सोमवार, 22 मार्च 2010

येव्गेनी येव्तुशेंको

एक बड़े रूसी कवि येव्गेनी येव्तुशेंको रूस के बेहद विवादास्पद कवियों में से एक हैं। बहुत से रूसी कवि तो उन्हें सिर्फ़ इस बात पर कवि नहीं मानते क्योंकि उनकी कविताएँ एक तरह से रूस में घटने वाली घटनाओं की डायरी हैं। हिन्दी के कवि नागार्जुन की तरह वे किसी भी महत्त्वपूर्ण घटना पर तुरन्त अपनी प्रतिक्रिया दर्ज़ करते हैं और एक कविता लिख देते हैं। सबसे बड़ी बात तो यह है कि सोवियत शासन में भी, जब कवियों का दमन आम बात थी, वो सत्ता के साथ अपनी असहमती दर्ज़ करने से घबराते नहीं थे। लेकिन सरकार ने ही उन्हें नहीं छेड़ा क्योंकि वे दुनिया भर में इतने प्रसिद्ध थे कि सोवियत सरकार को ही यह डर लगा रहता था कि वह उनके विरुद्ध कार्रवाई करके कहीं दुनिया भर में विरोध की कोई मुसीबत मोल न ले ले।
येव्तुशेंको ने रूसी जीवन का बड़ा अच्छा और बड़ा सच्चा ख़ाका अपनी कविताओं में खींचा है। सन‍ 2004 में मैंने उनकी कविताओं का एक संग्रह 'मेधा बुक्स' प्रकाशन से छपवाया था, जिसका नाम था "धूप खिली थी और रिमझिम वर्षा"। यह संग्रह अब आऊट ऑफ़ प्रिंट है। आज उसी संग्रह से उनकी कुछ ऐसी कविताएँ प्रस्तुत हैं जो जीवन के हर पक्ष को चित्रित करती हैं।

1.

"औरत लोग"


मेरे जीवन में आईं हैं औरतें कितनी
गिना नहीं कभी मैंने
पर हैं वे एक ढेर जितनी

अपने लगावों का मैंने
कभी कोई हिसाब नहीं रक्खा
पर चिड़ी से लेकर हुक्म तक की बेगमों को परखा
खेलती रहीं वे खुलकर मुझसे उत्तेजना के साथ
और भला क्या रखा था
दुनिया के इस सबसे अविश्वसनीय
बादशाह के पास

समरकन्द में बोला मुझ से एक उज़्बेक-
"औरत लोग होती हैं आदमी नेक"
औरत लोगो के बारे में मैंने अब तक जो लिखी कविताएँ
एक संग्रह पूरा हो गया और वे सबको भाएँ

मैंने अब तक जो लिखा है और लिखा है जैसा
औरत लोगों ने माँ और पत्नी बन
लिख डाला सब वैसा

पुरुष हो सकता है अच्छा पिता सिर्फ़ तब
माँ जैसा कुछ होता है उसके भीतर जब
औरत लोग कोमल मन की हैं दया है उनकी आदत
मुझे बचा लेंगी वे उस सज़ा से, जो देगी मुझे
पुरुषों की दुष्ट अदालत

मेरी गुरनियाँ, मेरी टीचर, औरत लोग हैं मेरी ईश्वर
पृथ्वी लगा रही है देखो, उनकी जूतियों के चक्कर
मैं जो कवि बना हूँ आज, कवियों का यह पूरा समाज
सब उन्हीं की कृपा है
औरत लोगों ने जो कहा, कुछ भी नहीं वृथा है

सुन्दर, कोमलांगी लेखिकाएँ जब गुजरें पास से मेरे
मेरे प्राण खींच लेते हैं उनकी स्कर्टों के घेरे

2.

"पुराना दोस्त"

मुझे सपने में दिखाई देता है पुराना दोस्त
दुश्मन हो चुका है जो अब
लेकिन सपने में वह दुश्मन नहीं होता
बल्कि दोस्त वही पुराना, अपने उसी पुराने रूप में
साथ नहीं वह अब मेरे
पर आस-पास है, हर कहीं है
सिर मेरा चकराए यह देख-देख
कि मेरे हर सपने में सिर्फ़ वही है

मुझे सपने में दिखाई देता है पुराना दोस्त
चीख़ता है दीवार के पास
पश्चाताप करता है ऎसी सीढ़ियों पर खड़ा हो
जहाँ से शैतान भी गिरे तो टूट जाए पैर उसका
घृणा करता है वह बेतहाशा
मुझसे नहीं, उन लोगों से
जो कभी दुश्मन थे हमारे और बनेंगे कभी
भगवान कसम!

