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बुधवार, 21 अक्टूबर 2015



कर्नेय चुकोवस्की

कर्नेय चुकोवस्की का नाम रूस में बच्चा-बच्चा जानता है। जब से उनकी रचनाएँ पत्र-पत्रिकाओं  में छपनी शुरू हुईं, तभी से रूस की हर नई पीढ़ी के बच्चे इनकी कविताएँ और बाल-कथाएँ पढ़ते और उनका आनन्द लेते हैं। कर्नेय चुकोवस्की रूसी बाल-साहित्य के कालजयी रचनाकार माने जाते हैं। इसके अलावा उन्हें रूसी साहित्य में आलोचक के रूप में भी याद किया जाता है।



कर्नेय चुकोवस्की का जन्म 1882 में रूस के साँक्त पितेरबुर्ग नगर में हुआ था। उनकी माँ येकतिरीना असिपव्ना कर्नेयचुकवा एक उक्राइनी किसान स्त्री थी जो पितेरबुर्ग के एक यहूदी परिवार में नौकरानी थी। इस परिवार के नौजवान बेटे एम्मानुईल ने उसे अपनी रखैल बना लिया था।  जब येकतिरीना के बेटे कर्नेय का जन्म हुआ तब एम्मानुईल से ही जन्मी उसकी बड़ी बेटी तीन साल की हो चुकी थी। पुत्र के जन्म के कुछ समय बाद एम्मानुईल ने एक उच्च परिवार की लड़की से विवाह कर लिया और येकतिरीना अपने बच्चों को लेकर अदेस्सा चली गई।


यहाँ दोस्तो, हम आपको यह बताना चाहेंगे कि रूस में सभी लोगों का नाम तीन अंशों में बँटा होता है – पहला अंश उस व्यक्ति को उसके जन्म के समय दिया गया उसका अपना मूल नाम होता है। दूसरा अंश उस पैतृक नाम का होता है जो यह बताता है कि यह व्यक्ति किस पिता की संतान है और तीसरा व अन्तिम अंश व्यक्ति का कुलनाम होता है। उदाहरण के लिए-- येकतिरीना
असिपव्ना कर्नेयचुकवा में येकतिरीना कर्नेय की माँ का अपना नाम है, असिपव्ना उनका पैतृक नाम है जिसका अर्थ है कि येकतिरीना ओसिप की बेटी है। उनकी बेटी और बेटे को जो जन्म पंजीकरण प्रमाणपत्र मिले थे उनमें उनकी सन्तानों के अवैध होने के कारण पैतृक नाम की पंक्ति खाली रखी गई थी। बेटे का पहला नाम था निकलाय और कुलनाम माँ के कुलनाम पर कर्नेयचूकफ़।

लेखन की दुनिया में कदम रखते हुए निकलाय कर्नेयचूकफ़ ने अपना साहित्यिक उपनाम रख लिया-- कर्नेय चुकोवस्की। कालान्तर में इसमें काल्पनिक पैतृक नाम इवानोविच (इवान का बेटा) भी जुड़ गया। 1917 की प्रसिद्ध समाजवादी क्रान्ति के बाद सभी दस्तावेज़ों में यही उनका आधिकारिक नाम बन गया और अब सारी दुनिया उन्हें इसी नाम से जानती है। उनके बच्चों ने भी उनका यही कुलनाम ग्रहण किया। 


सदा ठण्ड से ठिठुरते पितेरबुर्ग नगर के विपरीत  काला सागर के तट पर बसे बन्दरगाह नगर अदेस्सा में जीना आसान था। किन्तु परिवार एक तो गरीब था, ऊपर से अवैध सन्तान होने का कलंक बालक निकलाय के लिए मानसिक यातना बना हुआ था। कर्नेय चुकोवस्की अपने संस्मरणों में लिखते हैं -- मुझे पिता या कम से कम दादा-नाना जैसी सम्पदा पाने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ।  इसलिए निकलाय अपने हमउम्र साथियों के साथ मुश्किल से ही दोस्ती बना पाता था। लेकिन दोस्तों की कमी पुस्तकें पूरी कर देती थीं। दिन में पार्क में बेंच पर बैठकर, और रात को सड़क के किनारे लगे बत्ती के खम्भे तले खड़े होकर निकलाय  किताबें पढ़ता रहता था। कितनी ही कविताएँ उसे कण्ठस्थ थीं। बचपन से ही उसमें अँग्रेज़ी भाषा सीखने की ललक थी। कहीं से उसे   ’ख़ुद अँग्रेज़ी सीखो’ नाम की एक किताब मिल गई और वह अँग्रेज़ी सीखने में जुट गया। 1962 में ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी में डी०लिट् की डिग्री पाते हुए चुकोवस्की ने अपने बचपन के वे दिन याद किए, जब वह ’अँग्रेज़ी के शब्दों का रट्टा लगाया करता था। उस ज़माने में सभी बच्चे यह सपना देखा करते थे कि किसी न किसी दिन वे आस्ट्रेलिया या भारत पहुँच जाएँगे।  निकलाय की माँ ने किसी तरह बेटे को एक स्कूल में  दाखिल करवा दिया था। लेकिन कुछ साल बाद ही उसे वहाँ से यह कहकर  निकाल दिया गया कि  यह स्कूल नीच क़िस्म के लोगों के लिए नहीं है।
 
रोज़ी-रोटी कमाने के लिए चुकोवस्की ने छोटी उम्र में ही काम शुरू कर दिया था। पढ़ने में दिलचस्पी थी ही, सो उन्होंने अख़बारों में भी काम ढूँढ़ा और धीरे-धीरे पत्रकारिता में अपने पाँव जमा लिए। रिपोर्ताज लिखना, लोगों से इण्टरव्यू लेना, लेख लिखना – यह सब उनका काम था। 1901 में चुकोवस्की ‘अदेस्स्कीये नोवस्ती’ अर्थात अदेस्सा समाचार नामक अख़बार में काम करने लगे। यहाँ वे अँग्रेज़ी जानने वाले एकमात्र व्यक्ति थे, सो 1903 में अख़बार ने उन्हें लन्दन में अपना सम्वाददाता बनाने का प्रस्ताव रखा, जो चुकोवस्की ने स्वीकार कर लिया। प्रकाशक ने उन्हें सौ रूबल महीने की बढ़िया तनख्वाह देने का वायदा किया था। अपनी नवविवाहित पत्नी को भी वे अपने साथ लन्दन ले गए। लन्दन से भेजे उनके लेख अदेस्सा और कियेव के कुछ अख़बारों में छपते थे। लेकिन रूस से उन्हें अपना वेतन अनियमित रूप से मिलता था और जल्दी ही उन्हें वेतन मिलना बिलकुल ही बन्द हो गया। गर्भवती पत्नी को उन्हें वापिस अदेस्सा भेजना पड़ा। वे ख़ुद कुछ समय तक ब्रिटिश म्यूज़ियम में कैटलागों की नकल करके अपना गुज़ारा चलाते रहे, इसके साथ ही मौक़े का पूरा फ़ायदा उठाते हुए और अँग्रेज़ी साहित्य पढ़ते हुए वे कुछ न कुछ लिखते भी रहे। दोपहर में वे खाना खाने नहीं जाते थे क्योंकि उनके पास इतने  पैसे ही नहीं होते थे कि वे दो समय नियमित रूप से भोजन कर सकें। 1904 में जब रूस से उन्हें लेखक अन्तोन चेख़फ़ की मृत्यु का समाचार मिला तो वे सारी रात बिलख-बिलख कर रोते रहे।

