स्थित समातीख़ा सेनेटोरियम में इलाज के लिए भरती हुए थे। सेनेटोरियम में उस दिन सवेरे उन्हें लाइब्रेरी के निकट वाले कमरे में शिफ़्ट कर दिया गया। थोड़ी देर बाद दो फ़ौजी अधिकारी उस कमरे में आए। उन्होंने मन्देलश्ताम को उनकी गिरफ़्तारी का वारण्ट दिखाया और अपने साथ चलने के लिए कहा। मन्देलश्ताम के पास एक छोटी-सी अटैची थी, जिसमें उनकी कुछ पुस्तकें, डायरियाँ और कुछ अन्य छोटा-मोटा निजी सामान था। यह सारा सामान फ़ौजी अफ़सरों ने अटैची से निकालकर एक काले से थैले में डाल दिया। नाद्या भी उनके साथ जाना चाहती थी। परन्तु फ़ौजियों ने उन्हें इसकी इजाज़त नहीं दी। दो अगस्त को उन्हें फिर से क्रान्ति-विरोधी गतिविधियों में सक्रिय रूप से भाग लेने के लिए पाँच वर्ष की सज़ा सुना दी गई और साइबेरिया के यातना-शिविर में भेज दिया गया।

मन्देलश्ताम के जीवन के अन्तिम दिनों के बारे में प्रत्यक्षदर्शियों के बहुत से संस्मरण और कथाएँ सुनने में आती हैं। इन संस्मरणों के अनुसार मन्देलश्ताम अपने अन्तिम दिनों में अर्ध-विक्षिप्त से हो गए थे — "फटे हुए कपड़े पहने छोटे क़द का वह पाग़ल अपने कोटे की तम्बाकू के बदले यातना-शिविर के अन्य क़ैदियों से चीनी लेने की कोशिश करता था और जब उसके पास देने के लिए कुछ भी नहीं होता था तो वह उन्हें चीनी के बदले अपनी कविताएँ सुनाने लगता था। कभी-कभी वह किसी क़ैदी की रोटी चुराकर खा लेता, जिस पर उसकी बुरी तरह से पिटाई होती। लेकिन वह पाग़ल अपने कोटे की रोटी कभी नहीं खाता था क्योंकि वह डरता था कि उसमें ज़हर मिला हुआ है।"
 
यातना-शिविर में हुई उनकी मृत्यु के बारे में भी बहुत-से क़िस्से सुनने में आते हैं। लेकिन लेखक वरलाम शलामफ़ ने, जो मन्देलश्ताम के साथ ही उस यातना-शिविर में बन्द थे, मन्देलश्ताम के देहान्त की कथा अपनी कहानी ’चेरी की ब्राण्डी’ (मन्देलश्ताम की एक कविता का शीर्षक है यह) में लिखी है। ’कवि मर रहा था’ — इन शब्दों से यह कहानी शुरू होती है —

"कवि मर रहा था। भूख और ठण्ड के कारण उसकी हथेलियाँ और कलाइयाँ सूज कर ख़ूब मोटी हो गई थीं। रक्तविहीन सफ़ेद उँगलियों और गन्दगी के कारण काले पड़ चुके लम्बे-लम्बे नाख़ूनों वाले उसके हाथ उसकी छाती पर पड़े हुए थे। वह उन्हें ठण्ड से बचाने की कोई कोशिश नहीं कर रहा था। जबकि पहले वह उन्हें अपनी दोनों बगलों में दबा लेता था। लेकिन अब उसके नंगे शरीर में इतनी गरमी ही बाक़ी नहीं रह गई थी कि वह उसके हाथों को गरमा सके।"

नाद्या भी बिना यह जाने ही कि किस दिन उसके पति ने आँखें मूँदीं, दूसरी दुनिया में चली गई। उनकी मृत्यु के बहुत दिनों बाद सोवियत सरकार ने वे गुप्त दस्तावेज़ आम जानकारी के लिए खोले, जिनसे यह पता लगता था कि मन्देलश्ताम की मृत्यु 27 दिसम्बर 1938 को हुई। मन्देलश्ताम की मृत्यु से क़रीब दो माह पहले ही यह सोचकर कि शायद वह मन्देलश्ताम से पहले ही मर जाएगी, नाद्या ने मन्देलश्ताम के नाम अपना अन्तिम पत्र लिखा था —

"ओस्या, मेरे प्रियतम, मेरे दोस्त, मेरे जीवन, इस पत्र में तुमसे कुछ कहने के लिए मेरे पास अब शब्द ही नहीं बचे हैं। हो सकता है कि तुम यह पत्र कभी नहीं पढ़ पाओ। मैं यह पत्र जैसे अन्तरिक्ष में लिख रही हूँ। हो सकता है, तुम लौट आओ, लेकिन मैं तब तक शेष नहीं रहूँगी। तब यह तुम्हारे लिए मेरा अन्तिम स्मृति-चिह्न होगा।"
अन्तरिक्ष में भेजे जाने के लिए लिखा गया यह पत्र विश्व पत्र-साहित्य सम्पदा का एक सबसे मर्मभेदी पत्र है — "मेरा हर विचार तुम्हारे बारे में है। मेरा हर आँसू, मेरी हर मुस्कान तुम्हें ही समर्पित। मेरे दोस्त, मेरे हमदम, मेरे रहबर, मैं अपने कड़वे जीवन के हर दिन, उसके हर घण्टे को असीस देती हूँ..." इसके बाद अपने पत्र में नाद्या ने अपने एक सपने का ज़िक्र किया है कि कैसे वह किसी छोटे से शहर के होटल की कैण्टीन में खड़ी है। उसने मन्देलश्ताम के लिए खाने-पीने का सामान ख़रीदा है। लेकिन यह सामान लेकर उसे कहाँ जाना है, वह यह नहीं समझ पा रही है। जब अचानक उसकी आँख खुलती है तो वह पाती है कि उसका सारा माथा ठण्डे पसीने से तर है। नाद्या ने अपने पत्र में आगे लिखा है — " ...मैं यह नहीं जानती कि तुम जीवित भी हो या नहीं। तुम्हारा अता-पता मैं खो चुकी हूँ। तुम्हारे साथ मेरा कोई सम्पर्क ही नहीं है। मुझे तो यह भी नहीं मालूम कि तुम कहाँ हो। तुम मेरी बात सुनोगे भी या नहीं। तुम यह कभी जान भी पाओगे या नहीं कि मैं तुम्हें अपने जीवन के अन्तिम क्षण तक बेहद-बेहद प्यार करती रही हूँ। मैं उस दिन तुम्हें विदा करते हुए यह बात न कह पाई।
आज भी किसी और व्यक्ति के सामने मैं यह बात नहीं कह रही, सिर्फ़ तुम्हें बता रही हूँ कि मैं तुम्हें, केवल तुम्हें बहुत-बहुत प्रेम करती हूँ... तुम हमेशा मेरे साथ रहे, मेरे मन में, मेरे हृदय की गहराइयों में और मैं जंगली व उजड्ड तुम्हारे सामने कभी रो तक न पाई... आज रो रही हूँ, सिर्फ़ रो ही रही हूँ, और तुम्हें याद कर रही हूँ.." और पत्र के अन्त में नाद्या ने लिखा था — "यह मैं हूँ — तुम्हारी नाद्या। तुम कहाँ हो?"

इस सवाल का उत्तर आज भी हमारे पास नहीं है। व्लदीवस्तोक के उस यातना-शिविर में उन वर्षों में मारे गए बन्दियों की तीन विशाल सामूहिक-क़ब्रें पाई गई हैं, लेकिन उन तीनों में से किस सामूहिक-क़ब्र में मन्देलश्ताम को दफ़्न किया गया था, यह पूरी तरह से अज्ञात है। उन दिनों क़ैदियों को सामूहिक-क़ब्र में फेंकते हुए उनके पैर में एक टैग बाँध दिया जाता था, जिस पर हर क़ैदी का नाम लिखा होता था। वे टैग कब के गलकर मिट्टी में मिल चुके हैं।

लेकिन ऐसा नहीं है कि उनकी आत्मा अभी भी इस धरती पर भटक रही है। रूसी आर्थोडॉक्स ईसाई धर्म के अनुयायी यह मानते हैं कि जब तक मृतक की आत्मा की शान्ति के लिए प्रार्थना करके मृतक व्यक्ति के शरीर को उसके प्रिय व्यक्ति के निकट नहीं दफ़नाया जाता, तब तक उसकी आत्मा हमारी इस दुनिया में भटकती रहती है। और मन्देलश्ताम की आत्मा को 1980 में उनकी प्रिया नाद्या ने शरण दी और अब वे दोनों बलूत की लकड़ी के एक साधारण से सलीब के नीचे मास्को के स्तारो-कून्त्सेव्स्की क़ब्रिस्तान में चैन की नींद सो रहे हैं। उनकी उस क़ब्र पर एक छोटा-सा पत्थर रखा हुआ है, जिस पर लिखा है — ’कवि ओसिप ऐमिल्येविच मन्देलश्ताम की पावन स्मृति को समर्पित’।

अनिल जनविजय

अन्तोन चेख़फ़ की कहानी--

                  एक छोटा-सा मज़ाक

अन्तोन चेख़व की कहानी - एक छोटा-सा मज़ाक 
 
सरदियों की ख़ूबसूरत दोपहर... सरदी बहुत तेज़ है। नाद्या ने मेरी बाँह पकड़ रखी है। उसके घुँघराले बालों में बर्फ़ इस तरह जम गई है कि वे चाँदनी की तरह झलकने लगे हैं। होंठों के ऊपर भी बर्फ़ की एक लकीर-सी
दिखाई देने लगी है। हम एक पहाड़ी पर खड़े हुए हैं। हमारे पैरों के नीचे मैदान पर एक ढलान पसरी हुई है जिसमें सूरज की रोशनी ऐसे चमक रही है जैसे उसकी परछाई शीशे में पड़ रही हो। हमारे पैरों के पास ही एक स्लेज पड़ी
हुई है जिसकी गद्दी पर लाल कपड़ा लगा हुआ है ।

—चलो नाद्या, एक बार फिसलें ! — मैंने नाद्या से कहा— सिर्फ़ एक बार ! घबराओ नहीं, हमें कुछ नहीं होगा, हम ठीक-ठाक नीचे पहुँच जाएँगे ।

लेकिन नाद्या डर रही है। यहाँ से, पहाड़ी के कगार से, नीचे मैदान तक का रास्ता उसे बेहद लम्बा लग रहा है। वह भय से पीली पड़ गई है। जब वह ऊपर से नीचे की ओर झाँकती है और जब मैं उससे स्लेज पर बैठने को कहता हूँ तो जैसे उसका दम निकल जाता है। मैं सोचता हूँ— लेकिन तब क्या होगा, जब वह नीचे फिसलने का ख़तरा उठा लेगी! वह तो भय से मर ही जाएगी या पागल ही हो जाएगी ।

—मेरी बात मान लो ! — मैंने उससे कहा — नहीं-नहीं, डरो नहीं,  तुममें हिम्मत की कमी है क्या ?

आख़िरकार वह मान जाती है। और मैं उसके चेहरे के भावों को पढ़ता हूँ। ऐसा लगता है जैसे मौत का ख़तरा मोल लेकर ही उसने मेरी यह बात मानी है। वह भय से सफ़ेद पड़ चुकी है और काँप रही है। मैं उसे स्लेज पर बैठाकर, उसके कन्धों पर अपना हाथ रखकर उसके पीछे बैठ जाता हूँ। हम उस अथाह गहराई की ओर फिसलने लगते हैं। स्लेज गोली की तरह बड़ी तेज़ी से नीचे जा रही है। बेहद ठंडी हवा हमारे चेहरों पर चोट कर रही है। हवा ऎसे चिंघाड़ रही है कि लगता है, मानों कोई तेज़ सीटी बजा रहा हो। हवा जैसे गुस्से से हमारे बदन को चीर रही है, वह हमारे सिर उतार लेना चाहती है। हवा इतनी तेज़ है कि साँस लेना भी मुश्किल है। लगता है, मानों शैतान हमें अपने पंजों में जकड़कर गरजते हुए नरक की ओर खींच रहा है। आसपास की सारी चीज़ें जैसे एक तेज़ी से भागती हुई लकीर में बदल गई हैं। ऐसा महसूस होता है कि आनेवाले पल में ही हम मर जाएँगे ।

मैं तुम से प्यार करता हूँ, नाद्या ! — मैं धीमे से कहता हूँ ।

स्लेज की गति धीरे-धीरे कम हो जाती है। हवा का गरजना और स्लेज का गूँजना अब इतना भयानक नहीं लगता। हमारे दम में दम आता है और आख़िरकार हम नीचे पहुँच जाते हैं। नाद्या अधमरी-सी हो रही है। वह सफ़ेद पड़ गई है। उसकी साँसें बहुत धीमी-धीमी चल रही हैं... मैं उसकी स्लेज से उठने में मदद करता हूँ ।

अब चाहे जो भी हो जाए मै कभी नहीं फिसलूँगी, हरगिज़ नहीं! आज तो मैं मरते-मरते बची हूँ। — मेरी ओर देखते हुए उसने कहा। उसकी बड़ी-बड़ी आँखों में ख़ौफ़ का साया दिखाई दे रहा है। पर थोड़ी ही देर बाद वह सहज हो गई और मेरी ओर सवालिया निगाहों से देखने लगी। क्या उसने सचमुच वे शब्द सुने थे या उसे ऐसा बस, महसूस हुआ था, सिर्फ़ हवा की गरज थी वह? मैं नाद्या के पास ही खड़ा हूँ। मैं सिगरेट पी रहा हूँ और अपने दस्ताने को ध्यान से देख रहा हूँ।

नाद्या मेरा हाथ अपने हाथ में ले लेती है और हम देर तक पहाड़ी के आसपास घूमते रहते हैं। यह पहेली उसको परेशान कर रही है। वे शब्द जो उसने पहाड़ी से नीचे फिसलते हुए सुने थे, सच में कहे गए थे या नहीं? यह बात वास्तव में हुई या नहीं। यह सच है या झूठ? अब यह सवाल उसके लिए स्वाभिमान का सवाल हो गया है. उसकी इज़्ज़त का सवाल हो गया है। जैसे उसकी ज़िन्दगी और उसके जीवन की ख़ुशी इस बात पर निर्भर करती है। यह बात उसके लिए महत्त्वपूर्ण है, दुनिया में शायद सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण। नाद्या मुझे अपनी अधीरता भरी उदास नज़रों से ताकती है, मानों मेरे अन्दर की बात भाँपना चाहती हो। मेरे सवालों का वह कोई असंगत-सा उत्तर देती है। वह इस इन्तज़ार में है कि मैं उससे फिर वही बात शुरू करूँ। मैं उसके चेहरे को ध्यान से देखता हूँ — अरे, उसके प्यारे चेहरे पर ये कैसे भाव हैं ? मैं देखता हूँ कि वह अपने आप से लड़ रही है, उसे मुझ से कुछ कहना है, वह कुछ पूछना चाहती है। लेकिन वह अपने ख़यालों को, अपनी भावनाओं को शब्दों के रूप में प्रकट नहीं कर पाती। वह झेंप रही है, वह डर रही है, उसकी अपनी ही ख़ुशी उसे तंग कर रही है...। — सुनिए! — मुझ से मुँह चुराते हुए वह कहती है। — क्या बात है ? — मैं पूछता हूँ । — चलिए, एक बार फिर फिसलें ।

हम फिर से पहाड़ी के ऊपर चढ़ जाते हैं। मैं फिर से भय से सफ़ेद पड़ चुकी और काँपती हुई नाद्या को स्लेज पर बैठाता हूँ। हम फिर से भयानक गहराई की ओर फिसलते हैं। फिर से हवा की गरज़ और स्लेज की गूँज हमारे कानों को फाड़ती है और फिर जब शोर सबसे अधिक था मैं धीमी आवाज़ में कहता हूँ — मैं तुम से प्यार करता हूँ, नाद्या ।

नीचे पहुँचकर जब स्लेज रुक जाती है तो नाद्या एक नज़र पहले ऊपर की तरफ़ ढलान को देखती है जिससे हम अभी-अभी नीचे फिसले हैं, फिर दूसरी नज़र मेरे चेहरे पर डालती है। वह ध्यान से मेरी बेपरवाह और भावहीन आवाज़ को सुनती है। उसके चेहरे पर हैरानी है। न सिर्फ़ चेहरे पर बल्कि उसके सारे हाव-भाव से हैरानी झलकती है। वह चकित है और जैसे उसके चेहरे पर यह लिखा है — क्या बात है? वे शब्द किसने कहे थे? शायद इसी ने? या हो सकता है मुझे बस, ऐसा लगा हो, बस ऐसे ही वे शब्द सुनाई दिए हों ?