मुझे सपने में दिखाई देता है पुराना दोस्त
जीवन के पहले उस प्यार की तरह
फिर कभी वापिस नहीं लौटेगा जो

हमने साथ-साथ ख़तरे उठाए
साथ-साथ युद्ध किया जीवन से, जीवन भर
और अब हम दुश्मन हैं एक-दूसरे के
दो भाइयों जैसे पुराने दोस्त

मुझे सपने में दिखाई देता है पुराना दोस्त
जैसे दिखाई दे रहा हो लहराता हुआ ध्वज
युद्ध में विजयी हुए सैनिकों को
उसके बिना मैं- मैं नहीं
मेरे बिना वह- वह नहीं
और यदि हम वास्तव में दुश्मन हैं तो अब वह समय नहीं

मुझे सपने में दिखाई देता है पुराना दोस्त
मेरी ही तरह मूर्ख है वह भी
कौन सच्चा है, कौन है दोषी
मैं इस पर बात नहीं करूंगा अभी
नए दोस्तों से क्या हो सकता है भला
बेहतर होता है पुराना दुश्मन ही
हाँ, एकबारगी दुश्मन नया हो सकता है
पर दोस्त तो चाहिए मुझे पुराना ही

3.


मैंने तुम्हें बहुत समझाया
बहुत मनाया और बहलाया
बहुत देर कंधे सहलाए
पर रोती रहीं,
रोती ही रहीं तुम, हाय!

लड़ती रहीं मुझसे-
मैं तुमसे बात नहीं करना चाहती...
कहती रहीं मुझसे-
मैं तुम्हें अब प्यार नहीं करना चाहती...
और यह कहकर भागीं तुम बाहर
बाहर बारिश थी, तेज़ हवा थी
पर तुम्हारी ज़िद्द की नहीं कोई दवा थी

मैं भागा पीछे साथ तुम्हारे
खुले छोड़ सब घर के द्वारे
मैं कहता रहा-
रुक जाओ, रुक जाओ ज़रा
पर तुम्हारे मन में तब गुस्सा था बड़ा

काली छतरी खोल लगा दी
मैंने तुम्हारे सिर पर
बुझी आँखों से देखा तुमने मुझे
तब थोड़ा सिहिर कर
फिर सिहरन-सी तारी हो गई
तुम्हारे पूरे तन पर
बेहोशी-सी लदी हुई थी
ज्यों तुम्हारे मन पर
नहीं बची थी पास तुम्हारे
कोमल, नाज़ुक वह काया
ऎसा लगता था शेष बची है
सिर्फ़ उसकी हल्की-सी छाया

चारों तरफ़ शोर कर रही थीं
वर्षा की बौछारें
मानो कहती हों तू है दोषी
कर मेरी तरफ़ इशारे-
हम क्रूर हैं, हम कठोर हैं
हम हैं बेरहम
हमें इस सबकी सज़ा मिलेगी
अहम से अहम

पर सभी क्रूर हैं
सभी कठोर हैं
चाहे अपने घर की छत हो
या घर की दीवार
बड़े नगर की अपनी दुनिया
अपना है संसार
दूरदर्शन के एंटेना से फैले
मानव लाखों-हज़ार
सभी सलीब पर चढ़े हुए हैं
ईसा मसीह बनकर, यार!

4.

धूप खिली थी
और रिमझिम वर्षा
छत पर ढोलक-सी बज रही थी लगातार
सूर्य ने फैला रखी थीं बाहें अपनी
वह जीवन को आलिंगन में भर
कर रहा था प्यार

नव-अरुण की
ऊष्मा से
हिम सब पिघल गया था
जमा हुआ
जीवन सारा तब
जल में बदल गया था

वसन्त कहार बन
बहंगी लेकर
हिलता-डुलता आया ऎसे
दो बाल्टियों में
भर लाया हो
दो कम्पित सूरज जैसे

5.

बाकू के
एक प्रसूतिगृह के दरवाज़े पर
एक बूढ़ी आया ने
दंगाइयों को धमकाते हुए कहा--
हटो, पीछे हटो,
मैं हमेशा ही रला-मिला देती थी
शिशुओं के हाथों में बंधे टैग
अब यह जानना बेहद कठिन है
कि तुममें कौन है अरमेनियाई
और कौन अज़रबैजानी...