लन्दन में चुकोवस्की ने अपनी अँग्रेज़ी सुधारी और ब्रिटेन के जाने-माने लेखकों से मुलाक़ात की, जिनमें जासूस शर्लक होम्स के सर्जक आर्थर कॉनन डॉयल तथा सुविख्यात विज्ञान-कथा लेखक हर्बर्ट वेल्स भी थे। 1904 में स्वदेश लौटकर चुकोवस्की रूस की तत्कालीन राजधानी साँक्त पितेरबुर्ग में रहने लगे। अब वे अँग्रेज़ी से अनुवाद करने लगे थे। अमरीकी कवि वाल्ट व्हिटमैन की कविताओं के उनके द्वारा किए गए अनुवाद रूस में बेहद लोकप्रिय हुए। पितेरबुर्ग की पत्र-पत्रिकाओं में उनके लेख भी छपने लगे। साहित्य जगत में उन्हें एक गम्भीर समीक्षक और आलोचक के रूप में मान्यता मिली। और धीरे-धीरे  उनका परिचय उस समय के सभी प्रसिद्ध रूसी लेखकों-कवियों और कलाकारों से हो गया। बाद में उन्होंने अपने संस्मरणों में उनका बड़ा सजीव चित्रण किया।

उन दिनों कोई सोच भी नहीं सकता था कि चुकोवस्की बच्चों के लिए लिखने वाले एक प्रसिद्ध लेखक बन जाएँगे।  1908 में उन्होंने  अपने समसामयिक लेखकों के बारे में एक लेख-माला लिखी। चुकोवस्की ने अपने संस्मरणों में उस समय का ज़िक्र करते हुए लिखा -- यदि कोई मुझसे तब कहता कि मेरा नाम बच्चों के लिए लिखने वाले लेखकों में गिना जाएगा तो मैं इसे शायद अपना अपमान समझता क्योंकि नन्हे बच्चों के लिए पुस्तकें ज़्यादातर ऐसे लोग लिखते थे जो चालू काम करना ही जानते थे, और जिनमें किसी तरह की कोई प्रतिभा नहीं होती थी।
प्रथम विश्वयुद्ध के दिनों में चुकोवस्की ने ब्रिटेन, फ़्राँस और बेल्जियम में एक रूसी अख़बार के सम्वाददाता के रूप में काम किया। 1917 में स्वदेश लौटने पर मक्सीम गोर्की के कहने पर उन्होंने ‘पारुस’  यानी ’बादबान’ नामक प्रकाशनगृह में बाल-साहित्य विभाग का कार्यभार संभाल लिया। उन्हीं दिनों वे इस बात पर भी ध्यान देने लगे कि नन्हे बच्चे किस तरह अपनी मातृभाषा के नए-नए शब्दों को अपनाते हैं और उनका अपने ढंग से उपयोग करते हैं। इन उपयोगों को वे अपने पास लिख कर रखने लगे और फिर यह काम उन्होंने सारी उम्र जारी रखा। उनके इन नोटों से ही बनी  है उनकी एक सबसे लोकप्रिय किताब -- ’दो से पांच तक’। इस किताब के अभी तक कुल के 21 संस्करण निकल चुके हैं।
 
कर्नेय चुकोवस्की ने जब बच्चों के लिए कविताएँ और कहानियाँ लिखनी शुरू कीं तब तक वे एक मशहूर  आलोचक बन चुके थे।  लेकिन उनके द्वारा लिखा गया बाल साहित्य बच्चों और उनके माता-पिताओं के बीच इतना ज़्यादा लोकप्रिय हुआ कि उन्हें ’बच्चों के प्रिय लेखक’ के रूप में मान्यता मिल गई। आइए, हम आपको बताएँ कि वे आखिर बाल-लेखक बने कैसे? एक बार चुकोवस्की को बच्चों के लिए एक कथा-संग्रह तैयार करने का काम सौंपा गया। यों तो यह काम मात्र सम्पादकीय काम था, पर इसी की बदौलत एक नए लेखक का जन्म हुआ। इस संग्रह के लिए उन्होंने कुछ बालकथाएँ लिखीं, जिन्हें पाठकों और समीक्षकों ने ख़ूब सराहा। फिर मक्सीम गोर्की ने जब बाल-साहित्य का एक और संकलन छापने का फैसला किया तो उन्होंने चुकोवस्की से अनुरोध किया कि वे उस संकलन के लिए भी कोई बाल-कविता लिख दें। चुकोवस्की बहुत असमंजस में पड़ गए। वे यह सोचकर परेशान थे कि वे ऐसा नहीं कर पाएँगे। इससे पहले उन्होंंने कभी कोई कविता नहीं लिखी थी। लेकिन एक संयोग ऐसा बना कि उनकी यह कठिनाई दूर हो गई।
अपने बीमार नन्हें बेटे के साथ वह ट्रेन में पितेरबुर्ग वापिस लौट रहे थे। कि  रेल की छुकछुक की ताल पर वह बेटे को एक कहानी बनाकर सुनाने लगे -- मगरमच्छ एक, था बड़ा नेक, चिड़ियाघर में था बन्द, और हो गया था तंग, एक दिन आया ऐसा, वो भागा चिड़ियाघर से...। उनका बेटा बड़े ध्यान से उनकी यह कहानी सुन रहा था। फिर कई दिन बीत गए। चुकोवस्की  यह भूल गए थे कि उन्होंने अपने  बच्चे को कोई कहानी सुनाई थी। पर बेटे को वह कहानी ज़ुबानी याद हो गई थी। इस तरह बनी कर्नेई चुकोवस्की की पहली बाल काव्य-कथा -- मगरमच्छ।  1917 में यह रचना प्रकाशित हुई और तुरन्त ही चुकोवस्की बच्चों के चहेते लेखक बन गए।

चुकोवस्की की कविताएँ एकदम जीवन्त होती हैं। एकदम जीती-जागती। उनमें अपनी ख़ासियत, अपना  अनूठापन होती है। उनकी कविता में तुक बड़ी आसानी से मिलती है, और ताल भी कहीं डगमगाती नहीं। इसीलिए वह बच्चों को तुरन्त ही याद हो जाती है। ’मगरमच्छ’ के बाद उनकी नई-नई कविताएँ छपने लगीं। 1924 में उन्होंने ’एक पेड़ न्यारा’ नामक कविता लिखी। यह कविता उन्होंने  अपनी उस बिटिया को समर्पित की थी जिसे उसके बचपन में ही तपेदिक के कारण मौत लील गई थी।
चुकोवस्की बच्चों के लिए विश्व साहित्य की सर्वश्रेष्ठ रचनाओं का अनुवाद भी करने लगे। उस ज़माने के सबसे अच्छे चित्रकार उनकी पुस्तकों के लिए चित्र बनाते थे, इसलिए उनकी रचनाएँ  और भी अधिक आकर्षक लगती थीं। मास्को से थोड़ी दूर एक छोटी देहाती बस्ती में चुकोवस्की ने अपना मकान बना लिया। द्वितीय विश्वयुद्ध में के बाद इस मकान में वे अक्सर अनाथ हो गए बच्चों के लिए उत्सवों का आयोजन करते थे। वे जानते थे कि बच्चों को ख़ुश रखना कितना ज़रूरी है। उनके इन उत्सवों में कभी-कभी तो डेढ़ हज़ार तक बच्चे भाग लेते थे।

1969 में चुकोवस्की का देहान्त हो गया। जिस मकान में वे रहते थे, उसे संग्रहालय बना दिया गया। आज भी यहाँ बच्चों-बड़ों का ताँता लगा रहता है। जैसा कि हमने शुरू में बताया -- चुकोवस्की को रूस का बच्चा-बच्चा जानता है। किण्डरगार्टन या स्कूल में बच्चों का कोई भी समारोह ऐसा नहीं होता, जिसमें चुकोवस्की की कविताएँ न पढ़ी जाती हों।
लीजिए, आपके लिए प्रस्तुत हैं उनकी कुछ कविताएँ।