उसकी परेशानी बढ़ जाती है कि वह इस सच्चाई से अनभिज्ञ है। यह अनभिज्ञता उसकी अधीरता को बढ़ाती है। मुझे उस पर तरस आ रहा है। बेचारी लड़की! वह मेरे प्रश्नों का कोई उत्तर नहीं देती और नाक-भौंह चढ़ा लेती है। लगता है, वह रोने ही वाली है। — घर चलें? — मैं पूछता हूँ। — लेकिन मुझे... मुझे तो यहाँ फिसलने में ख़ूब मज़ा आ रहा है। — वह शर्म से लाल होकर कहती है और फिर मुझ से अनुरोध करती है — और क्यों न हम एक बार फिर फिसलें ?

हुम... तो उसे यह फिसलना 'अच्छा लगता है'। पर स्लेज पर बैठते हुए तो वह पहले की तरह ही भय से सफ़ेद दिखाई दे रही है और काँप रही है। उसे साँस लेना भी मुश्किल हो रहा है। लेकिन मैं अपने होंठों को रुमाल से पोंछकर धीरे से खाँसता हूँ और जब फिर से नीचे फिसलते हुए हम आधे रास्ते में पहुँच जाते हैं तो मैं एक बार फिर कहता हूँ — मैं तुम से प्यार करता हूँ, नाद्या !

और यह पहेली पहेली ही रह जाती है। नाद्या चुप रहती है, वह कूछ सोचती है... मैं उसे उसके घर तक छोड़ने जाता हूँ। वह धीमे-धीमे क़दमों से चल रही है और इन्तज़ार कर रही है कि शायद मैं उससे कुछ कहूँगा। मैं यह नोट करता हूँ कि उसका दिल कैसे तड़प रहा है। लेकिन वह चुप रहने की कोशिश कर रही है और अपने मन की बात को अपने दिल में ही रखे हुए है। शायद वह सोच रही है।

दूसरे दिन मुझे उसका एक रुक्का मिलता है —"आज जब आप पहाड़ी पर फिसलने के लिए जाएँ तो मुझे अपने साथ ले लें। नाद्या।" उस दिन से हम दोनों रोज़ फिसलने के लिए पहाड़ी पर जाते हैं और स्लेज पर नीचे फिसलते हुए हर बार मैं धीमी आवाज़ में वे ही शब्द कहता हूँ — मैं तुम से प्यार करता हूँ, नाद्या !

जल्दी ही नाद्या को इन शब्दों का नशा-सा हो जाता है, वैसा ही नशा जैसा शराब या मार्फ़ीन का नशा होता है। वह अब इन शब्दों की ख़ुमारी में रहने लगी है। हालाँकि उसे पहाड़ी से नीचे फिसलने में पहले की तरह डर लगता है लेकिन अब भय और ख़तरा मौहब्बत से भरे उन शब्दों में एक नया स्वाद पैदा करते हैं जो पहले की तरह उसके लिए एक पहेली बने हुए हैं और उसके दिल को तड़पाते हैं। उसका शक हम दो ही लोगों पर है — मुझ पर और हवा पर। हम दोनों में से कौन उसके सामने अपनी भावना का इज़हार करता है, उसे पता नहीं। पर अब उसे इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता। शराब चाहे किसी भी बर्तन से क्यों न पी जाए — नशा तो वह उतना ही देती है। अचानक एक दिन दोपहर के समय मैं अकेला ही उस पहाड़ी पर जा पहुँचा। भीड़ के पीछे से मैंने देखा कि नाद्या उस ढलान के पास खड़ी है, उसकी आँखें मुझे ही तलाश रही हैं। फिर वह धीरे-धीरे पहाड़ी पर चढ़ने लगती है ...अकेले फिसलने में हालाँकि उसे डर लगता है, बहुत ज़्यादा डर! वह बर्फ़ की तरह सफ़ेद पड़ चुकी है, वह काँप
रही है, जैसे उसे फ़ाँसी पर चढ़ाया जा रहा हो। पर वह आगे ही आगे बढ़ती जा रही है, बिना झिझके, बिना रुके। शायद आख़िर उसने फ़ैसला कर ही लिया कि वह इस बार अकेली नीचे फिसल कर देखेगी कि "जब मैं अकेली होऊंगी तो क्या मुझे वे मीठे शब्द सुनाई देंगे या नहीं?" मैं देखता हूँ कि वह बेहद घबराई हुई भय से मुँह खोलकर स्लेज पर बैठ जाती है। वह अपनी आँखें बंद कर लेती है और जैसे जीवन से विदा लेकर नीचे की ओर फिसल पड़ती है... स्लेज के फिसलने की गूँज सुनाई पड़ रही है। नाद्या को वे शब्द सुनाई दिए या नहीं — मुझे नहीं
मालूम... मैं बस यह देखता हूँ कि वह बेहद थकी हुई और कमज़ोर-सी स्लेज से उठती है। मैं उसके चेहरे पर यह पढ़ सकता हूँ कि वह ख़ुद नहीं जानती कि उसे कुछ सुनाई दिया या नहीं। नीचे फिसलते हुए उसे इतना डर लगा कि उसके लिए कुछ भी सुनना या समझना मुश्किल था।

फिर कुछ ही समय बाद वसन्त का मौसम आ गया। मार्च का महीना है... सूरज की किरणें पहले से अधिक गरम हो गई हैं। हमारी बर्फ़ से ढकी वह सफ़ेद पहाड़ी भी काली पड़ गई है, उसकी चमक ख़त्म हो गई है। धीरे-धीरे सारी बर्फ़ पिघल जाती है। हमारा फिसलना बंद हो गया है और अब नाद्या उन शब्दों को नहीं सुन पाएगी। उससे वे शब्द कहने वाला भी अब कोई नहीं है — हवा ख़ामोश हो गई है और मैं यह शहर छोड़कर पितेरबुर्ग जाने वाला हूँ — हो सकता है कि मैं हमेशा के लिए वहाँ चला जाऊँगा।

मेरे पितेरबुर्ग रवाना होने से शायद दो दिन पहले की बात है। संध्या समय मैं बगीचे में बैठा था। जिस मकान में नाद्या रहती है, यह बगीचा उससे जुड़ा हुआ था और एक ऊँची बाड़ ही नाद्या के मकान को उस बगीचे से अलग करती थी। अभी भी मौसम में काफ़ी ठंड है, कहीं-कहीं बर्फ़ पड़ी दिखाई देती है, हरियाली अभी नहीं है लेकिन वसन्त की सुगन्ध महसूस होने लगी है। शाम को पक्षियों की चहचहाट सुनाई देने लगी है। मैं बाड़ के पास आ जाता हूँ और एक दरार में से नाद्या के घर की तरफ़ देखता हूँ। नाद्या बरामदे में खड़ी है और उदास नज़रों से आसमान की ओर ताक रही है। बसन्ती हवा उसके उदास फीके चेहरे को सहला रही है। यह हवा उसे उस हवा की याद दिलाती है जो तब पहाड़ी पर गरजा करती थी जब उसने वे शब्द सुने थे। उसका चेहरा और उदास हो जाता है, गाल पर आँसू ढुलकने लगते हैं... और बेचारी लड़की अपने हाथ इस तरह से आगे बढ़ाती है मानो वह उस हवा से यह प्रार्थना कर रही हो कि वह एक बार फिर से उसके लिए वे शब्द दोहराए। और जब हवा का एक झोंका आता है तो मैं फिर धीमी आवाज़ में कहता हूँ — मैं तुम से प्यार करता हूँ, नाद्या !

अचानक न जाने नाद्या को क्या हुआ! वह चौंककर मुस्कराने लगती है और हवा की ओर हाथ बढ़ाती है। वह बेहद ख़ुश है, बेहद सुखी, बेहद सुन्दर।

और मैं अपना सामान बाँधने के लिए घर लौट आता हूँ...।

यह बहुत पहले की बात है। अब नाद्या की शादी हो चुकी है। उसने ख़ुद शादी का फ़ैसला किया या नहीं, इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता। उसका पति एक बड़ा अफ़सर है और उनके तीन बच्चे हैं। वह उस समय को आज भी नहीं भूल पाई है, जब हम फिसलने के लिए पहाड़ी पर जाया करते थे। हवा के वे शब्द उसे आज भी याद हैं, यह उसके जीवन की सबसे सुखद, हृदयस्पर्शी और ख़ूबसूरत याद है।

और अब, जब मैं प्रौढ़ हो चुका हूँ, मैं यह नहीं समझ पाता हूँ कि मैंने उससे वे शब्द क्यों कहे थे, किसलिए मैंने उसके साथ ऐसा मज़ाक किया था!...



मूल रूसी से अनुवाद

अन्तोन चेख़फ़ की कहानी -- ग्रीषा

अन्तोन चेख़व की कहानी -- ग्रीषा

दो साल और सात महीने पहले पैदा हुआ ग्रीषा नाम का एक छोटा और मोटा-सा लड़का अपनी आया के साथ बाहर गली में घूम रहा है। उसके गले में मफ़लर है, सिर पर बड़ी-सी टोपी और पैरों में गर्म जूते। लेकिन इन कपड़ों में उसका दम घुट रहा है और उसे बेहद गर्मी लग रही है। सूरज बड़ी तेजी से चमक रहा है और उसकी चमक सीधे आँखों में चुभ रही है। ग्रीषा क़दम बढ़ाता चला जा रहा है। किसी भी नई चीज़ को देखकर वह उसकी तरफ़ बढ़ता है और फिर बेहद अचरज से भर जाता है।
ग्रीषा ने बाहर की दुनिया में पहली बार क़दम रखा है। अभी तक उसकी दुनिया सिर्फ़ चार कोनों वाले एक कमरे तक ही सीमित थी, जहाँ एक कोने में उसका खटोला पड़ा है और दूसरे कोने में उसकी आया का सन्दूक। तीसरे कोने में एक कुरसी रखी हुई है और चौथे कोने में एक लैम्प जला करता है। उसके खटोले के नीचे से टूटे हाथों वाली एक गुड़िया झलक रही थी। वहीं कोने में खटोले के नीचे एक फटा हुआ ढोलनुमा खिलौना पड़ा हुआ है। आया के सन्दूक के पीछे भी तरह-तरह की चीज़ें पड़ी हुई हैं जैसे धागे की एक रील, कुछ उल्टे-सीधे काग़ज़, एक ढक्कनरहित डिब्बा और एक टूटा हुआ जोकर खिलौना।


ग्रीषा की दुनिया अभी बेहद छोटी है। वह सिर्फ़ अपनी माँ, अपनी आया और अपनी बिल्ली को ही जानता है। माँ उसे गुड़िया जैसी लगती है और बिल्ली माँ के फ़र के कोट जैसी। लेकिन माँ के कोट में न तो दुम ही है और न आँखें ही। ग्रीषा के कमरे का एक दरवाज़ा भोजनकक्ष में खुलता है। इस कमरे में ग्रीषा की ऊँची-सी कुरसी रखी हुई है और कमरे की दीवार पर एक घड़ी लगी हुई है, जिसका पेण्डुलम हर समय हिलता रहता है। कभी-कभी यह घड़ी घण्टे भी बजाती है। भोजनकक्ष के बराबर वाला कमरा बैठक के रूप में इस्तेमाल किया जाता है, जिसमें लाल रंग की आरामकुर्सियाँ पड़ी हुई हैं। बैठक में बिछे कालीन पर एक गहरा दाग दिखाई पड़ता है, जिसके लिए ग्रीषा को आज भी डाँटा जाता है।
बैठक के बाद घर का एक और कमरा है, जिसमें ग्रीषा को घुसना मना है। उस कमरे में अक्सर पापा आते-जाते दिखाई पड़ते हैं। पापा ग्रीषा के लिए एक पहेली ही हैं। उसकी माँ और आया तो उसकॊ कपड़े पहनाती हैं, खाना खिलाती हैं, उसको सुलाती हैं। लेकिन ये पापा किसलिए होते हैं, यह ग्रीषा को मालूम नहीं है। ग्रीषा के लिए एक और पहेली हैं उसकी मौसी। वही मौसी, जिसने उसे वह ढोल उपहार में दिया था, जो अब उसके खटोले के नीचे फटा हुआ पड़ा है। यह मौसी कभी दिखाई देती है, कभी लापता हो जाती है। आख़िर ग़ायब कहाँ हो जाती है? ग्रीषा पलंग के नीचे, सन्दूक के पीछे और सोफ़े के नीचे झाँककर देख चुका है, लेकिन मौसी उसे कहीं नहीं मिली।
इस नई दुनिया में जहाँ सूरज की धूप आँखों को चुभ रही है, इतनी ज़्यादा माँएँ और मौसियाँ हैं कि पता नहीं वह किसकी गोद में जाए? मगर सबसे अजीब हैं घोड़े। ग्रीषा उनकी लम्बी-लम्बी टाँगों को देख रहा है और कुछ समझ नहीं पा रहा। वह आया की ओर देखता है कि शायद वह उसे कुछ बताएगी। लेकिन आया भी चुप है।


अचानक क़दमों की भारी और डरावनी आवाज़ सुनाई पड़ती है। सड़क पर लाल चेहरे वाले सिपाहियों का एक दस्ता दिखाई देता है, जो धीरे-धीरे उसकी ओर बढ़ रहा है। सिपाहियों के हाथों में तौलिए हैं। वे शायद नहाकर लौटे हैं। ग्रीषा उन्हें देखकर डर गया और काँपने लगा। उसने आया की तरफ़ सवालिया निगाहों से देखा -- कहीं कोई खतरा तो नहीं है? लेकिन आया नहीं डरी थी। ग्रीषा ने सिपाहियों को आँखों ही आँखों में विदा किया और उन्हीं की तरह क़दमताल करने लगा। सड़क के उस पार लम्बी थूथनों वाली कुछ बिल्लियाँ इधर-उधर भाग रही हैं। उनकी जबानें बाहर निकली हुई हैं और पूँछें ऊपर की तरफ़ खड़ी हुई हैं। ग्रीषा सोचता है कि उसे भी भागना चाहिए और वह बिल्लियों के पीछे-पीछे बढ़ने लगता है।
--- रूको, ग्रीषा रुको। -- तभी आया ने चीख़कर कहा और उसे कन्धों पर से पकड़ लिया -- कहाँ जा रहे हो? बड़ी शरारत करते हो।
वहीं सड़क पर एक औरत टोकरी में सन्तरे लेकर बैठी हुई थी। उसके पास से गुज़रते हुए ग्रीषा ने चुपचाप एक सन्तरा उठा लिया। -- यह क्या बदतमीज़ी है? -- आया ने चिल्लाकर कहा और सन्तरा उससे छीन लिया -- तुमने यह सन्तरा क्यों उठाया?
तभी ग्रीषा की नज़र काँच के एक टुकड़े पर पड़ी, जो जलती हुई मोमबत्ती की तरह चमक रहा था। वह उस काँच को भी उठाना चाहता था, मगर डर रहा था कि उसे फिर से डाँट पड़ सकती है।
--- नमस्कार, बहन जी। अचानक ग्रीषा को कोई भारी आवाज़ सुनाई पड़ी। उसने देखा कि भारी डील-डौल वाला एक आदमी उनकी तरफ़ आ रहा था, जिसके कोट के बटन चमक रहे थे। उस आदमी ने पास आकर आया से हाथ मिलाया और वहीं खड़ा होकर उससे बातें करने लगा। ग्रीषा की ख़ुशी का कोई पारावार नहीं था। सूरज की धूप, बग्घियों का शोर, घोड़ों के दौड़ने की आवाज़ें और चमकदार बटन -- यह सब देखकर वह बेहद ख़ुश था। ये सब दृश्य ग्रीषा के लिए नए थे और उसका मन ख़ुशी से भर गया था। वह ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगा था।
--- चलो ! चल्लो ! -- उस चमकदार बटनवाले आदमी के कोट का एक पल्ला पकड़कर ग्रीषा चिल्लाया।
--- कहाँ चलें? -- उस आदमी ने पूछा।
--- चल्लो ! -- ग्रीषा ने फिर ज़ोर से कहा। वह कहना चाहता था कि कितना अच्छा हो अगर हम अपने साथ माँ, पापा और बिल्ली को भी ले लें। मगर वह अभी अच्छी तरह से बोलना नहीं जानता था।