और दंगाई...
साइकिल की चेन, ईंट-पत्थरों, चाकू-छुरियों
और लोहे की छड़ों से लैस दंगाई
पीछे हट गए
पर उनमें से कुछ चीखे--छिनाल

उस बुढ़िया की
पीठ के पीछे छिपे हुए थे
डरे हुए लोग
और रिरिया रहे थे अपनी जाति से अनजान

हममें से हर एक की रगों में
रक्त का है सम्मिश्रण
हर यहूदी अरब भी है
हर अरब है यहूदी
और यदि कभी कोई भीगा किसी के रक्त में
तो मूर्खतावश, अंधा होकर
भीगा अपने ही रक्त में

एक ही प्रसूतिगृह के हैं हम
पर प्रभु ने बदल डाले हमारे टैग
हमारे जनम के कठिन दौर के पहले ही
और हमारा हर दंगा
अब ख़ुद से ही दंगा है

हे ईश्वर!
इस ख़ूनी उबाल से बचा हमें
अल्लाह, बुद्ध और ईसा के बच्चे
जिन्हें रला-मिला दिया गया था प्रसूतिगृह में ही
बिना टैग के हैं
जीवन और सौन्दर्य की तरह...

6.

हमारी माताएँ
जा रही हैं पास से हमारे
चुपचाप, दबे पाँव
वे गुज़रती जा रही है
और हम
भरपेट भोजन कर
गहन तंद्रा में पड़े हैं
हमें नहीं है कोई ख़्याल
बड़ा भयानक है यह काल

नहीं, अचानक नहीं जातीं
माँएँ हमारे पास से
एकाएक नहीं छोड़तीं वे देह
हमें लगता है सिर्फ़ ऎसा
जब अचानक
हम नहीं पाते उनका नेह

धीरे-धीरे
छिजती जाती हैं वे
धीरे-धीरे छिलती जाती है
हल्के क़दमों से बढ़ती हैं
सीढ़ियाँ उम्र की चढ़ती हैं

कभी-कभी
ऐसा होता है अचानक
बेचैन हो जाते हैं हम किसी वर्ष
मनाते हैं उनका जन्मदिन
हल्ला-गुल्ला करते हैं सहर्ष

लेकिन
यह होता है हमारा
बड़ी देर से किया गया हवन
हम बचाव नहीं कर सकते इससे
अपनी अंतरात्मा का
इससे नहीं बच पाता उनका जीवन

वे सब छोड़
चली जाती हैं
हमसे मुँह मोड़
चली जाती हैं
हम जब तक उनकी परवाह करें
गहरी तन्द्रा से जगें

हाथ हमारे उठें अचानक
ख़ुदा की दुआ में
पर जैसे वे टकराते हैं
ऊपर कहीं हवा में
पैदा हो जाती है वहाँ शीशे की दीवार
देर हो गई बहुत हमें, भाई
अब क्या करें विचार

काल भयानक निकट आ गया
महाकाल हमें भरमा गया
आँसू भरी आँखों से अब
हम देख रहे हैं सारे
कैसे चुपचाप, एक-एक कर
माँएँ स्वर्ग सिधारें

7.

मैंने दोस्त खो दिया
और आप देश की बात करते हैं
मेरा बन्धु खो गया
और आप जनता की चर्चा कर रहे हैं
मुझे नहीं चाहिए वह देश,जहाँ हर चीज़ की कीमत है
मुझे नहीं चाहिए वह जनता, जो आज़ाद होकर भी ग़ुलाम है
मेरा दोस्त खो गया, और खो गया मैं भी
हमने खो दिया वह जो देश से अधिक है
अब आसान नहीं होगा
हमें हमारी आवाज़ों से पहचानना
तो कोने में गोली एक छूटती है
तो रॉकेटों का रुदन सुनाई देता है

मैं थोड़ा-सा वह था
और वह थोड़ा-सा मैं
उसने मुझे कभी बेचा नहीं और मैंने भी उसे
देश हमेशा दोस्त नहीं होता
वह मेरा देश था
जनता बेवफ़ा दोस्त होती है
वह मेरी जनता था

मैं रूसी
वह जार्जियाई
काकेशस अब शवगृह है
लोगों के बीच बेहूदा लड़ाई जारी है
यदि दोस्त मेरा मर गया, मेरी जनता भी मर गई
यदि दोस्त मेरा मारा गया, देश भी मारा गया

अब जोड़ नहीं सकते हम
अपना टूटा हुआ वह देश
हाथ से छूट कर गिर पड़ा है जो
मृतक शरीरों के उस ढेर के बीच
दफ़ना दिया गया है जिन्हें बिना कब्र के ही

मेरा दोस्त कभी मरा नहीं
वह इसलिए दोस्त है
और दोस्त व जनता पर कभी
सलीब खड़ा नहीं किया जा सकता

1 टिप्पणी:

सुशीला पुरी ने कहा…

अद्भुत कविताएँ !!!!