मुर्गी

मुर्गी पाली प्यारी-प्यारी,
थी वह मुर्गी बिलकुल न्यारी ।
कपड़े सीती, खाना पकाती,

बढ़िया-बढ़िया केक बनाती।
काम-काज निबटा के सारे,
बैठ जाती वह घर के द्वारे ।

नया-नया फिर गाना गाती,
मज़ेदार कहानी सुनाती ।


मेंढकी और बगुला

मेंढकी को हुआ बुखार
हाय, इतना तेज़ बुखार !
बगुला झट से उड़ आया,
बोला: दवा मैं तेरी लाया ।
मुझसे बिलकुल न डर,
सबसे बड़ा मैं डाक्टर ।
आ, आजा मेरे पास,
दवा दूँगा तुझे मैं ख़ास ।
मेंढकी पास आ गई,
और अपनी जान गवाँ गई ।

एक पेड़ न्यारा

आँगन हमारा
सबसे न्यारा,
उगता इसमें पेड़
देता नहीं वह बेर,
न कोई फूल,
न कोई पत्ता,
जूतियों से है लदा ।
चप्पलें उस पर उगतीं,
उगते सेण्डल, उगते बूट ।
माँ बगीचे से आई,
रंग-बिरंगे सेण्डल लाई,
लाली के लिए लाल,
रानो के लिए पीले
मुनिया नन्ही तू भी ले
ऊनी जूतियाँ गरम
मुन्ने राजा के लिए
लाए पापा जूते नरम
जुराबें भी साथ में गरम ।
देता है यह सब पेड़ हमारा !
ऐसा है वह न्यारा-न्यारा !
अरे, क्यों यों घूमते हो,
फटे जूते, नंगे पाँव ?
देखो ज़रा, लदा है पेड़
पक गई जूतियाँ,
आई चप्पलों की बहार,
सैण्डलों की है भरमार !
अरे, ले लो जूतियाँ,
चप्पलें ले लो,
दे रहा है -
हमारा पेड़ न्यारा |

मंगलवार, 29 सितंबर 2015

बरीस पस्तेरनाक की कविताएँ

 अनुवाद: वरयाम सिंह

बोरीस पस्तेर्नाक की कविताएँ
1.

हर चीज़ के भीतर एक

हर चीज़ के भीतर तक
पहुँचना चाहता हूँ मैं ।
पहुँचना चाहता हूँ उनके सारतत्‍व तक
काम में, राहों की खोज में
हृदय की उथल-पुथल में ।

पहुँचना चाहता हूँ
बीते दिनों की सच्‍चाई तक,
उनके कारण और मूल तक,
उनके आधार और मर्म तक ।

नियति ओर घटनाओं का
हर समय में पकड़े रखना चाहता हूँ सूत्र,
चाहता हूँ जीना, सोचना, अनुभव करना, प्रेम करना,
उद्घाटित करना नये-नये सत्‍यों को ।

काश संभव होता
भले ही अंशत:
भावावेग के गुणों पर
मात्र आठ पंक्तियों में ।

लिखना अराजकता, पाप, पलायन
और आखेट के बारे में,
आकस्मिक घटनाओं, अचंभों,
कुहनियों और हथेलियों के स्‍पर्श के बारे में ।

मैं ढूँढ़ निकालता उनके नियम
और उनका उद्गम
और अुहराता रहता
उनके नामों के प्रथम अक्षर ।

उद्यान की तरह मैं सजाता कविताएँ,
धमनियों के समस्‍त कंपन के साथ
उनके खिलते रहते मेपल लगातार
एक साथ, जी भरकर ।

कविताओं में लाता गुलाबों के महक
और पुदीने का सत्‍त,
लाता चरागाहें, वलीक घास
और ठहाके गरजते बादलों के ।

इसी तरह शोपां
अपनी रचना में
समेट लाये थे पार्क, उपवन और
समाधियों के आश्‍चर्य।

अर्जित गरिमा की यातना
और खुशी
तनी हुई प्रत्‍यंचा
सधे हुए धनुष की ।

 2.
मेरी ज़िन्दगी बहन

मेरी ज़िन्‍दगी बहन ने आज की बाढ़
और बहार की इस बारिश में
ठोकरें खाई हैं हर चीज़ से
लेकिन सजे-धजे दंभी लोग
बड़बड़ा रहे हैं ज़ोर-ज़ोर से
और डस रहे हैं एक विनम्रता के साथ
जई के खेतों में साँप ।

बड़ों के पास अपने होते हैं तर्क
हमारी तर्क होते हैं उनके लिए हास्‍यास्‍पद
बारिश में बैंगनी आभा लिए होती हैं आँखें
क्षितिज से आती है महक भीगी सुरभिरूपा की ।

मई के महीने में जब गाड़ियों की समय सारणी
पढ़ते हैं हम कामीशिन रेलवे स्‍टशेन से गुजरते हुए
यह समय सारणी होती है विराट
पावन ग्रंथों से भी कहीं अधिक विराट
भले ही बार-बार पढ़ना पड़ता है उसे आरम्भ से ।

ज्‍यों ही सूर्यास्‍त की किरणें
आलोकित करने लगती हैं गाँव की स्त्रियों को
पटड़ियों से सट कर खड़ी होती हैं वे
और तब लगता है यह कोई छोटा स्‍टेशन तो नहीं
और डूबता हुआ सूरज सांत्‍वना देने लगता है मुझे ।

तीसरी घंटी बजते ही उसके स्‍वर
कहते हैं क्षमायाचना करते हुए :
खेद है, यह वह जगह है नहीं,
पर्दे के पीछे से झुलसती रात के आते हैं झोंके
तारों की ओर उठते पायदानों से
अपनी जगह आ बैठते हैं निर्जन स्‍तेपी ।

झपकी लेते, आँखें मींचते मीठी नींद सो रहे हैं लोग,
मृगतृष्‍णा की तरह लेटी होती है प्रेमिका,
रेल के डिब्‍बों के किवाड़ों की तरह इस क्षण
धड़कता है हृदय स्‍तैपी से गुजरते हुए ।
 3.
काश मैं जानता
काश मैं जानता ऐसा ही होता है
जब मैंने लिखना शुरू किया था
कि खून सनी पंक्तियाँ मार डालती हैं
गर्दनियाँ देकर ।

सच्‍चाई के साथ मज़ाक करते हुए इस तरह
मैंने इनकार किया होता साफ-साफ।
आरंभ तो अभी दूर था
और पहला शौक इतना भीरूतापूर्ण ।

पर बुढ़ापा होता है एक तरह का रोग
जो आडम्‍बरों से भरे अभिनय के बदले
अभिनेता से संवाद की नहीं
मृत्‍यु की माँग करता है गंभीरता से ।

जब पंक्तियों को लिखवाती हैं कविताएँ
मंच पर भेज देती हैं गुलाम को,
और यहाँ समाप्‍त हो जाती है कला
और साँस लेती है मिट्टी और नियति ।
 4.
अलग होना

चौखट पर से देखता है आदमी
पहचान नहीं पाता घर को
उस स्‍त्री का जाना जैसे गायब हो जाना था
सब जगह बर्बादी के निशान छोड़ कर ।

अस्‍त-व्‍यस्‍त दिखता है सारा कमरा,
कितनी क्षति हुई
देख नहीं पा रहा वह आदमी
सिरदर्द और आँसुओं के कारण ।

सुबह से कानों में गूँज रहा कुछ शोर-सा
वह होश में है या देख रहा है सपना ?
क्‍यों आ रहे हैं विचार
हर क्षण समुद्र के बारे में ।

जब खिडकियों पर लगे आले के बीच से
दिखाई नहीं पड़ता ईश्‍वर का संसार
दूर तक फैला अवसाद
दिखता हैं समुद्र की लंबी निर्जनता की तरह ।

प्रिय लगती थी वह
इतनी कि प्रिय लगती थी उसकी हर बात
जैसे प्रिय लगती हैं
समुद्र को अपनी लहरें, अपना तट ।

तूफान के बाद लहरें
जैसे डुबो देती हैं बाँस को,
उसकी आतमा की गहराई में
चली गई हैं उसकी सारी छवियाँ