कुछ देर बाद आया ग्रीषा को लेकर गली से एक इमारत के अहाते में मुड़ी। अहाते में बर्फ़ अभी भी पड़ी हुई थी। चमकदार बटनों वाला वह आदमी भी उनके पीछे-पीछे चल रहा था। बर्फ़ के ढेरों और अहाते में जमा हो गए पानी के चहबच्चों को बड़े ध्यान से पार करते हुए वे इमारत की गन्दी और अन्धेरी सीढ़ियों पर चढ़कर ऊपर एक कमरे में पहुँच गए।
कमरे में धुआँ भरा हुआ था। कोई चीज़ तली जा रही थी। ग्रीषा ने देखा कि अँगीठी के पास खड़ी एक औरत टिक्के बना रही है। ग्रीषा की आया ने उस रसोईदारिन का अभिवादन किया फिर पास ही पड़ी बेंच पर बैठ गई। दोनों औरतें कुछ बातचीत करने लगीं। गरम कपड़ों से लदे ग्रीषा को गरमी लगने लगी। उसने अपने आस-पास देखा और सोचा कि इतनी गरमी क्यों है। फिर कुछ देर वह रसोईघर की काली हो गई छत को ताकता रहा और फिर अँगीठी की तरफ़ देखने लगा।
--- अम्माँ -- उसने कहा।
--- अरे...अरे...रुको भई ! -- आया ने चीख़कर उससे कहा -- ज़रा इन्तज़ार करो !
तब तक रसोईदारिन ने शराब की एक बोतल और तीन जाम समोसों से भरी प्लेट के साथ मेज़ पर रख दिए। दोनों औरतों और चमकदार बटनों वाले आदमी ने अपने-अपने जाम उठाकर टकराए और वे उन्हें पीने लगे। उसके बाद उस आदमी ने आया और रसोईदारिन को गले से लगा लिया। फिर तीनों धीमी आवाज़ में कोई गीत गाने लगे।
ग्रीषा ने अपना एक हाथ समोसों की प्लेट की तरफ़ बढ़ाया। आया ने एक समोसा तोड़कर उसका एक टुकड़ा ग्रीषा को पकड़ा दिया। ग्रीषा समोसा खाने लगा। तभी उसने देखा कि आया तो कुछ पी भी रही है। उसे भी प्यास लग आती है। रसोईदारिन अपने जाम से उसे एक घूँट भरने देती है। घूँट भरने के बाद वह बुरा-सा मुँह बनाता है और घूर-घूरकर सबकी ओर देखने लगता है। फिर वह धीरे से खाँसता है और ज़ोर-ज़ोर से अपने हाथ हिलाने लगता है। रसोईदारिन उसे देखकर हँसने लगती है।


वापिस अपने घर लौटकर ग्रीषा अपनी माँ को, दीवारों को और अपने खटोले को यह बताने लगता है कि आज वह कहाँ-कहाँ गया था और उसने क्या-क्या देखा। इसके लिए वह सिर्फ़ अपनी जबान का ही इस्तेमाल नहीं करता, बल्कि अपने चेहरे के भावों और हाथों का भी इस्तेमाल करता है। वह दिखाता है कि सूरज कैसे चमक रहा था, घोड़े कैसे भाग रहे थे, अँगीठी कैसे जल रही थी और रसोईदारिन कैसे पी रही थी।
फिर शाम को उसे नींद नहीं आती। लाल चेहरे वाले सिपाही, बड़ी-बड़ी बिल्लियाँ, घोड़े, काँच का वह चमकता हुआ टुकड़ा, सन्तरे वाली औरत, सन्तरों की टोकरी, चमकदार बटन... ये सभी चीज़ें उसके दिमाग में चक्कर काट रही हैं। वह करवटें बदलने लगता है और अपने खटोले पर ही एक कोने से दूसरे कोने की ओर लुढ़कने लगता है... और आख़िरकार अपनी उत्तेजना बरदाश्त न कर पाने के कारण रोने लगता है।
--- अरे, तुझे तो बुख़ार है! -- माँ उसके माथे को छूकर कहती है -- यह बुख़ार कैसे हो गया?
--- अँगीठी... ग्रीषा रो रहा है और चीख़ रहा है --- जा...जा... अँगीठी...भाग !
शायद इसने आज ज़रूरत से ज़्यादा खा लिया है, माँ सोचती है और ग्रीषा को, जो नए दृश्यों के प्रभाव से उत्तेजित था, दवा पिलाने लगती है।
मूल रूसी से अनुवाद

अन्तोन चेख़फ़ की कहानी - भिखारी

अन्तोन चेख़व की कहानी - भिखारी

— ओ साहिब जी, एक भूखे बेचारे पर दया कीजिए! तीन दिन का भूखा हूँ। रात बिताने के लिए जेब में एक पैसा भी नहीं.. पूरे आठ साल तक एक गाँव में स्कूल मास्टर रहा.. बड़े लोगों की बदमाशी से नौकरी चली गई... ज़ुल्म का शिकार बना हूँ... अभी साल पूरा हुआ है बेरोज़गार भटकते फिरते हुए...
बैरिस्टर स्क्वार्त्सोफ़ ने भिखारी के मैले-कुचैले कोट, नशे से गंदली आँखें, गालों पर लगे हुए लाल धब्बे देखे। उन्हें लगा कि इस आदमी को कहीं पहले देखा है।
— अभी मुझे कलूगा जिले में नौकरी मिलने ही वाली है, -- भिखारी आगे बोलता गया -- पर उधर जाने के लिए पैसे नहीं हैं। कृपा करके मदद कीजिए साहिब... भीख माँगना शर्म का काम है, पर क्या करूँ, मजबूर हूँ...
स्क्वार्त्सोफ़ ने उसके रबर के जूतों पर नज़र डाली जिन में से एक नाप में छोटा और एक बड़ा था तो उन्हें एकदम याद आया —
— सुनिए, तीन दिन पहले मैं ने आपको सदोवाया सड़क पर देखा था, - बैरिस्टर बोले, -- आप ही थे न ? पर उस वक़्त आप ने मुझे बताया था कि आप स्कूल मास्टर नहीं, बल्कि एक छात्र हैं जिसे कालिज से निकाल दिया गया है। याद आया?
— न..नहीं.. यह नहीं हो सकता, -- भिखारी घबराकर बुदबुदाया। -- मैं गाँव में मास्टर ही था... चाहें तो कागज़ात दिखा दूँ...
— झूठ मत बोलो ! तुमने मुझे बताया था कि तुम एक छात्र हो, कालिज छूटने की कहानी भी सुनाई थी मुझे! अब याद आया?
स्क्वार्त्सोफ़ साहब का चेहरा गुस्से से तमतमा उठा। घृणा से मुँह बिचकाकर वे भिखारी से दो क़दम पीछे हट गए। फिर क्रोध भरे स्वर में चिल्लाए —
— कितने नीच हो तुम! बदमाश कहीं के! मैं तुम्हें पुलिस के हवाले कर दूँगा! भूखे हो, ग़रीब हो, यह ठीक है, पर इस बेशर्मी से झूठ क्यों बोलते हो?
भिखारी ने दरवाज़े के हत्थे पर अपना हाथ रखकर पकड़े गए चोर की तरह नज़र दौडाई।
— मैं... मैं झूठ नहीं बोलता... — वह बुदबुदाया — मैं कागज़ात...
— अरे कौन विश्वास करेगा! — स्क्वार्त्सोफ़ साहिब का क्रोध बढ़ता गया — गाँव के मास्टरों और ग़रीब विद्यार्थियों पर समाज जो सहानुभूति दिखाता आया है, उस से लाभ उठाना कितना गन्दा, नीच और घिनौना काम है!
स्क्वार्त्सोफ़ साहब क्रोध से आगबबूला हो उठे और भिखारी को बुरी तरह कोसने लगे। अपनी इस निर्लज्ज धोखेबाजी से उस आवारा आदमी ने उनके मन में घृणा पैदा कर दी थी और उन भावनाओं का अपमान किया था जो स्क्वार्त्सोफ़साहब को अपने चरित्र में सब से मूल्यवान लगती थीं। उनकी उदारता, भावुकता, ग़रीबों पर दया, वह भीख जो वे खुले दिल से माँगनेवालों को दिया करते थे -- सब कुछ अपवित्र करके मिट्टी में मिला दिया इस बदमाश ने! भिखारी भगवान् का नाम लेकर अपनी सफाई देता रहा, फिर चुप हो गया और उसने शर्म से सर झुका लिया। फिर दिल पर हाथ रखकर बोला—
— साहिब, मैं सचमुच झूठ बोल रहा था। न मैं छात्र हूँ और न मास्टर। मैं एक संगीतमण्डली में था। फिर शराब पीने लगा और अपनी नौकरी खो बैठा। अब क्या करूँ? भगवान् ही मेरा साक्षी है, बिना झूठ बोले काम नहीं चलता! जब सच बोलता हूँ तो कोई भीख भी नहीं देता! सच को लेकर भूखों मरना होगा या सर्दी में बेघर जम जाना होगा, बस! कहते तो आप सही हैं, यह में भी समझता हूँ, पर क्या करूँ?
— करना क्या है? तुम पूछ रहे हो कि करना क्या है! -- स्क्वार्त्सोफ़ साहब उसके निकट आकर बोले, -- काम करना चाहिए! काम करना चाहिए और क्या !
— काम करना चाहिए! यह तो मैं भी समझता हूँ, पर नौकरी कहाँ मिलेगी?
— क्या बकवास है! जवान हो, ताक़तवर हो, चाहो तो नौकरी क्यों नहीं मिलेगी? पर तुम तो सुस्त हो, निकम्मे हो, शराबी हो! तुम्हारे मुँह से तो वोदका की बदबू आ रही है जैसे किसी शराब की दूकान से आती है! झूठ, शराब और आरामतलबी तुम्हारे ख़ून की बूँद-बूँद पहुँच चुके हैं! भीख माँगने और झूठ बोलने के अलावा तुम और कुछ जानते ही नहीं! कभी नौकरी कर लेने का कष्ट उठा भी लेंगे जनाब तो बस किसी दफ्तर में, या संगीत-मण्डली में, या किसी और जगह जहाँ मक्खी मारते-मारते पैसे कमा लें! मेहनत-मजदूरी क्यों नहीं करते? भंगी या कुली क्यों नहीं बन जाते? ख़ुद को बहुत ऊँचा समझते हो!
— कैसी बात कर रहे हैं आप? - भिखारी बोला। मुँह पर एक तिक्त मुस्कान उभरी। -- मेहनत-मज़दूरी कहाँ से मिलेगी? किसी दुकान में नौकरी नहीं कर सकता, क्योंकि व्यापार बचपन से ही सीखा जाता है। भंगी भी कैसे बनूँ, कुलीन घर का हूँ... फ़ैक्टरी में भी काम करने के लिए कोई पेशा तो आना चाहिए, मैं तो कुछ नहीं जानता।
— बकवास कर रहे हो! कोई न कोई कारण ढूँढ़ ही लोगे! क्यों जनाब, लकडी फाड़ोगे?
— मैंने कब इनकार किया है, पर आज लकड़ी फाड़ने वाले मज़दूर भी तो बेकार बैठे हैं!
— सभी निकम्मे लोगों का यही गाना है! मैं मज़दूरी दिलवाता तो मुँह फेरकर भागोगे! क्या मेरे घर में लकड़ी फाड़ोगे?
— आप चाहें तो क्यों नहीं करूँगा...
— वाह रे! देखें तो सही!
स्क्वार्त्सोफ़ साहब ने जल्दी से अपनी रसोई से अपनी बावरचिन को बुलाया और नाराज़गी से बोले —
— ओल्गा, इन साहब को जलाऊ लकडी की कोठरी में ले जाओ। इनको लकडी फाड़ने के लिएव दे दो!
भिखारी अनमना-सा कन्धे हिलाकर बावरचिन के पीछे-पीछे चल पड़ा। उसके चाल-चलन से यह साफ़ दिखाई दे रहा था कि वह भूख और बेकारी के कारण नहीं, बस अपने स्वाभिमान की वजह से ही यह काम करने के लिए मान गया है। यह भी लग रहा था कि शराब पीते-पीते वह कमज़ोर और अस्वस्थ हो चुका है।काम करने की कोई भी इच्छा नहीं है उस की।
स्क्वार्त्सोफ़ साहब अपने डाइनिंग-रूम पहुँचे जहाँ से आँगन और कोठरी आसानी से दिखाई दे रहे थे। खिड़की के पास खड़े होकर उन्होंने देखा कि बावरचिन भिखारी को पीछे के दरवाज़े से आँगन में ले आई है। गन्दी-मैली बर्फ़ को रौंदते हुए वे दोनों कोठरी की ओर बढ़े। भिखारी को क्रोध भरी आँखों से देखती ओल्गा ने कोठरी के कपाट खोल दिए और फिर धड़ाम से दीवार से भिड़ा दिए।
— लगता है, हमने ओल्गा को काफ़ी नहीं पीने दी — स्क्वार्त्सोफ़ साहब ने सोचा, — कितनी ज़हरीली औरत है!
फिर उन्होंने देखा कि झूठा मास्टर लकडी के एक मोटे कुन्दे पर बैठ गया और अपने लाल गालों को अपनी मुट्ठियों में दबोचकर किसी सोच-विचार में डूब गया। ओल्गा ने उसके पैरों के पास कुल्हाड़ी फेंककर नफ़रत से थूक दिया और गालियाँ बकने लगी। भिखारी ने डरते-डरते लकड़ी का एक कुन्दा अपनी ओर खींचा और उसे अपने पैरों के बीच रखकर कुल्हाड़ी का एक कमज़ोर-सा वार किया। कुन्दा गिर गया। भिखारी ने उसे दुबारा थामकर और सर्दी से जमे हुए अपने हाथों पर फूँक मारकर कुल्हाड़ी इस तरह चलाई जैसे वह डर रहा हो कि कहीं अपने घुटने या पैरों की उँगलियों पर ही प्रहार न हो जाए। लकड़ी का कुन्दा फिर गिर गया।
स्क्वार्त्सोफ़ साहब का क्रोध टल चुका था। उन्हें ख़ुद पर कुछ-कुछ शर्म आने लगी कि इस निकम्मे, शराबी और शायद बीमार आदमी से सर्दी में भारी मेहनत-मज़दूरी किस लिए करवाई।
— चलो, कोई बात नहीं, — अपने लिखने-पढ़ने के कमरे में जाते समय उन्होंने सोचा, — उस की भलाई ही होगी!
एक घण्टे बाद ओल्गा ने अपने मालिक को सूचित किया कि काम पूरा हो गया है।
— लो, उसे पचास कोपेक दे दो, — स्क्वार्त्सोफ़ साहब ने कहा, — चाहो तो हर पहली तारीख़ को लकड़ी फाड़ने आ जाया करो। काम मिल जाएगा।
अगले महीने की पहली तारीख़ को भिखारी फिर आ गया। शराब के नशे में लड़खड़ाने पर भी उसने पचास कोपेक कमा ही लिए। उस दिन से वह जब-तब आया ही करता था। हर बार कोई न कोई काम कर ही लेता। कभी आँगन से बर्फ़ हटाता था, कभी कोठरी साफ़ करता था, कभी कालीनों और मेट्रेसों से धूल निकालता था। हर बार वह बीस-चालीस कोपेक कमाता था, और एक बार स्क्वार्त्सोफ़ साहब ने उसे अपने पुराने पतलून भी भिजवाए थे।
नए फ़्लैट में जाते समय स्क्वार्त्सोफ़ साहब ने उसे फर्नीचर बाँधने और उठाकर ले जाने में कुलियों की मदद करने को कहा। उस दिन भिखारी संजीदा, उदास और चुप्पा था। फर्नीचर पर हाथ बहुत कम रखता था, सर झुकाए इधर-उधर मण्डरा रहा था। काम करने का बहाना भी नहीं कर रहा था, बस सर्दी से सिकुड़ता रहा था और जब दूसरे कुली उसकी सुस्ती, कमज़ोरी और फटे-पुराने “साहब किस्म के” ओवरकोट का मज़ाक उड़ाते थे तो शरमाता रहा था। काम पूरा हुआ तोस्क्वार्त्सोफ़ साहब ने उसे अपने पास बुला भेजा।
— लगता है, तुम पर मेरी बातों का कुछ असर पड़ा है, — भिखारी के हाथ में एक रूबल पकडाते हुए उन्होंने कहा, —यह लो अपनी कमाई। देखता हूँ तुमने पीना छोड़ दिया है और मेहनत के लिए तैयार हो। हाँ, नाम क्या है तुम्हारा?
— जी, लुश्कोफ़...
— तो, लुश्कोफ़, अब मैं तुम्हें कोई दूसरा और साफ़-सुथरा काम दिलवा सकता हूँ। पढ़ना-लिखना जानते हो?
— जी हाँ...
— तो यह चिट्ठी लेकर कल मेरे एक दोस्त के यहाँ चले जाना। कागज़ातों की नक़ल करने की नौकरी है। सच्चे मन से काम करना, शराब मत पीना, मेरा कहना मत भूलना। जाओ!
एक पापी को सही रास्ता दिखाकर स्क्वार्त्सोफ़ साहब बहुत प्रसन्न थे। उन्होंने लुश्कोफ़ के कन्धे पर एक प्यार की थपकी दी और उसे छोड़ने बाहर दरवाज़े तक आए फिर उससे हाथ भी मिलाया। लुश्कोफ़ वह चिट्ठी लेकर चला गया और उस दिन के बाद फिर कभी नहीं आया।
***
दो साल बीत गए। एक दिन थिएटर की टिकट-खिड़की के पास स्क्वार्त्सोफ़ साहब को छोटे क़द का एक आदमी दिखाई दिया। वह भेड़ के चमड़े की गरदनी वाला ओवरकोट और एक पुरानी-सी पोस्तीन की टोपी पहने हुए था। उसने डरते-डरते सब से सस्ता टिकट माँगा और पाँच-पाँच कोपेक के सिक्के दे दिए।
— अरे लुश्कोफ़, तुम! -- स्क्वार्त्सोफ़ ने अपने उस मज़दूर को पहचान लिया, -- कैसे हो? क्या करते हो? ज़िन्दगी ठीक-ठाक है न?
— जी हाँ, ठीक-ठाक है, साहिब जी... अब मैं उसी नोटरी के यहाँ काम करता हूँ, पैंतीस रूबल कमाता हूँ...
— कृपा है भगवान् की! वाह, भाई, वाह! बड़ी ख़ुशी की बात है! बहुत प्रसन्न हूँ! सच पूछो तो तुम मेरे शिष्य जैसे हो न! मैं ने तुम्हे एक सच्चा रास्ता दिखाया था! याद है, कितना कोसा था तुमको? कान गर्म हुए होंगे मेरी बातें सुनकर! धन्य हो, भाई, कि मेरे वचनों को तुम भूले नहीं!
— धन्य हैं आप भी, — लुश्कोफ़ बोला, — आपके पास न आता तो अब तक ख़ुद को मास्टर या छात्र बतलाकर धोखेबाजी करता फिरता! आपने मुझे खाई से निकालकर डूबने से बचाया है!
— बहुत, बहुत ख़ुशी की बात है!
— आपने बहुत अच्छा कहा भी और किया भी! मैं आपका आभारी हूँ और आपकी बावरचिन का भी, भगवान् उस दयालु उदार औरत की भलाई करे! आप ने उस समय बहुत सही और अच्छी बातें की थी, मैं उम्र भर आपका आभारी रहूँगा,पर सच पूछिए तो आपकी बावरचिन ओल्गा ही ने मुझे बचाया है!
— वह कैसे?
— बात ऐसी है साहिब जी। जब-जब मैं लकडी फाड़ने आया करता था वह मुझे कोसती रहती — "अरे शराबी! तुझ पर ज़रूर कोई शाप लग गया है! मर क्यों नहीं जाता!" फिर मेरे सामने उदास बैठ जाती, और मेरा मुँह देखते-देखते रो पड़ती — "हाय बेचारा! इस लोक में कोई भी ख़ुशी नहीं देख पाया और परलोक में भी नरक की आग में ही जाएगा! हाय बेचारा, दुखियारा!" वह बस इसी ढंग की बातें किया करती थी। उसने अपना कितना ख़ून जलाया मेरे कारण, कितने आँसू बहाए, मैं आपको बता नहीं सकता! पर सब से बड़ी बात यह हुई कि वह ही मेरा सारा काम पूरा करती रहती थी! सच कहता हूँ साहिब, आपके यहाँ मैंने एक भी लकड़ी नहीं फाड़ी, सब कुछ वही करती थी! उस ने मुझे कैसे बचाया, उसको देखकर मैंने पीना क्यों छोड़ दिया, क्यों बदल गया मैं, आपको कैसे समझाऊँ। इतना ही जानता हूँ कि उसके वचनों और उदारता की वजह से मैं सुधर गया, और मैं यह कभी नहीं भूलूँगा। हाँ साहिब जी, अब जाना है, नाटक शुरू होने की घण्टी बज रही है...
लुश्कोफ़ सर झुकाकर अपनी सीट की ओर बढ़ गया।