यातना भरे जीवन के उन दिनों में
जो विचार से भी परे थे
नियति के अथाह से
लहरें उसे उठा लाई थी पास ।

असंख्‍य बाधाओं के बीच
खतरों से बचते हुए
लहरें उसे ऊपर उठाती रहीं, उठाती रहीं
और अंतत: ले आई उसे एकदम पास ।

और जब उसका यह चले जाना
संभव है एक जबरदस्‍ती हो
चबा डालेगा यह अलगाव
उसकी हड्डियों को अवसाद समेत ।

और आदमी देखता है चारों तरफ
उस स्‍त्री ने जाने से पहले
उलट-पलट कर फेंक दिया है
अलमारी की हर चीज़ को ।

वह टहलता है इधर-उधर
अंधेरा होने से पहले
बिखरे चीथड़ों, कपड़ों के नमूनों को
समेट कर रख देता है अलमारी में ।

अधसिले कपड़े पर रखी सुई
चुभ जाती है उसकी अंगुली में
उस क्षण उसे दिखती है वह पूरी-की-पूरी
और धीरे-से रो देता है वह ।

 5.
अनन्त के लिए क्षणिक बारिश

और ग्रीष्‍म ने विदा ली
छोटे-से रेलवे स्‍टेशन से।
टोपी उतार कर बादलों की गड़गड़ाहट ले
याददाश्‍त के लिए
सैकड़ों तस्‍वीरें लीं रात की  ।

रात के अंधकार मे
बिजली की कौंध दिखाने लगी
ठंड से जमे बकायन के गुच्‍छे
और खेतों से परे मुखिया की कोठ ।

और जब कोठी की छत पर
बनने लगी परपीड़क खुशी की लहर
जैसे तस्‍वीर पर कोयले का चूरा
बारिश का पानी गिरा बेंत की बाड़ पर ।

झिलमिलाने लगा चेतना का भहराव
लगा बस अभी
चमक उठेंगे विवेक के वे कोने
जो रोशन हैं अब दिन की तरह ।

अनुवाद: वरयाम सिंह

बुधवार, 23 सितंबर 2015

रूसी कवि अनतोली परपरा की कविताएँ

 


रूसी कवि अनतोली परपरा की कविताएँ

प्रसिद्ध रूसी लेखक अनातोली परपरा का जन्म 15 जुलाई 1940 को मास्को में हुआ था। 1941 में उनकी माँ अपने बच्चों के साथ स्मालेन्स्क के अपने गाँव में रहने चली गईं। जल्दी ही रूस पर हिटलरी जर्मनी ने हमला कर दिया। हिटलरी नाजीवादी सैनिक बहुत जल्दी ही स्मालेन्स्क पहुँच गए और उन्होम्ने उस गाँव को जला दिया, जहा उनकी माँ अपने बच्चों के साथ रह रही थीं। पूरे गाँव में सिर्फ़ आठ व्यक्ति ज़िन्दा बचे, बाक़ी सभी गाँववालों को जर्मन सैनिकों ने मार दिया था। उन आठ लोगों में अनातोली पारपरा भी थे। द्वितीय विश्व-युद्ध समाप्त होने के बाद सैन्य स्कूल कि शिक्षा समाप्त करके अनातोली परपरा ने मास्को विश्वविद्यालय के पत्रकारिता संकाय में शिक्षा प्राप्त की। बाद में ’मस्क्वा’ नाम साहित्यिक पत्रिका के सम्पादक मण्डल में रहे। इस साल अनातोली परपरा 75 वर्ष के हो गए हैं। उनकी इस स्वर्ण जयन्ती पर उन्हें हार्दिक शुभकामनाएँ देते हुए  उनकी कुछ कविताएँ। 

1. बरखा का एक दिन

हवा बही जब बड़े ज़ोर से
बरसी वर्षा झम-झमा-झम
मन में उठी कुछ ऐसी झंझा
दिल थाम कर रह गए हम

गरजे मेघा झूम-झूम कर
जैसे बजा रहे हों साज
ता-ता थैया नाचे धरती
ख़ुशियाँ मना रही वह आज

भीग रही बरखा के जल में
तेरी कोमल चंदन-काया
मन मेरा हुलस रहा, सजनी
घेरे है रति की माया

2. सौत-सम्वाद


एक लोकगीत को सुनकर

ओ झड़बेरी, ओ झड़बेरी
मैं तुझे कहूँ व्यथा मेरी

सुन मेरी बात, री झड़बेरी
आता जो तेरे पास अहेरी

वह मेरा बालम सांवरिया
न कर उससे, यारी गहरी

वह छलिया, ठग है जादूगर
करता फुसला कर रति-लहरी

न कुपित हो तू, बहना, मुझ पे
बहुत आकुल हूँ, कातर गहरी

 3. तेरा चेहरा

शरदकाल का दिन था पहला, पहला था हिमपात
धवल स्तूप से घर खड़े थे, चमक रही थी रात
पिरिदेलकिना स्टेशन पे था मुझे गाड़ी का इन्तज़ार
श्वेत पंखों-सा हिम झरे था, कोहरा था अपार

कोहरे में भी मुझे दीख पड़ा, तेरा चारु-लोचन भाल
तन्वंगी काया झलके थी, पीन-पयोधर थे उत्ताल
खिला हुआ था तेरा चेहरा जैसे चन्द्र अकास
याद मुझे है, प्रिया, तेरे मुखड़े का वह उजास

4. अशान्तिकाल का गीत

समय कैसा आया है यह, मौसम हो गया सर्द
भूल गए हम सारी पीड़ा, भूल गए सब दर्द
मुँह बन्द कर सब सह जाते हैं, करते नहीं विरोध
कहाँ गया मनोबल हमारा, कहाँ गया वह बोध

क्यों रूसी जन चुपचाप सहे अब, शत्रु का अतिचार
क्यों करता वह अपनों से ही, अति-पातक व्यवहार
क्यों विदेशियों पर करते हम, अब पूरा विश्वास
और स्वजनों को नकारते, करते उनका उपहास ?

5. बीच सागर में

इस तन्हाई में फकीरे
दिन बीते धीरे-धीरे
यहाँ सागर की राहों में
कभी नभ में छाते बादल
बजते ज्यूँ बजता मादल
मन हर्षित होते घटाओं के
सागर का खारा पानी
धूप से हो जाता धानी
रंग लहके पीत छटाओं के
जब याद घर की आती
मन को बेहद भरमाती
स्वर आकुल होते चाहों के
बस श्वेत-सलेटी पाखी
जब उड़ दे जाते झाँकी
मलहम लगती कुछ आहों पे

 6. माया

नींद में मुझे लगा कि ज्यूँ आवाज़ दी किसी ने
मैं चौंक कर उठ बैठा और आँख खोल दी मैंने
चकाचौंध रोशनी फैली थी औ' कमरा था गतिमान
मैं उड़ रहा था महाशून्य में जैसे कोई नभयान

मैं तैर रहा था वायुसागर में अदृश्य औ' अविराम
आसपास नहीं था मेरे तब एक भी इन्सान

किसकी यह आवाज़ थी, किसने मुझे बुलाया
इतनी गहरी नींद से, भला, किसने मुझे जगाया
क्या सचमुच में घटा था कुछ या सपना कोई आया
कैसी अनुभूति थी यह, कवि, कैसी थी यह माया ?

7. ओस

सुबह घास पर दिखे घनी
रत्न-राशि की कनी

नीलम-रूप झलकाए
हरित-मणि-सी छाए
कभी जले याकूत-सी
स्फटिक शुचि शरमाए

करे धरती का शृंगार
लगे मोहक सुभग तुषार

पल्लव-पल्लव छाए
बीज को अँखुआए
बने वह स्वाति-मुक्ता
चातक प्यास बुझाए

दुनिया में जीवन रचती
इसके बिना न घूमे धरती

8. जलयान पर

रात है
दूर कहीं पर झलक रही है रोशनी
हवा की थरथराती हँसी मेरे साथ है
दाएँ-बाएँ-ऊपर-नीचे चारों ओर अँधेरा है
हाथ को सूझता न हाथ है
कितनी हसीन रात है

रात है
चाँद-तारों विहीन आकाश है ऊपर
अदीप्त-आभाहीन गगन का माथ है
और मैं अकेला खड़ा हूँ डेक पर
नीचे भयानक लहरों का प्रबल आघात है
कितनी मायावी रात है

रात है
गहन इस निविड़ में मुझे कर रही विभासित
वल्लभा कांत-कामिनी स्मार्त है
माँ-पिता, मित्र-बन्धु मन में बसे
कुहिमा का झर रहा प्रपात है
यह अमावस्या की रात है

9. मौत के बारे में सोच

मौत के बारे में सोच
और उलीच मत सब-कुछ
अपने दोनों हाथों से अपनी ही ओर
हो नहीं लालच की तुझ में ज़रा भी लोच

मौत के बारे में सोच
भूल जा अभिमान, क्रोध, अहम
ख़ुद को विनम्र बना इतना
किसी को लगे नहीं तुझ से कोई खरोंच

मौत के बारे में सोच
दे सबको नेह अपना
दूसरों के लिए उँड़ेल सदा हास-विहास
फिर न तुझ को लगेगा जीवन यह अरोच

देख, देख, देख बन्धु !
रीता नहीं रहेगा फिर कभी तेरा मन
प्रसन्न रहेगा तू हमेशा, हर क्षण

10. नववर्ष की पूर्वसंध्या पर

मार-काट मची हुई देश में, तबाही का है हाल
हिमपात हो रहा है भयंकर, आ रहा नया साल

यहाँ जारी इस बदलाव से, लोग बहुत परेशान
पर हर पल हो रहा हमें, बढ़ते प्रकाश का भान

गरम हवा जब से चली, पिघले जीवन की बर्फ़
चेहरों पर झलके हँसी, ख़त्म हो रहा नर्क

देश में फिर शुरू हुआ है, नई करवट का दौर
छोड़ दी हमने भूल-भुलैया, अब खोजें नया ठौर

याद हमें दिला रही है, रूसी माँ धरती यह बात
नहीं, डरने की नहीं ज़रूरत, होगा शुभ-प्रभात
मायकोवस्की मेरा हमदम, मेरा दोस्त
            वसीली कामिन्स्की

अगर मायकोवस्की की तुलना उसके अन्य सभी साथियों से की जाए तो वह उनसे लाख गुना अधिक मनमोहक, आकर्षक, ज़िन्दादिल, सहृदय और दूसरों के प्रति चिन्तातुर था। उसे कविताएँ पढ़ना बहुत अच्छा लगता था। वह न केवल अपनी कविताएँ पढ़ता था बल्कि हम सभी की कविताएँ पढ़ता था। कवि सिविरयानिन की कविताएँ तो वह हर समय गाता रहता था। जब भी वह उसकी कोई कविता गा कर सुनाता तो उसके बाद ऊपर से यह टिप्पणी भी अवश्य जड़ देता -- वैसे मैं सिविरयानिन से कहीं बेहतर कवि हूँ। उससे अच्छा लिखता हूँ। उदाहरण के लिए ज़रा मेरी यह कविता सुनकर देखो। इसका शीर्षक है -- ’मायकोवस्की की त्रासदी’। तुम सभी लोग मेरे इस बात से सहमत होगे कि मेरी इस कविता में बहुत दम है।
हम मायकोवस्की से कहते -- ठीक है, सुनाओ। और वह अपने बड़े-बड़े हाथों को हवा में लहराते हुए अपनी ’मखमली आवाज़’ में अपनी वह नई कविता सुनाना शुरू कर देता --
ठीक है,
अब रास्ता दीजिए मुझे
यहाँ से जाने का,
मैं तो सोच रहा था
ख़ुश रहूँगा
आँखों में दमक भरे
बैठ जाऊँगा सिंहासन पर
यूनानियों की तरह आरामतलबी से।
लेकिन नहीं
ओ शताब्दी !
यह जीवन-राह बहुत लम्बी है
और मुझे मालूम है
कि दुबले हैं तेरे पैर
और उत्तरी नदियों के बाल बूढ़े सफ़ेद !
आज मैं
इस नगर को पार कर निकलूँगा बाहर
कीलों बिंधी आत्मा को अपनी
इमारतों की नुकीली छतों पर छोड़कर।
वह कविता समाप्त करके कुछ विचारमग्न-सा गहरा उच्छवास लेता और कहता --
मैं इतनी गम्भीर कविताएँ लिखता हूँ कि मुझे ख़ुद से ही डर लगने लगता है। चलो, छोड़ो ये बातें, अब कुछ हँसी-मज़ाक करते हैं। पता नहीं क्यों बड़ी बोरियत-सी हो रही है।
मायकोवस्की के चरित्र की एक मुख्य विशेषता यह थी कि उसकी मनःस्थिति बहुत जल्दी-जल्दी बदलती रहती थी। हमेशा ऐसा महसूस होता रहता था कि एक पल वह हमारे साथ है और दूसरे ही पल वह हमारे साथ नहीं है। वह स्वयं अपने भीतर ही कहीं गहरे डूब चुका है और फिर जैसे अचानक ही पुनः वापिस हमारे बीच लौट आया है।
-- अरे, तुम लोग अभी तक वैसे के वैसे बैठे हो। चलो-चलो, कुछ हंगामा करो। प्यार करो एक-दूसरे को, चूम लो, कुछ धक्का-मुक्की करो, कुछ धींगा-मुश्ती, कुछ गाली-गलौज, कुछ ऐसा करो कि बस, मज़ा आ जाए।
कभी कहता -- चलो, ’रूस्सकए स्लोवा’ (रूसी शब्द) के सम्पादकीय विभाग में चलते हैं और वहाँ सम्पादक सीतिन से यह माँग करेंगे कि वह अगले ही अंक में हम सबकी कविताएँ छापे। अगर वह मना करेगा तो हम उसके केबिन के सारे शीशे तोड़ डालेंगे और यह घोषणा कर देंगे कि आज से सीतिन को उसके तख़्त से उतारा जाता है। अब पत्रिका ’रूस्सकए स्लोवा’ पर हम भविष्यवादियों का अधिकार है। अब इस केबिन में मायकोवस्की बैठेगा और युवा लेखकों को उनकी रचनाओं का मानदेय पेशगी देगा।
इस तरह की कोई भी बात कहकर अपनी कल्पना पर वह बच्चों की तरह खिलखिलाने लगता और इतना ज़्यादा ख़ुश दिखाई देता ,आनो उसकी बात सच हो गई हो। मायकोवस्की अक्सर इस तरह की शैतानी भरी कल्पनाएँ करता रहता था और फिर हम लोग भी उसकी इन बातों में शामिल हो जाते थे। इस तरह की कोई चुहल अभी चल ही रही होती थी कि अचानक मायकोवस्की का मूड बदल जाता और वह बेहद उदास और खिन्न दिखाई देने 
लगता।