मूल रूसी से अनूदित

बरीस पस्तेरनाक की कविताएँ

 अनुवाद: वरयाम सिंह

बोरीस पस्तेर्नाक की कविताएँ
1.

हर चीज़ के भीतर एक

हर चीज़ के भीतर तक
पहुँचना चाहता हूँ मैं ।
पहुँचना चाहता हूँ उनके सारतत्‍व तक
काम में, राहों की खोज में
हृदय की उथल-पुथल में ।

पहुँचना चाहता हूँ
बीते दिनों की सच्‍चाई तक,
उनके कारण और मूल तक,
उनके आधार और मर्म तक ।

नियति ओर घटनाओं का
हर समय में पकड़े रखना चाहता हूँ सूत्र,
चाहता हूँ जीना, सोचना, अनुभव करना, प्रेम करना,
उद्घाटित करना नये-नये सत्‍यों को ।

काश संभव होता
भले ही अंशत:
भावावेग के गुणों पर
मात्र आठ पंक्तियों में ।

लिखना अराजकता, पाप, पलायन
और आखेट के बारे में,
आकस्मिक घटनाओं, अचंभों,
कुहनियों और हथेलियों के स्‍पर्श के बारे में ।

मैं ढूँढ़ निकालता उनके नियम
और उनका उद्गम
और अुहराता रहता
उनके नामों के प्रथम अक्षर ।

उद्यान की तरह मैं सजाता कविताएँ,
धमनियों के समस्‍त कंपन के साथ
उनके खिलते रहते मेपल लगातार
एक साथ, जी भरकर ।

कविताओं में लाता गुलाबों के महक
और पुदीने का सत्‍त,
लाता चरागाहें, वलीक घास
और ठहाके गरजते बादलों के ।

इसी तरह शोपां
अपनी रचना में
समेट लाये थे पार्क, उपवन और
समाधियों के आश्‍चर्य।

अर्जित गरिमा की यातना
और खुशी
तनी हुई प्रत्‍यंचा
सधे हुए धनुष की ।

 2.
मेरी ज़िन्दगी बहन

मेरी ज़िन्‍दगी बहन ने आज की बाढ़
और बहार की इस बारिश में
ठोकरें खाई हैं हर चीज़ से
लेकिन सजे-धजे दंभी लोग
बड़बड़ा रहे हैं ज़ोर-ज़ोर से
और डस रहे हैं एक विनम्रता के साथ
जई के खेतों में साँप ।

बड़ों के पास अपने होते हैं तर्क
हमारी तर्क होते हैं उनके लिए हास्‍यास्‍पद
बारिश में बैंगनी आभा लिए होती हैं आँखें
क्षितिज से आती है महक भीगी सुरभिरूपा की ।

मई के महीने में जब गाड़ियों की समय सारणी
पढ़ते हैं हम कामीशिन रेलवे स्‍टशेन से गुजरते हुए
यह समय सारणी होती है विराट
पावन ग्रंथों से भी कहीं अधिक विराट
भले ही बार-बार पढ़ना पड़ता है उसे आरम्भ से ।

ज्‍यों ही सूर्यास्‍त की किरणें
आलोकित करने लगती हैं गाँव की स्त्रियों को
पटड़ियों से सट कर खड़ी होती हैं वे
और तब लगता है यह कोई छोटा स्‍टेशन तो नहीं
और डूबता हुआ सूरज सांत्‍वना देने लगता है मुझे ।

तीसरी घंटी बजते ही उसके स्‍वर
कहते हैं क्षमायाचना करते हुए :
खेद है, यह वह जगह है नहीं,
पर्दे के पीछे से झुलसती रात के आते हैं झोंके
तारों की ओर उठते पायदानों से
अपनी जगह आ बैठते हैं निर्जन स्‍तेपी ।

झपकी लेते, आँखें मींचते मीठी नींद सो रहे हैं लोग,
मृगतृष्‍णा की तरह लेटी होती है प्रेमिका,
रेल के डिब्‍बों के किवाड़ों की तरह इस क्षण
धड़कता है हृदय स्‍तैपी से गुजरते हुए ।
 3.
काश मैं जानता
काश मैं जानता ऐसा ही होता है
जब मैंने लिखना शुरू किया था
कि खून सनी पंक्तियाँ मार डालती हैं
गर्दनियाँ देकर ।

सच्‍चाई के साथ मज़ाक करते हुए इस तरह
मैंने इनकार किया होता साफ-साफ।
आरंभ तो अभी दूर था
और पहला शौक इतना भीरूतापूर्ण ।

पर बुढ़ापा होता है एक तरह का रोग
जो आडम्‍बरों से भरे अभिनय के बदले
अभिनेता से संवाद की नहीं
मृत्‍यु की माँग करता है गंभीरता से ।

जब पंक्तियों को लिखवाती हैं कविताएँ
मंच पर भेज देती हैं गुलाम को,
और यहाँ समाप्‍त हो जाती है कला
और साँस लेती है मिट्टी और नियति ।
 4.
अलग होना

चौखट पर से देखता है आदमी
पहचान नहीं पाता घर को
उस स्‍त्री का जाना जैसे गायब हो जाना था
सब जगह बर्बादी के निशान छोड़ कर ।

अस्‍त-व्‍यस्‍त दिखता है सारा कमरा,
कितनी क्षति हुई
देख नहीं पा रहा वह आदमी
सिरदर्द और आँसुओं के कारण ।

सुबह से कानों में गूँज रहा कुछ शोर-सा
वह होश में है या देख रहा है सपना ?
क्‍यों आ रहे हैं विचार
हर क्षण समुद्र के बारे में ।

जब खिडकियों पर लगे आले के बीच से
दिखाई नहीं पड़ता ईश्‍वर का संसार
दूर तक फैला अवसाद
दिखता हैं समुद्र की लंबी निर्जनता की तरह ।

प्रिय लगती थी वह
इतनी कि प्रिय लगती थी उसकी हर बात
जैसे प्रिय लगती हैं
समुद्र को अपनी लहरें, अपना तट ।

तूफान के बाद लहरें
जैसे डुबो देती हैं बाँस को,
उसकी आतमा की गहराई में
चली गई हैं उसकी सारी छवियाँ

यातना भरे जीवन के उन दिनों में
जो विचार से भी परे थे
नियति के अथाह से
लहरें उसे उठा लाई थी पास ।

असंख्‍य बाधाओं के बीच
खतरों से बचते हुए
लहरें उसे ऊपर उठाती रहीं, उठाती रहीं
और अंतत: ले आई उसे एकदम पास ।

और जब उसका यह चले जाना
संभव है एक जबरदस्‍ती हो
चबा डालेगा यह अलगाव
उसकी हड्डियों को अवसाद समेत ।

और आदमी देखता है चारों तरफ
उस स्‍त्री ने जाने से पहले
उलट-पलट कर फेंक दिया है
अलमारी की हर चीज़ को ।

वह टहलता है इधर-उधर
अंधेरा होने से पहले
बिखरे चीथड़ों, कपड़ों के नमूनों को
समेट कर रख देता है अलमारी में ।

अधसिले कपड़े पर रखी सुई
चुभ जाती है उसकी अंगुली में
उस क्षण उसे दिखती है वह पूरी-की-पूरी
और धीरे-से रो देता है वह ।

 5.
अनन्त के लिए क्षणिक बारिश

और ग्रीष्‍म ने विदा ली
छोटे-से रेलवे स्‍टेशन से।
टोपी उतार कर बादलों की गड़गड़ाहट ले
याददाश्‍त के लिए
सैकड़ों तस्‍वीरें लीं रात की  ।

रात के अंधकार मे
बिजली की कौंध दिखाने लगी
ठंड से जमे बकायन के गुच्‍छे
और खेतों से परे मुखिया की कोठ ।

और जब कोठी की छत पर
बनने लगी परपीड़क खुशी की लहर
जैसे तस्‍वीर पर कोयले का चूरा
बारिश का पानी गिरा बेंत की बाड़ पर ।

झिलमिलाने लगा चेतना का भहराव
लगा बस अभी
चमक उठेंगे विवेक के वे कोने
जो रोशन हैं अब दिन की तरह ।

अनुवाद: वरयाम सिंह

सोमवार, 28 सितंबर 2015

व्लदीमिर सरोकिन की कहानी 

         मल्लाह की रानी

                    समकालीन रूसी लेखक व्लदीमिर सरोकिन

इस बार हम आपको मिलवा रहें हैं समकालीन रूसी लेखक व्लदीमिर सरोकिन से। उनका जन्म 1955 में मास्को ज़िले में हुआ। मास्को के तेल और गैस इन्स्टीट्यूट में उन्होंने शिक्षा पाई। पढ़ाई के दिनों में ही उनमें लेखन की अदम्य लालसा जाग उठी थी, सो वे एक साहित्यिक पत्रिका में काम करने लगे। 1972 में एक कवि के रूप में उन्होंने साहित्य की दुनिया में पहले क़दम रखे। इसके साथ ही वे चित्रकारी भी करने लगे और पुस्तक-सज्जा का काम भी। उन्होंने अनेक कला-प्रदर्शनियों में भाग लिया  और लगभग पचास पुस्तकों के लिए चित्र बनाए।

उन्नीसवीं सदी में ही तलस्तोय जैसे महान लेखकों ने साहित्य में यथार्थवाद को ऐसे शिखर पर पहुँचा दिया था कि आज भी सारे संसार में यथार्थवाद ही लेखन की मुख्य धारा है। यों बीसवीं सदी में विश्व-साहित्य में कई नई-नई धाराएँ सामने आईं। रूसी साहित्य भी इनसे अछूता नहीं रहा। सोवियत संघ में इन नई साहित्यिक धाराओं को  सरकारी मान्यता प्राप्त नहीं थी, सो इस दिशा में प्रयोग करने वाले कलाकार ’भूमिगत’ रहते थे, उनकी रचनाएं छपती भी थीं तो यूरोप के दूसरे देशों में। सोरोकिन भी शुरू से ही भूमिगत रहे। 1985 में पेरिस में उनकी छह कहानियों और एक उपन्यास का संग्रह छपा, जबकि स्वदेश में पहली पुसतक 1989 में ही प्रकाशित हुई। मुख्य धारा से हटकर लिखने के कारण उनके बारे में  पाठकों और समीक्षकों की राय में ज़मीन-आसमान का अन्तर दिखाई देता है। कोई उनकी तारीफ़ के पुल बाँधता है तो कोई उनपर  थू-थू करता नज़र आता है। वैसे ख़ुद व्लदीमिर सरोकिन का कहना है -- मैं लिखते समय यह बिलकुल नहीं सोचता कि मेरी इस रचना को कौन पढ़ेगा। मुझे तो आज यह सोच कर भी हैरानी होती है कि मैं जो करता हूँ उसमें लोग दिलचस्पी क्यों लेते हैं ?
आज हम प्रस्तुत कर रहे हैं उनकी कहानी  -- नाविक की रानी।  इस कहानी को रूसी आलोचकों और समीक्षकों ने एक अतियथार्थवादी रचना माना है। इस कहानी में व्लदीमिर सरोकिन ने यह धारणा अभिव्यक्त की है कि सच्ची कलाकृति में उसके रचयिता की प्रकृति भी प्रतिबिम्बित होती है।

                         मल्लाह की रानी

पुलिस इन्स्पेक्टर ने सिर उठाया।
-- आ जाओ !
दरवाज़ा खुला और छोटे कद की एक युवती ने कमरे में प्रवेश किया। उसके हाथ में एक थैला था।
-- नमस्ते !
-- नमस्ते !
अपने हाथ में पकड़ा पैन एक ओर रखकर इंस्पेक्टर ने लड़की पर सवालिया नज़र डाली।
-- जी, बताइए, क्या काम है ?
-- मैं. वो...।
लड़की को हिचकिचाता देखकर इंस्पेक्टर ने कुर्सी की ओर इशारा किया और कहा --
-- बैठ जाइए ।
-- बात यह है, कामरेड इंस्पेक्टर, मैं यहाँ पर, मेरा मतलब है कि मैं अपनी माँ के साथ रहती हूँ...समझ में नहीं आ रहा बात कहाँ से शुरू करूँ...
 -- घबराइए, नहीं। बस, बताती जाइए।
लड़की ने एक गहरी साँस ली।
-- वो, हुआ यह कि बीती गर्मियों में एक लेफ्टिनेण्ट ने... नेवी के लेफ्टिनेण्ट ने हमारे घर में कमरा किराए पर लिया था।  वे सरकारी काम से यहाँ आए हुए थे, पर होटल में ठहरने का उनका मन नहीं हुआ।
-- ठीक, तो फिर हुआ क्या ?
-- बस, महीना भर रहे हमारे यहाँ। किराया ठीक वक्त पर देते रहे। बड़े हँसोड़ स्वभाव के थे, साफ़-सुथरे, सलीकेदार।  तीन बार छुट्टी की शाम को मुझे डाँस-क्लब ले गए, फ़िल्म भी दिखाने ले गए। माँ से बैठे बातें करते रहते। जब लौटने का दिन आया तो मुझसे कहने लगे -- आपकी इजाज़त हो तो मैं याददाश्त के तौर पर अपना दिल आपको तोहफ़े में देना चाहता हूँ ।
-- अच्छा...।
-- बोले, जब मेरा जहाज़ दूर समुद्र में होगा, तो कभी-कभार मुझे याद करके उदास हो लेना। मैंने मज़ाक में जवाब दिया -- कामरेड लेफ्टिनेण्ट, आपकी बात बड़ी प्यारी है, मगर मुझे यह समझ नहीं आ रहा है कि इतना बड़ा तोहफ़ा  मैं कहाँ संभाल कर रखूँगी।  और फिर कोई लडकी किसी के लिए उदास हो, इसके लिए तो उसके दिल में ख़ास जगह बनानी होती है।

-- तो फिर, वह चला गया?
इंस्पेक्टर बड़े कौतूहल से युवती को देख रहा था।
-- जी हाँ, चले गए। पर उनके जाने के बाद अपने पलंग के बगल में रखी छोटी अल्मारी में मुझे यह बोतल मिली  है।
लड़की ने थैले में से चौड़े मुँह की एक बोतल निकालकर इंस्पेक्टर के सामने रख दी। कसकर बन्द की हुई बोतल में दिल रखा था जो धड़क रहा था। इंस्पेक्टर ने अपनी ठोडी खुजलाई।

-- तो यह वह छोड़ गया है ?
-- जी हाँ ।
-- मतलब यह उसका दिल है?
-- और नहीं तो किसका होगा?
-- पर आप हमारे पास...मेरा मतलब पुलिस के पास क्यों आई हैं?
-- आप ही बताइए, और कहाँ जाऊँ ? अपनी मिल वालों के पास गई थी, वो कुछ सुनने को तैयार नहीं हैं। कहते हैं – हमारा इससे कोई लेना-देना नहीं।  अब मैं जाऊँ तो कहाँ जाऊँ ?