कभी हम कहीं जा रहे होते कि अचानक उसकी योजना बदल जाती -- चल वास्या, ज़रा हलवाई की दुकान पर चलते हैं। कुछ समोसे और मिठाइयाँ बँधवा कर माँ के पास चलेंगे। अचानक हमें आया देखकर माँ और बहनें सभी कितनी ख़ुश होंगी। मैं ख़ुशी-ख़ुशी उसकी बात मान लेता और हम उसके घर पहुँच जाते। कहना चाहिए कि वह अपनी माँ अलिक्सान्द्रा अलिक्सियेव्ना को और अपनी दोनों बहनों-- ओल्गा और ल्युदमीला को बेहद प्यार करता था। निश्चय ही उसके बचपन की स्मृतियाँ ही उनके बीच इस प्रगाढ़ स्नेह व आत्मीय सम्बन्धों का आधार थीं।
अपने बचपन के तरह-तरह के किस्से वह हमें सुनाता था। कभी यह बताता कि उसे जार्जिया के उस बगदादी गाँव में, जहाँ वह पैदा हुआ था, अपने बचपन में कुत्तों के साथ घूमना कितना प्रिय था। वह कहता -- मैं अपने कुत्तों के साथ गाँव के बाहर जंगल में चला जाता और देर तक किसी पेड़ की छाया में लेटा रहता। खासकर मुझे यह बात बहुत अच्छी लगती कि कुत्ते मेरी चौकीदारी कर रहे हैं, बल्कि कहना चाहिए कि उन दिनों मैं सिर्फ़ इसी वजह से जंगल में घूमने जाता था कि मेरे कुत्ते मेरे सुरक्षा-दस्ते का काम करते थे और मैं इसमें गर्व महसूस करता था।
मुझे यह देखकर भी आश्चर्य होता था कि मायकोवस्की का रूप अपने घर पर, अपनी माँ और बहनों के सामने बदलकर एकदम ’छुई-मुई’ की तरह हो जाता था। जैसे वह कोई बेहद शर्मीला, शान्त, ख़ूबसूरत और कोमल नन्हा-सा बच्चा हो, जो बहुत आज्ञाकारी और अनुशासन-प्रिय है। साफ़ पता लगता था कि उसके परिवार के लोग उसे बेहद चाहते हैं और जब भी वह घर में होता है, वहा~म एक उत्सव का सा माहौल बना रहता है। घर पर एक पुत्र और एक भाई की भूमिका में और बाहर पीली कमीज़ पहने एक हुड़दंगी नवयुवक व एक बहुचर्चित कवि की भूमिका में उसे देखकर मुझे हमेशा ऐसा लगता था कि उसके भीतर जैसे दो मायकोवस्की रहते हैं, एक दूसरे से एकदम भिन्न दो आत्माएँ, जिनमें परस्पर रूप से हमेशा संघर्ष चलता रहता है।
***
जीवन का चक्र अपनी गति से घूम रहा था। हम ओदेस्सा में थे और वहाँ से हमें किशिन्योफ़ के लिए रवाना होना था। मायकोवस्की न जाने कहाँ फँसा रह गया था। हम बेचैनी से उसके आने का इन्तज़ार कर रहे थे। तब मायकोवस्की को एक लड़की मरीया अलिक्सान्द्रव्ना से प्रेम हो गया था। कहना चाहिए कि वह उन दिनों उसके प्यार में बुरी तरह से डूबा हुआ था। उसकी दशा पाग़लों जैसी हो चुकी थी। दाढ़ी और बाल बढ़ गए थे। एक ही जोड़ी कपड़े पिछले कई दिनों से उसके बदन पर चढ़े हुए थे। उसे न नहाने का होश था न खाने-पीने की चिन्ता। वह यह समझ नहीं पा रहा था कि अपने इस दमघोंटू प्यार को लेकर वह कहाँ जाए और क्या करे। सत्रह वर्षीय मरीया की गिनती उन गिनी-चुनी लड़कियों में होती थी, जो न केवल सौन्दर्य की दृष्टि से अत्यन्त मोहक और चित्ताकर्षक थीं बल्कि मानसिक स्तर पर भी नए क्रान्तिकारी दर्शन और विचारों में गहरी रुचि लेती थीं। छरहरी, गरिमामयी, हरिण-सी आँखोंवाली, बेहद नशीली, सुन्दर और स्निग्ध उस लड़की ने युवा कवि मायकोवस्की की कल्पना-छवियों को पूरी तरह से घेर लिया था --
अब मैं सिर्फ़
इतना भर जानता हूँ
कि तुम हो मोनालिसा
जिसे मुझे चुराना है
बीस वर्षीय मायकोवस्की को पहली बार प्रेम हुआ था। यह उसकी पहली प्रेमानुभूति थी और वह उसे सम्हाल नहीं पा रहा था। मरीया के साथ हुई अपनी पहली मुलाक़ात के बाद उसके प्यार में डूबा, विषण्ण और विचलित मायकोवस्की किसी घायल पक्षी की तरह पंख फड़फड़ाता, लेकिन इसके साथ-साथ बेहद ख़ुश, सुखी और बार-बार मुस्कराता हमारे कमरे में आया। किसी विजेता की तरह बेहद पुलकित और उल्लसित होकर वह बार-बार केवल यही शब्द दोहरा रहा था -- वाह! क्या लड़की है, वाह! क्या लड़की है। उन दिनों कभी-कभी यह महसूस करते हुए कि शायद ही उस लड़की की तरफ़ से भी उसे वैसा ही भावात्मक उत्तर मिलेगा यानी इस प्रेम में अपनी असफलता की पूर्वानुभूति के साथ-साथ अवसाद में डूबा वह बेचैनी से कमरे में इधर से उधर चक्कर लगाता रहता। उन्हीं दिनों उसने अपने बारे में ये पंक्तियाँ लिखी थीं --
इन दिनों मुझे आप पहचान नहीं पाएँगे
यह विशाल माँसपिण्ड आहें भरता है
आहें भरता है और छटपटाता है
मिट्टी का यह ढेला आख़िर क्या चाहता है
चाहता है यह बहुत कुछ चाहता है

 
उन दिनों हम वास्तव में यह नहीं समझ पाते थे कि उस लापरवाह, निश्चिन्त और बेफ़िक्र मायकोवस्की का यह हाल कैसे हो गया? उसमें अप्रत्याशित रूप से ये कैसा विचित्र परिवर्तन आ गया है? वह न जाने किस उधेड़बुन में डूबा रहता है? कभी अपने बाल नोचता है तो कभी दीन-दुनिया से बेख़बर फ़र्श की ओर ताकता बैठा रहता है। कभी-कभी पिंजरे में बन्द किसी शेर की तरह अपने कमरे में घूमता रहता है और बुड़बुड़ाता रहता है -- क्या किया जाए? क्या करूँ? कैसे रहूँ?
प्रेम में व्यथित सोफ़े पर पड़े दोस्त को देखकर अपने चश्मे के भीतर से झाँकते हुए हमारे साथी बुरल्यूक ने उससे कहा -- तू बेकार दुखी हो रहा है। देख लेना, कुछ नहीं होगा, कोई फल नहिं निकलेगा तेरे इन आँसुओं का। जीवन का पहला प्यार हमेशा यूँ ही गुज़र जाता है।
यह सुनकर मायकोवस्की दहाड़ने लगा -- कैसे कुछ नहीं होगा, क्यों फल नहीं निकलेगा? दूसरों का पहला प्यार यूँ ही गुज़र जाता होगा, मेरा नहीं गुज़रेगा। देख लेना।
बुरल्यूक ने फिर से अपनी बात दोहराई और उसे सान्तवना देने की कोशिश की। पर उसे ’मिट्टी के ढेले’ यानी मायकोवस्की को तो प्रेम-मलेरिया हो गया था --
आप सोच रहे हैं
सन्निपात में है, कारण है मलेरिया
हाँ, यह ओदेस्सा की बात है
चार बजे आऊँगी
मुझसे तब बोली थी मरीया
फिर आठ बजा
नौ बजा
दस बज गए
वह अपने मन की शान्ति गवाँ चुका था। मरीया से मुलाक़ात की वह पहली ख़ुशी अब आकुलता, छटपटाहट और भयानक पीड़ा में बदल चुकी थी --
माँ
तेरा बेटा ख़ूब अच्छी तरह बीमार है
माँ
आग लगी हुई है उसके दिल में
उसकी बहनों को बता दे, माँ
ल्यूदा और ओल्या को बता दे तू
अब उसके सामने कोई रास्ता नहीं है