बोतल को देखते हुए इंस्पेक्टर सोच में डूब गया।
-- अच्छा, अभी इसे यहीं छोड़ जाओ। सोमवार को आना।
लडकी उठकर दरवाज़े की ओर चल दी।
-- सुनिए, जाते-जाते वह कुछ कह कर तो नहीं गया था?
लड़की ने कुछ देर सोचकर कन्धे उचका दिए।
-- वे शायद कुछ बुरा मान गए थे। जैसे-तैसे नमस्ते करके चले गए। जवान लड़की  का मज़ाक नहीं समझे, एकदम बुद्धू थे।| इतने दिनों से रोज़ाना डाकिए की राह देख रही हूंँ। पर कुछ लिख भी नहीं रहे। अजीब नौसैनिक हैं। अपना पता तक नहीं भेज रहे।
उसने सिर पर बँधा रूमाल ठीक किया।
-- बड़ा दुख होता है और झुंझलाहट भी, कामरेड इंस्पेक्टर कि मैंने उनसे ऐसा क्यों कहा  और प्यार से बात नहीं की। मेरा तो दिल ही बुझ गया है। इससे ज़्यादा खिसियाहट तो इस बात पर होती है कि सब लोग, और तो और मेरे घरवाले भी मुझे मल्लाह की रानी कहने लगे हैं...पता नहीं क्यों...।
इंस्पेक्टर ने उसकी बात समझते हुए सिर हिलाया और उसके पास गया।
-- कहते हैं तो कहते रहें। आप परवाह मत कीजिए। हम आपके इस मामले से निपट लेंगे। जाइए, घर जाइए।

लड़की चली गई। इंस्पेक्टर अपनी मेज़ पर वापिस लौट आया और उसने बोतल उठाई। बोतल का काँच अन्दर से पसीज गया था। बोतल का कार्क मोम से सीलबन्द था। इंस्पेक्टर ने दराज़ में से फोल्डिंग चाकू निकाला, उसे खोला और कार्क को एक सिरे से उखाड़ा। कार्क आसानी से खुल गया। बोतल में से अजीब सी गंध आई। इंस्पेक्टर ने बोतल में से दिल निकालकर अपनी हथेली पर रख लिया। वह नरम औए गरम था। गाढ़े लाल रंग की उसकी सतह पर गुलाबी और नीली शिराओं का जाल बिछा हुआ था और दिल पर बड़ी सफ़ाई से जहाज़ का लंगर गुदा हुआ था।
1978

गुरुवार, 24 सितंबर 2015

                          रूसी मुहावरे
आज आपको तीन-चार रूसी मुहावरे सिखाता हूँ और उनका अर्थ भी बताता हूँ। 
 1.  तुम्हें किस मक्खी ने काटा है?
 
1.  तुम्हें किस मक्खी ने काटा है?
’ककाया मूख़ा तिब्या उकुसीला?’ — यानी तुम्हें किस मक्खी ने काटा है?  यह मुहावरा  रूसी भाषा में उस आदमी से कहा जाता है, जो बिना किसी कारण अचानक ही नाराज़ होने लगता है या गुस्सा होने लगता है या कोई ऐसी हरकत करने लगता है, जो अप्रत्याशित होती है।
हालाँकि रूसी भाषा में यह मुहावरा फ़्राँसिसी भाषा से आया है, लेकिन फिर भी रूसी लोग इस मुहावरे के इतने आदी हैं कि वे इसका अक्सर इस्तेमाल करते हैं। इस मुहावरा का जन्म उन लोगों के कारण हुआ जो शगुन-अपशगुन में विश्वास रखते हैं। फ़्राँसिसीयों की तरह रूसी लोग भी यह मानते हैं कि मक्खियाँ, भिंड़, गुबरैले और दूसरे कीड़े शैतान के कहने से ही सब कुछ करते हैं। जब किसी आदमी के चेहरे पर, नाक पर या कान पर कोई भिंड या मधुमक्खी काट लेती है तो वह व्यक्ति दर्द से इतना बेचैन हो जाता है कि वह पागलों की तरह हरकतें करने लगता है और बेचैन हो जाता है। इसलिए इस मुहावरे में ’मूख़ा’ का मतलब मक्खी नहीं, बल्कि मधुमक्खी से है।
’मक्खी’ यानी ’मूख़ा’  से जुड़ा एक और मुहावरा भी रूसी भाषा में बोला जाता है — ’ओन ई मूखि ने अबीजित’ यानी वह मक्खी को भी नाराज़ नहीं कर सकता। हिन्दी में हम इसे कहेंगे कि वह मक्खी भी तो नहीं मार सकता है। इसका मतलब रूसी भाषा में यह होता है कि वह व्यक्ति इतना दयालु है कि एक मक्खी  को भी वह नहीं मार सकता है यानी वह व्यक्ति किसी को नाराज़ तक नहीं कर सकता है।

 2.  अपनी नाक पर खोद लीजिए



2.  अपनी नाक पर खोद लीजिए
भारत की तरह रूस में भी  ’नोस’ यानी ’नाक’ को लेकर बहुत से मुहावरे बोले जाते हैं, जैसे — ’ज़दीरात नोस’ यानी नाक ऊँची करना,  ’वेशत नोस’ यानी नाक लटकाना (भारत में ’मुँह लटकाना’) और ’सूयूत नोस व चुझीए देला’  किसी दूसरे के काम में नाक घुसाना आदि-आदि।
तो आइए आज हम रूस में  बोले जाने वाले ’नाक’ से जुड़े  मुहावरों की चर्चा करते हैं। नाक चेहरे का महत्त्वपूर्ण हिस्सा होती है। इसलिए नाक को लेकर कई दिलचस्प मुहावरे रूस में सुनाई देते हैं। लेकिन एक मुहावरा तो इस बात की ख़िलाफ़त करता है कि नाक चेहरे का महत्त्वपूर्ण हिस्सा होती है। यह मुहावरा  है — अस्तातस्या स नोसम  (अपनी नाक लेकर रह जाना) -- यानी धोखे में पड़ जाना (या जैसाकि भारत में कहा जाता है —अपना छोटा-सा मुँह लेकर रह जाना) या कुछ भी हाथ न लगना।
यह मुहावरा अस्तातस्या स नोसम (अपनी नाक लेकर रह जाना) प्राचीन रूस में बना था। तब यदि किसी लड़के को कोई लड़की पसन्द आ जाती थी, तो वह उपहार लेकर उस लड़की के घर उसका हाथ माँगने के लिए जाता था। उस उपहार को तब ’नोस’ कहा जाता था यानी ’जो कुछ लाया गया है’। यदि लड़के को लड़की का हाथ देने से मना कर दिया जाता था तो वह लड़का उस उपहार यानी नोस के साथ ही वापिस चला जाता था। बस यही से यह यह मुहावरा बन गया — अस्तातस्या स नोसम  (अपनी नाक लेकर रह जाना)। लेकिन इस मुहावरे में ’नोस’ शब्द का मतलब तब नाक नहीं बल्कि उपहार होता था।
रूसी भाषा में ’नोस’ यानी नाक को लेकर एक और मुहावरा अक्सर कहा जाता है —  ’ज़ारुबीत सिब्ये ना नोसू’ यानी अपनी नाक पर खोद लो। हिन्दी में इस मुहावरे का मतलब होता है ’गाँठ बाँध लो’ या ’याद रखो’। यहाँ भी ’नोस’ शब्द का मतलब ’नाक’ नहीं है। पुराने ज़माने में रूसी लोगों के पास एक तख़्ती हुआ करती थी। वे सारा हिसाब-किताब इस तख़्ती पर ही लिख लेते थे। तब लिखने को खोदना या काटना कहा जाता था। ज़ारुबीत सिब्ये ना नोसू यानीअपनी तख़्ती पर खोद लो या काट लो। अब उस तख़्ती की जगह कम्प्यूटर और आर्गनाइजर आ गए हैं। लेकिन रूसी भाषा में यह मुहावरा बाक़ी रह गया है, जिसका मतलब होता है ’गाँठ बाँध लो’ या ’याद रखो’।
इसके अलावा एक और मुहावरा रूसी भाषा में बोला जाता है — क्ल्यूऐत नोसम यानी नाक से चुगना। लेकिन इस मुहावरे का अर्थ होता है — नींद का झोंका आना।

 3.  मूँछ में लपेट लो  और  मूँछ भी नहीं हिली !
 
3.  मूँछ में लपेट लो  और  मूँछ भी नहीं हिली !
रूसी भाषा में ऐसे बहुत से मुहावरे हैं, जिनमें अक्सर मूँछ का ज़िक्र आता है। जैसे ’मताय ना ऊस’ (यानी मूँछ में लपेट लो या मूँछ में हिलगा लो)। ’मताय ना ऊस’ —  अक्सर माता-पिता अपने उन छोटे बच्चों से यह मुहावरा कहते नज़र आते हैं, जिनके अभी मूँछें उगी नहीं हैं और न जाने कितने बरस में उनके मूँछें उगेंगी। इस मुहावरे का मतलब होता है — इस बात को ध्यान में रखो।
बात यह है कि रूस में मूँछ का होना व्यक्ति के वयस्क होने और अनुभवी होने का प्रतीक माना जाता था। जिस व्यक्ति के मूँछ होती थी, उसे पुराने समय में रूस में बहुत बुद्धिमान माना जाता था। मूँछ में लपेट लो या मूँछ में हिलगा लो, जैसे मुहावरा इसलिए पैदा हुआ क्योंकि मूँछवाले लोग उस समय अपनी मूँछे एँठते रहते हैं, जब वे कुछ सोच रहे होते हैं।
यह भी माना जाता है कि यह मुहावरा इसलिए पैदा हुआ क्योंकि प्राचीन रूस में किसी बात को याद करने के लिए लोग अपनी मूँछ में गाँठ बाँध लेते थे। जब भी कोई काम करना होता था तो मूँछ में गाँठ बाँध ली। अब जब तक काम नहीं होगा, मूँछ में गाँठ बँधी रहेगी और व्यक्ति को यह याद दिलाती रहेगी कि उसे फलाना काम करना है।
मूँछ से जुड़ा हुआ एक और मुहावरा रूस में बोला जाता है  — ’ऊस ने दूइ’ यानी मूँछ भी नहीं हिली। इस मुहावरे का मतलब होता है कि उसे ज़रा भी परवाह नहीं है या  बिल्कुल चिन्ता नहीं है। यह मुहावरा रूस में उस पुराने  समय से चला आ रहा है, जब हर पुरुष मूँछ-दाढ़ी रखा करता था। किसान जब भारी परिश्रम करने के बाद घर लौटता था तो उसकी मूँछों और दाढ़ी के बाल पसीने से तर होकर भारी हो जाते थे। लेकिन जो लोग कामचोर होते थे और काम की कोई परवाह नहीं करते थे उनके बारे में कहा जाता था -- ’ओन इ व ऊस ने दुइ’ यानी उसे काम की बिल्कुल चिन्ता नहीं है या वह तो पूरी तरह से लापरवाह व्यक्ति है।


4.  ’खुले पैरों पर’ रहना ( यानी नवाबी करना या अय्याशी करना)

 


4.  ’खुले पैरों पर’ रहना ( यानी नवाबी करना या अय्याशी करना)
’खुले पैरों पर रहना’ (झीच ना शिरोकुयू नोगू)-- यह मुहावरा रूसी भाषा में अँग्रेज़ी से आया है। इस मुहावरे की रचना के पीछे जो कथा कही जाती है, वह इस प्रकार है। बारहवीं शताब्दी में इंगलैण्ड में राजा हेनरी द्वितीय का शासन था। अचानक उसके पैर की एक उँगली पर बड़ा-सा मस्सा उग आया। राजा ने उस मस्से का बहुत इलाज कराया, पर वैद्य-हक़ीम सब उस मस्से को दूर करने में असफल रहे। मस्सा बढ़ता रहा और इतना बड़ा हो गया कि राजा का पैर भद्दा दिखाई देने लगा।
राजा ने अपने लिए एक ऐसा जूता बनाने को कहा, जिसे पहनने में मस्सा बाधा पैदा न करे। मोची ने राजा के लिए जो जूता तैयार किया, उसकी नोक आगे से ऊपर को उठी हुई थी। ऊँची नोक वाला वह जूता सभी दरबारियों को बहुत पसन्द आया। बस, फिर क्या था। अगले दिन से मोची के आगे दरबारियों की लाइन लग गई। सब ऊपर को उठी हुई ऊँची नोक वाला जूता बनवाना चाहते थे। हर आदमी यह चाहता था कि उसके जूते की नोक ऊँची से ऊँची हो।
आख़िर राजा को इसमें हस्तक्षेप करना पड़ा। इंगलैण्ड में यह नियम बना दिया गया कि आम नागरिकों के जूते की नोक सिर्फ़ आधा फ़ुट (15 सेण्टीमीटर) लम्बी होगी। योद्धाओं और ज़मीदारों को एक फ़ुट (30 सेण्टीमीटर) तक जूते की नोक लम्बी रखने का अधिकार दिया गया। और काउण्ट अपने जूते की नोक दो फ़ुट तक लम्बी रख सकते थे।
इस तरह इंगलैण्ड के समाज में जूते का साइज इस बात का प्रतीक हो गया कि समाज में कौन कितना प्रभावशाली और धनवान है। अमीर लोगों के लिए कहा जाने लगा -- देखो, कितने बड़े पैरों पर रह रहा है यह।
रूस में इस मुहावरे  (झीच ना शिरोकुयू नोगू)  का इस्तेमाल  व्यापक रूप से क़रीब सौ-डेढ़ सौ साल पहले ही तब शुरू हुआ, जब रूस के साहित्यिक-पत्र ’लितरातूरनया गज़्येता’ ने इस मुहावरे के बनने के पीछे की कहानी पहली बार छापी थी। पहले रूस में पाठकों के बीच इस मुहावरे का चलन शुरू हुआ। बाद में आम लोग भी इस मुहावरे का इस्तेमाल करने लगे। इस तरह अँग्रेज़ी भाषा का यह मुहावरा रूसी भाषा में भी जगह पा गया।

बुधवार, 23 सितंबर 2015

रूसी कवि अनतोली परपरा की कविताएँ

 


रूसी कवि अनतोली परपरा की कविताएँ

प्रसिद्ध रूसी लेखक अनातोली परपरा का जन्म 15 जुलाई 1940 को मास्को में हुआ था। 1941 में उनकी माँ अपने बच्चों के साथ स्मालेन्स्क के अपने गाँव में रहने चली गईं। जल्दी ही रूस पर हिटलरी जर्मनी ने हमला कर दिया। हिटलरी नाजीवादी सैनिक बहुत जल्दी ही स्मालेन्स्क पहुँच गए और उन्होम्ने उस गाँव को जला दिया, जहा उनकी माँ अपने बच्चों के साथ रह रही थीं। पूरे गाँव में सिर्फ़ आठ व्यक्ति ज़िन्दा बचे, बाक़ी सभी गाँववालों को जर्मन सैनिकों ने मार दिया था। उन आठ लोगों में अनातोली पारपरा भी थे। द्वितीय विश्व-युद्ध समाप्त होने के बाद सैन्य स्कूल कि शिक्षा समाप्त करके अनातोली परपरा ने मास्को विश्वविद्यालय के पत्रकारिता संकाय में शिक्षा प्राप्त की। बाद में ’मस्क्वा’ नाम साहित्यिक पत्रिका के सम्पादक मण्डल में रहे। इस साल अनातोली परपरा 75 वर्ष के हो गए हैं। उनकी इस स्वर्ण जयन्ती पर उन्हें हार्दिक शुभकामनाएँ देते हुए  उनकी कुछ कविताएँ। 

1. बरखा का एक दिन

हवा बही जब बड़े ज़ोर से
बरसी वर्षा झम-झमा-झम
मन में उठी कुछ ऐसी झंझा
दिल थाम कर रह गए हम

गरजे मेघा झूम-झूम कर
जैसे बजा रहे हों साज
ता-ता थैया नाचे धरती
ख़ुशियाँ मना रही वह आज

भीग रही बरखा के जल में
तेरी कोमल चंदन-काया
मन मेरा हुलस रहा, सजनी
घेरे है रति की माया

2. सौत-सम्वाद


एक लोकगीत को सुनकर

ओ झड़बेरी, ओ झड़बेरी
मैं तुझे कहूँ व्यथा मेरी

सुन मेरी बात, री झड़बेरी
आता जो तेरे पास अहेरी

वह मेरा बालम सांवरिया
न कर उससे, यारी गहरी

वह छलिया, ठग है जादूगर
करता फुसला कर रति-लहरी

न कुपित हो तू, बहना, मुझ पे
बहुत आकुल हूँ, कातर गहरी

 3. तेरा चेहरा

शरदकाल का दिन था पहला, पहला था हिमपात
धवल स्तूप से घर खड़े थे, चमक रही थी रात
पिरिदेलकिना स्टेशन पे था मुझे गाड़ी का इन्तज़ार
श्वेत पंखों-सा हिम झरे था, कोहरा था अपार

कोहरे में भी मुझे दीख पड़ा, तेरा चारु-लोचन भाल
तन्वंगी काया झलके थी, पीन-पयोधर थे उत्ताल
खिला हुआ था तेरा चेहरा जैसे चन्द्र अकास
याद मुझे है, प्रिया, तेरे मुखड़े का वह उजास

4. अशान्तिकाल का गीत

समय कैसा आया है यह, मौसम हो गया सर्द
भूल गए हम सारी पीड़ा, भूल गए सब दर्द
मुँह बन्द कर सब सह जाते हैं, करते नहीं विरोध
कहाँ गया मनोबल हमारा, कहाँ गया वह बोध

क्यों रूसी जन चुपचाप सहे अब, शत्रु का अतिचार
क्यों करता वह अपनों से ही, अति-पातक व्यवहार
क्यों विदेशियों पर करते हम, अब पूरा विश्वास
और स्वजनों को नकारते, करते उनका उपहास ?

5. बीच सागर में

इस तन्हाई में फकीरे
दिन बीते धीरे-धीरे
यहाँ सागर की राहों में
कभी नभ में छाते बादल
बजते ज्यूँ बजता मादल
मन हर्षित होते घटाओं के
सागर का खारा पानी
धूप से हो जाता धानी
रंग लहके पीत छटाओं के
जब याद घर की आती
मन को बेहद भरमाती
स्वर आकुल होते चाहों के
बस श्वेत-सलेटी पाखी
जब उड़ दे जाते झाँकी
मलहम लगती कुछ आहों पे

 6. माया

नींद में मुझे लगा कि ज्यूँ आवाज़ दी किसी ने
मैं चौंक कर उठ बैठा और आँख खोल दी मैंने
चकाचौंध रोशनी फैली थी औ' कमरा था गतिमान
मैं उड़ रहा था महाशून्य में जैसे कोई नभयान

मैं तैर रहा था वायुसागर में अदृश्य औ' अविराम
आसपास नहीं था मेरे तब एक भी इन्सान

किसकी यह आवाज़ थी, किसने मुझे बुलाया
इतनी गहरी नींद से, भला, किसने मुझे जगाया
क्या सचमुच में घटा था कुछ या सपना कोई आया
कैसी अनुभूति थी यह, कवि, कैसी थी यह माया ?

7. ओस

सुबह घास पर दिखे घनी
रत्न-राशि की कनी

नीलम-रूप झलकाए
हरित-मणि-सी छाए
कभी जले याकूत-सी
स्फटिक शुचि शरमाए

करे धरती का शृंगार
लगे मोहक सुभग तुषार

पल्लव-पल्लव छाए
बीज को अँखुआए
बने वह स्वाति-मुक्ता
चातक प्यास बुझाए

दुनिया में जीवन रचती
इसके बिना न घूमे धरती

8. जलयान पर

रात है
दूर कहीं पर झलक रही है रोशनी
हवा की थरथराती हँसी मेरे साथ है
दाएँ-बाएँ-ऊपर-नीचे चारों ओर अँधेरा है
हाथ को सूझता न हाथ है
कितनी हसीन रात है

रात है
चाँद-तारों विहीन आकाश है ऊपर
अदीप्त-आभाहीन गगन का माथ है
और मैं अकेला खड़ा हूँ डेक पर
नीचे भयानक लहरों का प्रबल आघात है
कितनी मायावी रात है

रात है
गहन इस निविड़ में मुझे कर रही विभासित
वल्लभा कांत-कामिनी स्मार्त है
माँ-पिता, मित्र-बन्धु मन में बसे
कुहिमा का झर रहा प्रपात है
यह अमावस्या की रात है

9. मौत के बारे में सोच

मौत के बारे में सोच
और उलीच मत सब-कुछ
अपने दोनों हाथों से अपनी ही ओर
हो नहीं लालच की तुझ में ज़रा भी लोच

मौत के बारे में सोच
भूल जा अभिमान, क्रोध, अहम
ख़ुद को विनम्र बना इतना
किसी को लगे नहीं तुझ से कोई खरोंच

मौत के बारे में सोच
दे सबको नेह अपना
दूसरों के लिए उँड़ेल सदा हास-विहास
फिर न तुझ को लगेगा जीवन यह अरोच

देख, देख, देख बन्धु !
रीता नहीं रहेगा फिर कभी तेरा मन
प्रसन्न रहेगा तू हमेशा, हर क्षण

10. नववर्ष की पूर्वसंध्या पर

मार-काट मची हुई देश में, तबाही का है हाल
हिमपात हो रहा है भयंकर, आ रहा नया साल

यहाँ जारी इस बदलाव से, लोग बहुत परेशान
पर हर पल हो रहा हमें, बढ़ते प्रकाश का भान

गरम हवा जब से चली, पिघले जीवन की बर्फ़
चेहरों पर झलके हँसी, ख़त्म हो रहा नर्क

देश में फिर शुरू हुआ है, नई करवट का दौर
छोड़ दी हमने भूल-भुलैया, अब खोजें नया ठौर

याद हमें दिला रही है, रूसी माँ धरती यह बात
नहीं, डरने की नहीं ज़रूरत, होगा शुभ-प्रभात
मायकोवस्की मेरा हमदम, मेरा दोस्त
            वसीली कामिन्स्की

अगर मायकोवस्की की तुलना उसके अन्य सभी साथियों से की जाए तो वह उनसे लाख गुना अधिक मनमोहक, आकर्षक, ज़िन्दादिल, सहृदय और दूसरों के प्रति चिन्तातुर था। उसे कविताएँ पढ़ना बहुत अच्छा लगता था। वह न केवल अपनी कविताएँ पढ़ता था बल्कि हम सभी की कविताएँ पढ़ता था। कवि सिविरयानिन की कविताएँ तो वह हर समय गाता रहता था। जब भी वह उसकी कोई कविता गा कर सुनाता तो उसके बाद ऊपर से यह टिप्पणी भी अवश्य जड़ देता -- वैसे मैं सिविरयानिन से कहीं बेहतर कवि हूँ। उससे अच्छा लिखता हूँ। उदाहरण के लिए ज़रा मेरी यह कविता सुनकर देखो। इसका शीर्षक है -- ’मायकोवस्की की त्रासदी’। तुम सभी लोग मेरे इस बात से सहमत होगे कि मेरी इस कविता में बहुत दम है।
हम मायकोवस्की से कहते -- ठीक है, सुनाओ। और वह अपने बड़े-बड़े हाथों को हवा में लहराते हुए अपनी ’मखमली आवाज़’ में अपनी वह नई कविता सुनाना शुरू कर देता --
ठीक है,
अब रास्ता दीजिए मुझे
यहाँ से जाने का,
मैं तो सोच रहा था
ख़ुश रहूँगा
आँखों में दमक भरे
बैठ जाऊँगा सिंहासन पर
यूनानियों की तरह आरामतलबी से।
लेकिन नहीं
ओ शताब्दी !
यह जीवन-राह बहुत लम्बी है
और मुझे मालूम है
कि दुबले हैं तेरे पैर
और उत्तरी नदियों के बाल बूढ़े सफ़ेद !
आज मैं
इस नगर को पार कर निकलूँगा बाहर
कीलों बिंधी आत्मा को अपनी
इमारतों की नुकीली छतों पर छोड़कर।
वह कविता समाप्त करके कुछ विचारमग्न-सा गहरा उच्छवास लेता और कहता --
मैं इतनी गम्भीर कविताएँ लिखता हूँ कि मुझे ख़ुद से ही डर लगने लगता है। चलो, छोड़ो ये बातें, अब कुछ हँसी-मज़ाक करते हैं। पता नहीं क्यों बड़ी बोरियत-सी हो रही है।
मायकोवस्की के चरित्र की एक मुख्य विशेषता यह थी कि उसकी मनःस्थिति बहुत जल्दी-जल्दी बदलती रहती थी। हमेशा ऐसा महसूस होता रहता था कि एक पल वह हमारे साथ है और दूसरे ही पल वह हमारे साथ नहीं है। वह स्वयं अपने भीतर ही कहीं गहरे डूब चुका है और फिर जैसे अचानक ही पुनः वापिस हमारे बीच लौट आया है।
-- अरे, तुम लोग अभी तक वैसे के वैसे बैठे हो। चलो-चलो, कुछ हंगामा करो। प्यार करो एक-दूसरे को, चूम लो, कुछ धक्का-मुक्की करो, कुछ धींगा-मुश्ती, कुछ गाली-गलौज, कुछ ऐसा करो कि बस, मज़ा आ जाए।
कभी कहता -- चलो, ’रूस्सकए स्लोवा’ (रूसी शब्द) के सम्पादकीय विभाग में चलते हैं और वहाँ सम्पादक सीतिन से यह माँग करेंगे कि वह अगले ही अंक में हम सबकी कविताएँ छापे। अगर वह मना करेगा तो हम उसके केबिन के सारे शीशे तोड़ डालेंगे और यह घोषणा कर देंगे कि आज से सीतिन को उसके तख़्त से उतारा जाता है। अब पत्रिका ’रूस्सकए स्लोवा’ पर हम भविष्यवादियों का अधिकार है। अब इस केबिन में मायकोवस्की बैठेगा और युवा लेखकों को उनकी रचनाओं का मानदेय पेशगी देगा।
इस तरह की कोई भी बात कहकर अपनी कल्पना पर वह बच्चों की तरह खिलखिलाने लगता और इतना ज़्यादा ख़ुश दिखाई देता ,आनो उसकी बात सच हो गई हो। मायकोवस्की अक्सर इस तरह की शैतानी भरी कल्पनाएँ करता रहता था और फिर हम लोग भी उसकी इन बातों में शामिल हो जाते थे। इस तरह की कोई चुहल अभी चल ही रही होती थी कि अचानक मायकोवस्की का मूड बदल जाता और वह बेहद उदास और खिन्न दिखाई देने 
लगता।

कभी हम कहीं जा रहे होते कि अचानक उसकी योजना बदल जाती -- चल वास्या, ज़रा हलवाई की दुकान पर चलते हैं। कुछ समोसे और मिठाइयाँ बँधवा कर माँ के पास चलेंगे। अचानक हमें आया देखकर माँ और बहनें सभी कितनी ख़ुश होंगी। मैं ख़ुशी-ख़ुशी उसकी बात मान लेता और हम उसके घर पहुँच जाते। कहना चाहिए कि वह अपनी माँ अलिक्सान्द्रा अलिक्सियेव्ना को और अपनी दोनों बहनों-- ओल्गा और ल्युदमीला को बेहद प्यार करता था। निश्चय ही उसके बचपन की स्मृतियाँ ही उनके बीच इस प्रगाढ़ स्नेह व आत्मीय सम्बन्धों का आधार थीं।
अपने बचपन के तरह-तरह के किस्से वह हमें सुनाता था। कभी यह बताता कि उसे जार्जिया के उस बगदादी गाँव में, जहाँ वह पैदा हुआ था, अपने बचपन में कुत्तों के साथ घूमना कितना प्रिय था। वह कहता -- मैं अपने कुत्तों के साथ गाँव के बाहर जंगल में चला जाता और देर तक किसी पेड़ की छाया में लेटा रहता। खासकर मुझे यह बात बहुत अच्छी लगती कि कुत्ते मेरी चौकीदारी कर रहे हैं, बल्कि कहना चाहिए कि उन दिनों मैं सिर्फ़ इसी वजह से जंगल में घूमने जाता था कि मेरे कुत्ते मेरे सुरक्षा-दस्ते का काम करते थे और मैं इसमें गर्व महसूस करता था।
मुझे यह देखकर भी आश्चर्य होता था कि मायकोवस्की का रूप अपने घर पर, अपनी माँ और बहनों के सामने बदलकर एकदम ’छुई-मुई’ की तरह हो जाता था। जैसे वह कोई बेहद शर्मीला, शान्त, ख़ूबसूरत और कोमल नन्हा-सा बच्चा हो, जो बहुत आज्ञाकारी और अनुशासन-प्रिय है। साफ़ पता लगता था कि उसके परिवार के लोग उसे बेहद चाहते हैं और जब भी वह घर में होता है, वहा~म एक उत्सव का सा माहौल बना रहता है। घर पर एक पुत्र और एक भाई की भूमिका में और बाहर पीली कमीज़ पहने एक हुड़दंगी नवयुवक व एक बहुचर्चित कवि की भूमिका में उसे देखकर मुझे हमेशा ऐसा लगता था कि उसके भीतर जैसे दो मायकोवस्की रहते हैं, एक दूसरे से एकदम भिन्न दो आत्माएँ, जिनमें परस्पर रूप से हमेशा संघर्ष चलता रहता है।
***
जीवन का चक्र अपनी गति से घूम रहा था। हम ओदेस्सा में थे और वहाँ से हमें किशिन्योफ़ के लिए रवाना होना था। मायकोवस्की न जाने कहाँ फँसा रह गया था। हम बेचैनी से उसके आने का इन्तज़ार कर रहे थे। तब मायकोवस्की को एक लड़की मरीया अलिक्सान्द्रव्ना से प्रेम हो गया था। कहना चाहिए कि वह उन दिनों उसके प्यार में बुरी तरह से डूबा हुआ था। उसकी दशा पाग़लों जैसी हो चुकी थी। दाढ़ी और बाल बढ़ गए थे। एक ही जोड़ी कपड़े पिछले कई दिनों से उसके बदन पर चढ़े हुए थे। उसे न नहाने का होश था न खाने-पीने की चिन्ता। वह यह समझ नहीं पा रहा था कि अपने इस दमघोंटू प्यार को लेकर वह कहाँ जाए और क्या करे। सत्रह वर्षीय मरीया की गिनती उन गिनी-चुनी लड़कियों में होती थी, जो न केवल सौन्दर्य की दृष्टि से अत्यन्त मोहक और चित्ताकर्षक थीं बल्कि मानसिक स्तर पर भी नए क्रान्तिकारी दर्शन और विचारों में गहरी रुचि लेती थीं। छरहरी, गरिमामयी, हरिण-सी आँखोंवाली, बेहद नशीली, सुन्दर और स्निग्ध उस लड़की ने युवा कवि मायकोवस्की की कल्पना-छवियों को पूरी तरह से घेर लिया था --
अब मैं सिर्फ़
इतना भर जानता हूँ
कि तुम हो मोनालिसा
जिसे मुझे चुराना है
बीस वर्षीय मायकोवस्की को पहली बार प्रेम हुआ था। यह उसकी पहली प्रेमानुभूति थी और वह उसे सम्हाल नहीं पा रहा था। मरीया के साथ हुई अपनी पहली मुलाक़ात के बाद उसके प्यार में डूबा, विषण्ण और विचलित मायकोवस्की किसी घायल पक्षी की तरह पंख फड़फड़ाता, लेकिन इसके साथ-साथ बेहद ख़ुश, सुखी और बार-बार मुस्कराता हमारे कमरे में आया। किसी विजेता की तरह बेहद पुलकित और उल्लसित होकर वह बार-बार केवल यही शब्द दोहरा रहा था -- वाह! क्या लड़की है, वाह! क्या लड़की है। उन दिनों कभी-कभी यह महसूस करते हुए कि शायद ही उस लड़की की तरफ़ से भी उसे वैसा ही भावात्मक उत्तर मिलेगा यानी इस प्रेम में अपनी असफलता की पूर्वानुभूति के साथ-साथ अवसाद में डूबा वह बेचैनी से कमरे में इधर से उधर चक्कर लगाता रहता। उन्हीं दिनों उसने अपने बारे में ये पंक्तियाँ लिखी थीं --
इन दिनों मुझे आप पहचान नहीं पाएँगे
यह विशाल माँसपिण्ड आहें भरता है
आहें भरता है और छटपटाता है
मिट्टी का यह ढेला आख़िर क्या चाहता है
चाहता है यह बहुत कुछ चाहता है