चूँकि तब तक हम ओदेस्सा में आयोजित सभी काव्य-गोष्ठियों में अपनी कविताएँ पढ़ चुके थे और हमें वहाँ से तुरन्त ही किशिन्योफ़ रवाना होना था, इसलिए उसकी बेचैनी देखकर हमने मायकोवस्की को यह सुझाव दिया कि उसे जल्दी से जल्दी मरीया के साथ अपने सम्बन्धों की सारी गाँठें खोल लेनी चाहिए और अकेले यूँ तड़पने से अच्छा तो यह है कि सारी बात साफ़ कर लेनी चाहिए। और फिर अचानक ही बात साफ़ हो गई --
अचानक
हमारे कमरे का दरवाज़ा चरमराया
मानो दाँत किटकिटाए हों किसी ने
एक धमक के साथ कोई भीतर घुस आया
चमड़े के दस्तानों को
अपने हाथों में मसलते हुए
उसने मुझे अपना यह फ़ैसला सुनाया
क्या मालूम है तुम्हें यह बात
शादी कर रही हूँ
मैं कुछ ही दिनों बाद
मायकोवस्की यह सुनकर बौखला गया था। उसने चलने की घोषणा कर दी और हम उसी शाम रेलगाड़ी में बैठकर किशिन्योफ़ की तरफ़ रवाना हो गए।
रेल के भोजन-कक्ष में हम तीनों दोस्त बहुत देर तक चुप बैठे रहे। हम तीनों ही बहुत असहज महसूस कर रहे थे और शायद मरीया के बारे में ही सोच रहे थे। आख़िर दवीद दवीदाविच बुरल्यूक मे महाकवि पूश्किन की कविता की दो पंक्तियाँ पढ़कर उस चुप्पी को तोड़ा --
पर मैं करती हूँ किसी दूसरे को प्यार
जीवन-भर रहूँगी सदा उसकी वफ़ादार
मायकोवस्की धीमे से मुस्कुराया मानो उसे मुस्कराने के लिए भी पूरा ज़ोर लगाना पड़ रहा हो। उसके मुँह से एक शब्द भी नहीं निकला। वह कई दिन तक उदास रहा। किसिन्योफ़ से हम निकालाएफ़ गए और फिर वहाँ से कियेव। रेल से कियेव जाते हुए रास्ते में मायकोवस्की देर तक खिड़की से बाहर झाँकता रहा। अचानक वह गुनगुनाने लगा --
यह बात है ओदेस्सा की
ओदेस्सा की...
बाद में यही दोनों पंक्तियाँ उसकी उस ख़ूबसूरत लम्बी कविता में पढ़ने को मिलीं, जिसे सारी दुनिया ’पतलूनधारी बादल’ के नाम से जानती है, हालाँकि उसने पहला इसका शीर्षक ’तेरहवाँ देवदूत’ रखा था।
शुरू से ही मायकोवस्की का जीवन रेल के किसी तंग डिब्बे की तरह ही बहुत तंगहाल और घिचपिच भरा रहा। इसलिए मौक़ा मिलते ही उसने खुले और व्यापक भविष्य की ओर एक झटके में वैसे ही क़दम बढ़ाए जैसे बोतल में बन्द किसी जिन्न को अचानक ही आज़ाद कर दिया गया हो --
मैं देख रहा हूँ उसे
समय के पहाड़ पर चढ़ते हुए
किसी और को वह दिखाई नहीं देता
कियेव में मायकोवस्की पूरी तरह से अपनी नई लम्बी कविता की रचना में डूबा हुआ था। वह उस कविता को ’किसी रॉकेट-क्रूजर की तरह’ गतिवान, आलीशान और इतना सफल बना देना चाहता था कि दुनिया दाँतों तले उँगली दबा ले और उसे हमेशा याद रखे।
***
लगातार होने वाली गुत्थम-गुत्था और लड़ाई-झगड़ों से थोड़ा थके हुए दिखाई दे रहे बीस वर्षीय मायकोवस्की ने हम लोगों के सामने प्रस्ताव रखा -- चलो दोस्तो ! तिफ़लिस चलते हैं। वह मेरा शहर है। शायद दुनिया का अकेला ऐसा शहर, जहा~म मेरे साथ कोई झगड़ा-फ़साद नहीं होगा। वहाँ के लोग नए कवियों को सुनना बहुत पसन्द करते हैं और बड़े मन से मेहमाननवाज़ी करते हैं। हमने उसकी बात मान ली और उसके साथ जाने के लिए तैयार हो गए।
 
मार्च 1914 के अन्त में हम तीनों दोस्त (मायकोवस्की, बुरल्यूक और मैं) तिफ़लिस के लिए रवाना हो गए और वहाँ ग्राण्ड होटल में जाकर रुके। हमें होटल के स्वागत-कक्ष में ही छोड़कर मायकोवस्की तुरन्त गायब हो गया और क़रीब आधा घण्टे बाद जब फिर से नमूदार हुआ तो उसके साथ धूप में तपकर लाल दिखाई दे रहे जार्जियाई नवयुवकों का एक पूरा झुण्ड था। ये सब उसके पुराने दोस्त थे, उन दिनों के दोस्त, जब वह कुताइस्सी में स्कूल में पढ़ता था। होटल का हमारा वह बड़ा-सा कमरा खिले हुए चेहरों और चमकती आँखों वाले बेफ़िक्र नौजवानों की चीख़ों, कहकहों और मस्तियों से भर गया। उनकी बड़ी-बड़ी बशलीकी टोपियाँ पूरे कमरे में यहाँ-वहाँ बिखरी पड़ी थीं। मायकोवस्की एक-एक करके उनसे गले मिल रहा था और अपनी रूसी परम्परा के अनुसार उन्हें चूम रहा था। वह उनसे बचपन के अन्य दोस्तों का हालचाल पूछ रहा था और बेहद ख़ुश था। बात करते-करते कभी अचानक वह जार्जियाई लिज़्गीन्का नृत्य करने लगता तो कभी ज़ोर-ज़ोर से अपनी कोई कविता पढ़ने लगता। वह हम दोनों से भी बार-बार कहता -- ज़रा अपनी वह कविता तो सुनाना इन्हें, जिसे सुनकर हॉल में बैठे श्रोता खड़े होकर तालियाँ बजाने लगे थे या जिसे सुनकर औरतें रोने लगी थीं या फिर ऐसी ही कोई और बात। संक्षेप में कहूँ तो हमें यह लग रहा था कि मायकोवस्की वास्तव में अपने घर, अपने देस पहुँच गया है, अपने गहरे दोस्तों के बीच।
***
हॉल ठसाठस भरा था। गर्मी इतनी थी कि ऐसा लग रहा था कि मानों किसी भट्ठी में बैठे हुए हों। मायकोवस्की चौड़ी बाहों वाला ’सूर्यास्त की रश्मी-छटा’ जैसा रंग-बिरंगा कुरता पहने वहाँ भीड़ के बीच खड़ा था और लोगों को किसी मदारी की तरह तीखी व ज़ोरदार आवाज़ में नए जीवन-दर्शन, नई विचारधारा और उस नई विश्व-दृष्टि के बारे में बता रहा था जो आने वाले दिनों में न केवल कला को, बल्कि समाज और जीवन के सभी क्षेत्रों को तथा विश्व की सभी जातियों को गहराई से प्रभावित करेगी। किसी नेता की तरह जीवन के नए रूपों के निर्माण से सम्बन्धित विचारों की भारी चट्टानों को लोगों की ओर ढकेलता हुआ वह जैसे भविष्य के नीले आकाश में झाँक रहा था। और यह काम वह इतनी सहजता और आसानी के साथ कर रहा था मानों मन को भली लगने वाली शीतल बयार बह रही हो। हर दो-तीन मिनट में हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठता था।
नवयुवक होने के बावजूद नई सामाजिक व्यवस्था के बारे में मायकोवस्की के विचार काफ़ी परिपक्व और प्रौढ़ थे और उसकी कविताएँ भी गम्भीर, संजीदा तथा शिल्प और सौन्दर्य की दृष्टि से परिपूर्ण। यहाँ तिफ़लिस में बचपन के अपने दोस्तों के बीच, उनके द्वारा दिए गए गरमा-गरम समर्थन और हार्दिक स्वागत-सत्कार के बाद, मायकोवस्की जैसे पूरी तरह से खिल उठा था। उसने जैसे अपना पूरा रूप, पूरा आकार ग्रहण कर लिया था और वह हिमालय की तरह विशाल हो गया था।
मायकोवस्की और उसके दोस्तों के साथ हम दोनों जार्जिया में चारों ओर फैली पर्वतमाला के सबसे ऊँचे पहाड़ ’दवीद’  को देखने गए। दवीद की चोटी पर पहुँचकर ऐसा लगा मानों हम अन्तरिक्ष में तैर रहे हों। चारों तरफ़ पहाड़ ही पहाड़। एक नई मनोरम दुनिया हमारे सामने उपस्थित थी। इस अपार विस्तार को देखकर मायकोवस्की चहकने लगा था -- वाह भई वाह! देखो, कितना विशाल हॉल है सामने। इस ऊँचाई पर पहुँचकर तो वास्तव में पूरी दुनिया को सम्बोधित किया जा सकता है। ठीक है मियाँ दवीद, अब हमें भी ख़ुद को बदलना ही पड़ेगा और तुम्हारे जैसा ऊँचा क़द अपनाना होगा।
उस वसन्त में हमें रोज़ ही कहीं न कहीं जाना होता था। कभी किसी के घर भोजन करने जाना है तो कभी किसी कहवाघर या चायख़ाने में हमारा काव्य-पाठ है। कभी स्थानीय बाज़ार में घूमने जाना है तो कभी किसी पार्क में कोई सभा। तिफ़लिस के दुकानदार अपनी दुकानों में हमें बैठाकर हमसे अपनी कविताएँ सुनाने का अनुरोध करते। मयख़ानों में हमें कविताएँ सुनाने के लिए बुलाया जाता। निश्चय ही हमें यह सब बहुत अच्छा लग रहा था और हम यहाँ आकर बहुत ख़ुश हुए थे।
अक्सर ऐसा होता था कि हम सड़क पर चले जा रहे हैं और सामने से कोई नौजवान या नवयुवती आ रही है। मायकोवस्की उसे रोक लेता और पूछता था -- कहाँ जा रहे हो? अरे, वहाँ क्या करोगे? चलो छोड़ो, वहाँ क्या जाना। हमारे साथ चलो। वापिस लौट चलो। हम वहाँ पर कविता पढ़ेंगे। तुम भी पढ़ना या फिर हमारी कविता ही सुनना। और लोग उसका यह अनुरोध मान लेते थे और हमारे साथ ही घूमने लगते थे। जार्जियाई भाषा मायकोवस्की के लिए मातृभाषा रूसी की तरह ही अपनी थी। वह एकदम जार्जियाइयों की तरह जार्जियाई भाषा बोलता था। इसलिए जब-जब हम उसे जार्जियाई बोलते देखते, हमारी गर्दनें गर्व से तन जातीं।
***
 