 
उन दिनों हम वास्तव में यह नहीं समझ पाते थे कि उस लापरवाह, निश्चिन्त और बेफ़िक्र मायकोवस्की का यह हाल कैसे हो गया? उसमें अप्रत्याशित रूप से ये कैसा विचित्र परिवर्तन आ गया है? वह न जाने किस उधेड़बुन में डूबा रहता है? कभी अपने बाल नोचता है तो कभी दीन-दुनिया से बेख़बर फ़र्श की ओर ताकता बैठा रहता है। कभी-कभी पिंजरे में बन्द किसी शेर की तरह अपने कमरे में घूमता रहता है और बुड़बुड़ाता रहता है -- क्या किया जाए? क्या करूँ? कैसे रहूँ?
प्रेम में व्यथित सोफ़े पर पड़े दोस्त को देखकर अपने चश्मे के भीतर से झाँकते हुए हमारे साथी बुरल्यूक ने उससे कहा -- तू बेकार दुखी हो रहा है। देख लेना, कुछ नहीं होगा, कोई फल नहिं निकलेगा तेरे इन आँसुओं का। जीवन का पहला प्यार हमेशा यूँ ही गुज़र जाता है।
यह सुनकर मायकोवस्की दहाड़ने लगा -- कैसे कुछ नहीं होगा, क्यों फल नहीं निकलेगा? दूसरों का पहला प्यार यूँ ही गुज़र जाता होगा, मेरा नहीं गुज़रेगा। देख लेना।
बुरल्यूक ने फिर से अपनी बात दोहराई और उसे सान्तवना देने की कोशिश की। पर उसे ’मिट्टी के ढेले’ यानी मायकोवस्की को तो प्रेम-मलेरिया हो गया था --
आप सोच रहे हैं
सन्निपात में है, कारण है मलेरिया
हाँ, यह ओदेस्सा की बात है
चार बजे आऊँगी
मुझसे तब बोली थी मरीया
फिर आठ बजा
नौ बजा
दस बज गए
वह अपने मन की शान्ति गवाँ चुका था। मरीया से मुलाक़ात की वह पहली ख़ुशी अब आकुलता, छटपटाहट और भयानक पीड़ा में बदल चुकी थी --
माँ
तेरा बेटा ख़ूब अच्छी तरह बीमार है
माँ
आग लगी हुई है उसके दिल में
उसकी बहनों को बता दे, माँ
ल्यूदा और ओल्या को बता दे तू
अब उसके सामने कोई रास्ता नहीं है

चूँकि तब तक हम ओदेस्सा में आयोजित सभी काव्य-गोष्ठियों में अपनी कविताएँ पढ़ चुके थे और हमें वहाँ से तुरन्त ही किशिन्योफ़ रवाना होना था, इसलिए उसकी बेचैनी देखकर हमने मायकोवस्की को यह सुझाव दिया कि उसे जल्दी से जल्दी मरीया के साथ अपने सम्बन्धों की सारी गाँठें खोल लेनी चाहिए और अकेले यूँ तड़पने से अच्छा तो यह है कि सारी बात साफ़ कर लेनी चाहिए। और फिर अचानक ही बात साफ़ हो गई --
अचानक
हमारे कमरे का दरवाज़ा चरमराया
मानो दाँत किटकिटाए हों किसी ने
एक धमक के साथ कोई भीतर घुस आया
चमड़े के दस्तानों को
अपने हाथों में मसलते हुए
उसने मुझे अपना यह फ़ैसला सुनाया
क्या मालूम है तुम्हें यह बात
शादी कर रही हूँ
मैं कुछ ही दिनों बाद
मायकोवस्की यह सुनकर बौखला गया था। उसने चलने की घोषणा कर दी और हम उसी शाम रेलगाड़ी में बैठकर किशिन्योफ़ की तरफ़ रवाना हो गए।
रेल के भोजन-कक्ष में हम तीनों दोस्त बहुत देर तक चुप बैठे रहे। हम तीनों ही बहुत असहज महसूस कर रहे थे और शायद मरीया के बारे में ही सोच रहे थे। आख़िर दवीद दवीदाविच बुरल्यूक मे महाकवि पूश्किन की कविता की दो पंक्तियाँ पढ़कर उस चुप्पी को तोड़ा --
पर मैं करती हूँ किसी दूसरे को प्यार
जीवन-भर रहूँगी सदा उसकी वफ़ादार
मायकोवस्की धीमे से मुस्कुराया मानो उसे मुस्कराने के लिए भी पूरा ज़ोर लगाना पड़ रहा हो। उसके मुँह से एक शब्द भी नहीं निकला। वह कई दिन तक उदास रहा। किसिन्योफ़ से हम निकालाएफ़ गए और फिर वहाँ से कियेव। रेल से कियेव जाते हुए रास्ते में मायकोवस्की देर तक खिड़की से बाहर झाँकता रहा। अचानक वह गुनगुनाने लगा --
यह बात है ओदेस्सा की
ओदेस्सा की...
बाद में यही दोनों पंक्तियाँ उसकी उस ख़ूबसूरत लम्बी कविता में पढ़ने को मिलीं, जिसे सारी दुनिया ’पतलूनधारी बादल’ के नाम से जानती है, हालाँकि उसने पहला इसका शीर्षक ’तेरहवाँ देवदूत’ रखा था।
शुरू से ही मायकोवस्की का जीवन रेल के किसी तंग डिब्बे की तरह ही बहुत तंगहाल और घिचपिच भरा रहा। इसलिए मौक़ा मिलते ही उसने खुले और व्यापक भविष्य की ओर एक झटके में वैसे ही क़दम बढ़ाए जैसे बोतल में बन्द किसी जिन्न को अचानक ही आज़ाद कर दिया गया हो --
मैं देख रहा हूँ उसे
समय के पहाड़ पर चढ़ते हुए
किसी और को वह दिखाई नहीं देता
कियेव में मायकोवस्की पूरी तरह से अपनी नई लम्बी कविता की रचना में डूबा हुआ था। वह उस कविता को ’किसी रॉकेट-क्रूजर की तरह’ गतिवान, आलीशान और इतना सफल बना देना चाहता था कि दुनिया दाँतों तले उँगली दबा ले और उसे हमेशा याद रखे।
***
लगातार होने वाली गुत्थम-गुत्था और लड़ाई-झगड़ों से थोड़ा थके हुए दिखाई दे रहे बीस वर्षीय मायकोवस्की ने हम लोगों के सामने प्रस्ताव रखा -- चलो दोस्तो ! तिफ़लिस चलते हैं। वह मेरा शहर है। शायद दुनिया का अकेला ऐसा शहर, जहा~म मेरे साथ कोई झगड़ा-फ़साद नहीं होगा। वहाँ के लोग नए कवियों को सुनना बहुत पसन्द करते हैं और बड़े मन से मेहमाननवाज़ी करते हैं। हमने उसकी बात मान ली और उसके साथ जाने के लिए तैयार हो गए।
 
मार्च 1914 के अन्त में हम तीनों दोस्त (मायकोवस्की, बुरल्यूक और मैं) तिफ़लिस के लिए रवाना हो गए और वहाँ ग्राण्ड होटल में जाकर रुके। हमें होटल के स्वागत-कक्ष में ही छोड़कर मायकोवस्की तुरन्त गायब हो गया और क़रीब आधा घण्टे बाद जब फिर से नमूदार हुआ तो उसके साथ धूप में तपकर लाल दिखाई दे रहे जार्जियाई नवयुवकों का एक पूरा झुण्ड था। ये सब उसके पुराने दोस्त थे, उन दिनों के दोस्त, जब वह कुताइस्सी में स्कूल में पढ़ता था। होटल का हमारा वह बड़ा-सा कमरा खिले हुए चेहरों और चमकती आँखों वाले बेफ़िक्र नौजवानों की चीख़ों, कहकहों और मस्तियों से भर गया। उनकी बड़ी-बड़ी बशलीकी टोपियाँ पूरे कमरे में यहाँ-वहाँ बिखरी पड़ी थीं। मायकोवस्की एक-एक करके उनसे गले मिल रहा था और अपनी रूसी परम्परा के अनुसार उन्हें चूम रहा था। वह उनसे बचपन के अन्य दोस्तों का हालचाल पूछ रहा था और बेहद ख़ुश था। बात करते-करते कभी अचानक वह जार्जियाई लिज़्गीन्का नृत्य करने लगता तो कभी ज़ोर-ज़ोर से अपनी कोई कविता पढ़ने लगता। वह हम दोनों से भी बार-बार कहता -- ज़रा अपनी वह कविता तो सुनाना इन्हें, जिसे सुनकर हॉल में बैठे श्रोता खड़े होकर तालियाँ बजाने लगे थे या जिसे सुनकर औरतें रोने लगी थीं या फिर ऐसी ही कोई और बात। संक्षेप में कहूँ तो हमें यह लग रहा था कि मायकोवस्की वास्तव में अपने घर, अपने देस पहुँच गया है, अपने गहरे दोस्तों के बीच।
***
हॉल ठसाठस भरा था। गर्मी इतनी थी कि ऐसा लग रहा था कि मानों किसी भट्ठी में बैठे हुए हों। मायकोवस्की चौड़ी बाहों वाला ’सूर्यास्त की रश्मी-छटा’ जैसा रंग-बिरंगा कुरता पहने वहाँ भीड़ के बीच खड़ा था और लोगों को किसी मदारी की तरह तीखी व ज़ोरदार आवाज़ में नए जीवन-दर्शन, नई विचारधारा और उस नई विश्व-दृष्टि के बारे में बता रहा था जो आने वाले दिनों में न केवल कला को, बल्कि समाज और जीवन के सभी क्षेत्रों को तथा विश्व की सभी जातियों को गहराई से प्रभावित करेगी। किसी नेता की तरह जीवन के नए रूपों के निर्माण से सम्बन्धित विचारों की भारी चट्टानों को लोगों की ओर ढकेलता हुआ वह जैसे भविष्य के नीले आकाश में झाँक रहा था। और यह काम वह इतनी सहजता और आसानी के साथ कर रहा था मानों मन को भली लगने वाली शीतल बयार बह रही हो। हर दो-तीन मिनट में हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठता था।
नवयुवक होने के बावजूद नई सामाजिक व्यवस्था के बारे में मायकोवस्की के विचार काफ़ी परिपक्व और प्रौढ़ थे और उसकी कविताएँ भी गम्भीर, संजीदा तथा शिल्प और सौन्दर्य की दृष्टि से परिपूर्ण। यहाँ तिफ़लिस में बचपन के अपने दोस्तों के बीच, उनके द्वारा दिए गए गरमा-गरम समर्थन और हार्दिक स्वागत-सत्कार के बाद, मायकोवस्की जैसे पूरी तरह से खिल उठा था। उसने जैसे अपना पूरा रूप, पूरा आकार ग्रहण कर लिया था और वह हिमालय की तरह विशाल हो गया था।
मायकोवस्की और उसके दोस्तों के साथ हम दोनों जार्जिया में चारों ओर फैली पर्वतमाला के सबसे ऊँचे पहाड़ ’दवीद’  को देखने गए। दवीद की चोटी पर पहुँचकर ऐसा लगा मानों हम अन्तरिक्ष में तैर रहे हों। चारों तरफ़ पहाड़ ही पहाड़। एक नई मनोरम दुनिया हमारे सामने उपस्थित थी। इस अपार विस्तार को देखकर मायकोवस्की चहकने लगा था -- वाह भई वाह! देखो, कितना विशाल हॉल है सामने। इस ऊँचाई पर पहुँचकर तो वास्तव में पूरी दुनिया को सम्बोधित किया जा सकता है। ठीक है मियाँ दवीद, अब हमें भी ख़ुद को बदलना ही पड़ेगा और तुम्हारे जैसा ऊँचा क़द अपनाना होगा।
उस वसन्त में हमें रोज़ ही कहीं न कहीं जाना होता था। कभी किसी के घर भोजन करने जाना है तो कभी किसी कहवाघर या चायख़ाने में हमारा काव्य-पाठ है। कभी स्थानीय बाज़ार में घूमने जाना है तो कभी किसी पार्क में कोई सभा। तिफ़लिस के दुकानदार अपनी दुकानों में हमें बैठाकर हमसे अपनी कविताएँ सुनाने का अनुरोध करते। मयख़ानों में हमें कविताएँ सुनाने के लिए बुलाया जाता। निश्चय ही हमें यह सब बहुत अच्छा लग रहा था और हम यहाँ आकर बहुत ख़ुश हुए थे।
अक्सर ऐसा होता था कि हम सड़क पर चले जा रहे हैं और सामने से कोई नौजवान या नवयुवती आ रही है। मायकोवस्की उसे रोक लेता और पूछता था -- कहाँ जा रहे हो? अरे, वहाँ क्या करोगे? चलो छोड़ो, वहाँ क्या जाना। हमारे साथ चलो। वापिस लौट चलो। हम वहाँ पर कविता पढ़ेंगे। तुम भी पढ़ना या फिर हमारी कविता ही सुनना। और लोग उसका यह अनुरोध मान लेते थे और हमारे साथ ही घूमने लगते थे। जार्जियाई भाषा मायकोवस्की के लिए मातृभाषा रूसी की तरह ही अपनी थी। वह एकदम जार्जियाइयों की तरह जार्जियाई भाषा बोलता था। इसलिए जब-जब हम उसे जार्जियाई बोलते देखते, हमारी गर्दनें गर्व से तन जातीं।
***
 
तिफ़लिस की अनेक सभाओं और गोष्ठियों में काव्य-पाठ करने के बाद हम कुताइस्सी पहुँचे। कुताइस्सी -- जहाँ मायकोवस्की ने अपने परिवार के साथ अपना बचपन गुज़ारा था। जहाँ उसके पिता वन-संरक्षक के पद पर कार्यरत थे। जहाँ मायकोवस्की ने स्कूली-शिक्षा पाई थी। यहीं वह 1905 की पहली रूसी क्रान्ति के बाद जार्जियाई क्रान्तिकारियों के सम्पर्क में आया था। यहीं 1906 में उसके पिता का देहान्त हुआ था और इसके तुरन्त बाद यहीं से वह मास्को गया था।
अब मायकोवस्की कुताइस्सी की गलियों में घूम रहा था। अपने बचपन के दोस्तों से मिल रहा था। उन्हें अपनी बाहों में लपेट रहा था और चूम रहा था। अपने बचपन के खेलों, हरकतों और शैतानियों को याद कर रहा था। वह ख़ुद भी हँस रहा था और हमें भी हँसा रहा था। हम उसके साथ उसका स्कूल देखने गए। बच्चों ने स्कूल की खिड़कियों से सफ़ेद रुमाल हिलाकर हमारा स्वागत किया। स्कूल से लौटते हुए उसने देखा कि सामने से एक गधा चला आ रहा है। उसे देखकर वह एकदम ख़ुश हो गया और किलकारियाँ मारने लगा। हमसे बोला -- अगर मैं पहले जैसा बच्चा होता तो इस गधे पर चढ़े बिना नहीं मानता और दूर तक इसकी सवारी करता। लेकिन अब तो मेरा शरीर पहाड़ जैसा है। अगर मैं इस पर चढ़ भी गया तो पहली बात तो यह है कि यह गधा ही दिखाई नहिं देगा, दूसरे मेरे पैर भी ज़मीन पर घिसटेंगे।
मायकोवस्की के दोस्तों ने उसके कुताइस्सी-आगमन की ख़ुशी में एक बड़ी-सी पार्टी दी। जार्जियाई परम्परा के अनुसार उन्होंने मेहमानों का स्वागत करते हुए भेड़ के सींगों को खोखला करके बनाए गए विशेष तरह के ’रोक’ नामक गिलासों को भर-भरकर बेतहाशा शराब पी, जार्जियाई लोकगीत गाए, कविताएँ पढ़ीं, भाषण दिए, स्थानीय लोकनृत्य किए और आसमान में गोलियाँ छोड़ीं। जब मास्को लौटने का समय आया तो वे लोग हमें छोड़ ही नहीं रहे थे। बड़ी मुश्किल से हज़ार बहाने बनाकर हमने लौटने की इजाज़त पाई। आख़िर किसी तरह लौटकर हम तीनों बुद्धू घर को आए यानी मास्को पहुँचे।
***
 
उन दिनों हम लोग यह महसूस करने लगे थे कि देश में चल रही वर्तमान शासन-व्यवस्था अब कुछ ही दिन की मेहमान रह गई है। मायकोवस्की कहा करता -- जल्दी ही मज़दूर-क्रान्ति होगी और तब मैं अपने जल्वे दिखाऊँगा। हम सब एक ही आग में जल रहे थे। इसलिए उसकी इस तरह की बातें सुनकर हमें आश्चर्य नहीं होता था। प्रथम विश्व-युद्ध के उन कठिन फ़ौजी-राष्ट्रभक्तिपूर्ण दिनों में, जब अपना सब कुछ ’ज़ार व मातृभूमि की सेवा में’ समर्पित करने की बात की जा रही थी, मायकोवस्की हर समय बड़े गर्व के साथ अपनी ये पँक्तियाँ सुनाता घूमता था --
पहाड़ों के उस पार से
वह समय आता मैं देख रहा हूँ
जिसे फिलहाल कोई और देख नहीं पाता
किसी की नज़र वहाँ तक नहीं जाती
भूखे-नंगे लोगों की भीड़ लिए
आएगा सन् सोलह का साल
क्रान्ति का काँटों भरा ताज लिए
ये पँक्तियाँ उसकी उस नई लम्बी कविता ’तेरहवाँ देवदूत’ (’पतलूनधारी बादल’) का ही एक अंश थीं, जिस पर वह उन दिनों दुगने-तिगुने उत्साह के साथ काम कर रहा था।
मक्सीम गोर्की उन दिनों विदेश से लौटे थे। वे पहले ऐसे बड़े लेखक थे, जिन्होंने तब हमारा खुलकर समर्थन किया था। एक पत्रिका में उन्होंने लिखा था --
"रूसी भविष्यवाद जैसी कोई चीज़ नहिं है। सिर्फ़ चार कवि हैं -- ईगर सिविरयानिन, मायकोवस्की, बुरल्यूक और वसीली कामिनस्की। इनके बीच निस्सन्देह ऐसे प्रतिभाशाली कवि भी हैं, जो आगे चलकर बहुत बड़े कवि बन जाएँगे। आलोचक इन्हें फटकारते हैं जबकि वास्तव में ऐसा करना ग़लत है। इन्हें फटकारना नहीं चाहिए बल्कि इनके प्रति आत्मीयता दिखानी चाहिए। हालाँकि मैं समझता हूँ कि आलोचकों की इस फटकार में भी इनके भले और अच्छाई की इच्छा ही छिपी है। ये युवा हैं पर गतिहीन नहीं हैं। वे नवीनता चाहते हैं। एक नया शब्द। और निस्सन्देह यह एक उपलब्धि है।
उपलब्धि इस अर्थ में है कि कला को जनता तक पहुँचाना ज़रूरी है। आम आदमी तक, भीड़ तक, और ये लोग यह काम कर रहे हैं, हालाँकि काम करने का इनका तरीका बहुत भद्‍दा है, लेकिन उनकी इस कमी को नज़र‍अन्दाज़ किया जा सकता है।
हंगामे-भरे गीत गाने वाले ये गायक, जो पता नहीं ख़ुद को भविष्यवादी कहना क्यों पसन्द करते हैं, अपना छोटा-सा या बहुत बड़ा काम कर जाएँगे, जिससे एक दिन सारे रास्ते खुल जाएँगे। चुप रहने से तो बेहतर है कि शोर हो, हंगामा हो, चीख़ें हों, ग़ालियाँ हों और हो जोश-ख़रोश-उन्माद।
अभी यह कहना बहुत कठिन है कि आगे चलकर ये लोग किस रूप में ढलेंगे, लेकिन मन कहता है कि ये नई तरह के युवक होंगे, नई तरह की ताज़ा आवाज़ें। हमें इनका बेहद इन्तज़ार है और हम ये आवाज़ें सुनना चाहते हैं। इन्हें ख़ुद जीवन ने पैदा किया है, हमारी वर्तमान परिस्थितियों ने। ये कोई गिरा दिया गया गर्भ नहीं हैं, बल्कि ये तो वे बच्चे हैं जिन्होंने ठीक समय पर जन्म लिया है।
मैंने हाल ही में उन्हें पहली बार देखा। एकदम जीवन्त और वास्तविक। और मेरा ख़याल है कि वे उतने भयानक भी नहीं हैं, जैसाकि वे ख़ुद को दिखाते हैं या जैसा उन्हें आलोचक प्रस्तुत करते हैं। उदाहरण के लिए मायकोवस्की को ही लें। वह एकदम नवयुवक है, केवल बीस वर्ष का। वह चीख़ता-चिल्लाता है, उद्दण्ड है, लेकिन निस्सन्देह उसके भीतर, कहीं गहराई में, प्रतिभा छिपी हुई है। उसे मेहनत करनी होगी, सीखना होगा और फिर वह वास्तव में बहुत अच्छी कविताएँ लिखेगा। मैंने उसका कविता-संग्रह पढ़ा है और उसकी कुछ कविताओं ने मुझे बेहद प्रभावित भी किया है। वे वास्तव में सच्चे मन से लिखी गई कविताएँ हैं।" 
***
 
उन दिनों हमें लगातार जगह-जगह कविता पढ़ने के लिए बुलाया जाता था और हम सबके बीच मायकोवस्की ऐसा लगता था मानो युद्ध के मैदान में तमाम फ़ौजी गाड़ियों के बीच कोई टैंक धड़धड़ाता हुआ तेज़ी से आगे बढ़ रहा हो। वह गरजने लगा था। उसे देखकर आश्चर्य होता था। सभी कवियों में वह अकेला ऐसा कवि था जिसने सबसे पहले युद्ध के विरुद्ध आवाज़ उठाई। इससे उन देशभक्त लेखकों के बीच रोष की लहर दौड़ गई जो दुश्मन पर रूस की विजय को देखने को लालायितथे। लेकिन मायकोवस्की सब बाधाओं को धकेलता हुआ टैंक की तरह आगे बढ़ रहा था।
एक बार बरीस प्रोनिन के बोहिमियाई तहख़ाने में बने ’आवारा कुत्ता’ क्लब में, जहाँ हम जैसे बहुत से लेखक-कलाकार अक्सर इकट्ठे होते थे, मायकोवस्की ने बड़े कठोर शब्दों में युद्ध का विरोध किया और अपनी कविता पढ़ी --
औरतों और पकवानों के प्रेमियों
तुम्हारे लिए
क्या तुम्हारे सुख को बनाए रखने के लिए
हम अपनी जानें गवाँ दें?
इससे तो अच्छा यह होगा कि मैं
किसी शराबख़ाने में रण्डियों को देने लगूँ
अनानास की शराब ’आबे-हयात’
बड़ा भारी झगड़ा खड़ा हो गया। वहाँ उपस्थित एक विशिष्ट सरकारी मेहमान ने मायकोवस्की पर बोतलें फेंकनी शुरू कर दीं। यह तो अच्छा हुआ कि एक भी बोतल उसे नहीं लगी। तभी हम सब उस मेहमान पर टूट पड़े और उसे वहाँ से निकाल बाहर किया। हमने मायकोवस्की से वैसी ही और कविताएँ पढ़ने को कहा और वह हम लोगों की सुरक्षा में कविताएँ पढ़ने लगा --
यह क्या माँ?
सफ़ेद पड़ गई हो तुम, बिल्कुल सफ़ेद
जैसे देख रही हो तुम सामने ताबूत
छोड़ो इसे, भूल जाओ
भूल जाओ, माँ, तुम उस तार को
मौत की ख़बर लाया है जो
ओह, बन्द करो
बन्द कर दो आँखें अख़बारों की !
’पतलूनधारी बादल’ का पाठ वहाँ इतना सफल रहा कि उस दिन से मायकोवस्की को प्रतिभाशाली और दक्ष कवि माना जाने लगा। यहाँ तक कि उसके शत्रु भी उसकी इन ऊँचाइयों को बड़े विस्मय और आतंक के साथ देखते थे। और स्वयं कवि इतने शानदार ढंग से यह कविता पढ़ता था मानो वह सारी मानवजाति का प्रतिनिधि हो। उस तरह से कविता का पाठ हमारी दुनिया में शायद ही कभी कोई कर पाएगा। काव्य-पाठ करने का वह ढंग कवि मायकोवस्की के साथ ही हमेशा के लिए काल के गाल में समा गया। मेरा विश्वास है कि उसकी इस कविता का वैसा ही पाठ करना किसी अन्य व्यक्ति के लिए मुमकिन नहीं है क्योंकि इसके लिए ख़ुद मायकोवस्की होना ज़रूरी है। वह ख़ुद भी यह बात कहता था --देख लेना, जब मैं मर जाऊँगा, कोई भी एकदम मेरी ही तरह यह कविता नहीं पढ़ पाएगा।
हमारी दोस्ती के बीस वर्ष के काल में मैंने हज़ारों बार मायकोवस्की को कविता पढ़ते हुए सुना था और हर बार मुझे ऐसा अप्रतिम सुख मिलता था, ऐसा नशा-सा चढ़ जाता था, जिसका वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता। उसके दैत्यनुमा वज़नी शब्दों में जैसे कोई विराट आत्मा-सी प्रविष्ट हो जाती थी। जब पहली बार मैंने उसकी ’पतलूनधारी बादल’ कविता का पूरा पाठ सुना, तब उसकी उम्र केवल बाईस वर्ष की थी। मैं उसकी तरफ़ बेहद अचरज से देख रहा था मानो दुनिया का आठवाँ आश्चर्य देख रहा हूँ। मैं उसको सुन रहा था और सोच रहा था -- क्या यह वही किशोर है, जिससे मैं चार वर्ष पहले मिला था। मुझे इस जादू पर विश्वास नहीं हो रहा था। लेकिन यथार्थ यही था। द्रुतगति के साथ हुए कवि के इस विकास को समझ पाना बेहद कठिन था। मेरे लिए तो और भी कठिन क्योंकि मैं दिन-रात उसके साथ, उसके आसपास ही रहता था। अब बाईस वर्षीय मायकोवस्की वह पुराना किशोर कवि नहीं, बल्कि एक वयस्क सुविज्ञ पुरुष था, जो महत्त्वपूर्ण और ठोस कामों में निमग्न था।
***
फ़रवरी-क्रान्ति के बाद मायकोवस्की ने बुरल्यूक को मेरे साथ लगा दिया था ताकि हम लोग अस्थाई बुर्जुआ सरकार का विरोध करते हुए सर्वहारा क्रान्ति के पक्ष में प्रचार के काम को तेज़ गति दे सकें। हम लोगों ने दिन-रात प्रचार शुरू कर दिया। एक राजनीतिक वक्ता के रूप में भी मायकोवस्की को सुनना मेरे लिए आश्चर्यजनक ही था। इस क्षेत्र में भी उसकी प्रतिभा नई ऊँचाइयों को छू रही थी। उसने सभी कलाकारों से आह्वान किया कि वे सर्वहारा क्रान्ति के नायक मज़दूर-वर्ग को अपनी कला का विष्य बनाएँ। मायकोवस्की के स्वरों में 1908 का (तब वह कम्युनिस्ट पार्टी का सदस्य था) वह बोल्शेविक फिर से बोलने लगा था। उसने जनता से अपील की --
आप सब
अपनी-अपनी मशीनों पर पहुँचें
अपने-अपने दफ़्तरों में
अपनी-अपनी खदानों में पहुँचें, भाइयो
इस धरती पर हम सभी
सैनिक हैं
नए जीवन को रचने वाली
एक ही फ़ौज के
अब उस पुराने विद्रोही मायकोवस्की को पहचानना मुश्किल था, जो भविष्यवादी आन्दोलन का प्रवक्ता था और पीली कमीज़ में घूमा करता था। अब वह बालिग़ हो गया था, सामान्य कपड़े पहनता था, सिर्फ़ राजनीतिक घटनाओं के बारे में बातचीत करता था और ख़ुद को बोल्शेविक कहता था। फ़रवरी-क्रान्ति के बाद के उस दौर में हम लगभग रोज़ ही क्रान्ति-समर्थक कवियों के रूप में विभिन्न सभाओं में कविताएँ पढ़ने जाया करते थे और हर सभा में मायकोवस्की यह घोषणा किया करता था -- दोस्तो, बहुत जल्दी ही सर्वहारा-क्रान्ति होने वाली है। तब यह बुर्जुआ सरकार ख़त्म हो जाएगी।
***
 
सोवियत सत्ता की स्थापना के प्रारम्भिक दिनों में, जब सड़कों पर लोग झुण्ड बना-बनाकर खड़े रहते थे, हम बड़ी शान के साथ काफ़ी-हाउस में पहुँचते थे। वहाँ रोज़ ही लेखक-कलाकार इकट्ठे होते थे। कुछ लोगों को सुख तथा कुछ लोगों को पीड़ा पहुँचाते हुए हम काफ़ी-हाउस के बीचोंबीच बने मंच पर खड़े होकर सहर्ष यह घोषणा करते कि हम रूस के मज़दूर-वर्ग की जीत का स्वागत करते हैं। भविष्यवादियों ने सबसे पहले सोवियत सत्ता का स्वागत किया था, इस वजह से बहुत से लोग हमसे छिटक कर दूर हो गए थे। ये छिटके हुए लोग हमें घृणा की दृष्टि से देखते थे और हम जैसे ’जंगली-पाग़लों’ की गतिविधियों से आतंकित थे। वे हमारी तरफ़ ऐसे देखते थे मानो इस धरती पर हमारा जीवनकाल अब सिर्फ़ दो सप्ताह ही और शेष रह गया है, उसके बाद बोल्शेविकों के साथ-साथ हमारा भी सफ़ाया कर दिया जाएगा।
लेकिन अक्तूबर-क्रान्ति से हमारे भीतर पैदा हुआ उत्साह बढ़ता जा रहा था। काफ़ी-हाउस में मुरालफ़, मन्देलश्ताम, अरासेफ़ और तीख़ा मीरफ़ जैसे नए बोल्शेविक लेखक दिखाई देने लगे थे। वहाँ प्रतिदिन बन्दूकधारी मज़दूर लाल-गारद के सिपाही भी नज़र आते। कभी-कभी तो ऐसा होता कि कोई कवि अभी काफ़ी-हाउस के मंच पर खड़ा कविता पढ़ ही रहा होता कि लाल-गारद का एक दस्ता भीतर घुस आता और वहा~म उपस्थित लोगों के पहचान-पत्रों की जाँच शुरू कर देता। जब जाँच पूरी हो जाती तो हम अपनी काव्य-सन्ध्या को आगे बढ़ाते। लाल-गारद के सदस्य भी वहिं खड़े रहकर हमारी कविताएँ सुनते। मायकोवस्की प्रतिदिन वहा~म अपनी कविताएँ पढ़ता था और मज़दूर-वर्ग की जीत का जश्न मनाता था। वह जैसे क्रान्ति की आग में जल रहा था। उसके हर शब्द में बुर्जुआ-वर्ग के लिए गुस्सा भरा होता था। वह उसके सर्वनाश की कामना करता था। नई मज़दूर सत्ता का वह स्वागत करता था और हर्ष से उल्लसित होकर उसके लम्बे जीवन की कामना करता था। उत्साही और जोशीले श्रोताओं के समक्ष वह एक प्रचारक-कवि के रूप में किसी लौह-पुरुष की तरह खड़ा रहता। लोगों के मन में उसकी यही छवि बस गई थी।
अक्तूबर क्रान्ति को मायकोवस्की उस समय मिला था जब वह अपनी उम्र के स्वर्णकाल से गुज़र रहा था। वह पूरी तरह से वयस्क हो चुका था और कम्युनिज़्म की स्थापना के लिए किए जा रहे संघर्ष में हाथ बँटाने के लिए पूरे तन और मन से तैयार था। उसके सामने एक विस्तृत महान रास्ता खुल गया था और सर्वहारा वर्ग का प्रतिभाशाली प्रचारक-कवि व्लदीमिर मायकोवस्की विश्वासपूर्वक डग भरता हुआ अपने बड़े-बड़े क़दमों से उस महान् रास्ते पर आगे बढ़ रहा था।
मूल रूसी से अनुवाद : अनिल जनविजय