तिफ़लिस की अनेक सभाओं और गोष्ठियों में काव्य-पाठ करने के बाद हम कुताइस्सी पहुँचे। कुताइस्सी -- जहाँ मायकोवस्की ने अपने परिवार के साथ अपना बचपन गुज़ारा था। जहाँ उसके पिता वन-संरक्षक के पद पर कार्यरत थे। जहाँ मायकोवस्की ने स्कूली-शिक्षा पाई थी। यहीं वह 1905 की पहली रूसी क्रान्ति के बाद जार्जियाई क्रान्तिकारियों के सम्पर्क में आया था। यहीं 1906 में उसके पिता का देहान्त हुआ था और इसके तुरन्त बाद यहीं से वह मास्को गया था।
अब मायकोवस्की कुताइस्सी की गलियों में घूम रहा था। अपने बचपन के दोस्तों से मिल रहा था। उन्हें अपनी बाहों में लपेट रहा था और चूम रहा था। अपने बचपन के खेलों, हरकतों और शैतानियों को याद कर रहा था। वह ख़ुद भी हँस रहा था और हमें भी हँसा रहा था। हम उसके साथ उसका स्कूल देखने गए। बच्चों ने स्कूल की खिड़कियों से सफ़ेद रुमाल हिलाकर हमारा स्वागत किया। स्कूल से लौटते हुए उसने देखा कि सामने से एक गधा चला आ रहा है। उसे देखकर वह एकदम ख़ुश हो गया और किलकारियाँ मारने लगा। हमसे बोला -- अगर मैं पहले जैसा बच्चा होता तो इस गधे पर चढ़े बिना नहीं मानता और दूर तक इसकी सवारी करता। लेकिन अब तो मेरा शरीर पहाड़ जैसा है। अगर मैं इस पर चढ़ भी गया तो पहली बात तो यह है कि यह गधा ही दिखाई नहिं देगा, दूसरे मेरे पैर भी ज़मीन पर घिसटेंगे।
मायकोवस्की के दोस्तों ने उसके कुताइस्सी-आगमन की ख़ुशी में एक बड़ी-सी पार्टी दी। जार्जियाई परम्परा के अनुसार उन्होंने मेहमानों का स्वागत करते हुए भेड़ के सींगों को खोखला करके बनाए गए विशेष तरह के ’रोक’ नामक गिलासों को भर-भरकर बेतहाशा शराब पी, जार्जियाई लोकगीत गाए, कविताएँ पढ़ीं, भाषण दिए, स्थानीय लोकनृत्य किए और आसमान में गोलियाँ छोड़ीं। जब मास्को लौटने का समय आया तो वे लोग हमें छोड़ ही नहीं रहे थे। बड़ी मुश्किल से हज़ार बहाने बनाकर हमने लौटने की इजाज़त पाई। आख़िर किसी तरह लौटकर हम तीनों बुद्धू घर को आए यानी मास्को पहुँचे।
***
 
उन दिनों हम लोग यह महसूस करने लगे थे कि देश में चल रही वर्तमान शासन-व्यवस्था अब कुछ ही दिन की मेहमान रह गई है। मायकोवस्की कहा करता -- जल्दी ही मज़दूर-क्रान्ति होगी और तब मैं अपने जल्वे दिखाऊँगा। हम सब एक ही आग में जल रहे थे। इसलिए उसकी इस तरह की बातें सुनकर हमें आश्चर्य नहीं होता था। प्रथम विश्व-युद्ध के उन कठिन फ़ौजी-राष्ट्रभक्तिपूर्ण दिनों में, जब अपना सब कुछ ’ज़ार व मातृभूमि की सेवा में’ समर्पित करने की बात की जा रही थी, मायकोवस्की हर समय बड़े गर्व के साथ अपनी ये पँक्तियाँ सुनाता घूमता था --
पहाड़ों के उस पार से
वह समय आता मैं देख रहा हूँ
जिसे फिलहाल कोई और देख नहीं पाता
किसी की नज़र वहाँ तक नहीं जाती
भूखे-नंगे लोगों की भीड़ लिए
आएगा सन् सोलह का साल
क्रान्ति का काँटों भरा ताज लिए
ये पँक्तियाँ उसकी उस नई लम्बी कविता ’तेरहवाँ देवदूत’ (’पतलूनधारी बादल’) का ही एक अंश थीं, जिस पर वह उन दिनों दुगने-तिगुने उत्साह के साथ काम कर रहा था।
मक्सीम गोर्की उन दिनों विदेश से लौटे थे। वे पहले ऐसे बड़े लेखक थे, जिन्होंने तब हमारा खुलकर समर्थन किया था। एक पत्रिका में उन्होंने लिखा था --
"रूसी भविष्यवाद जैसी कोई चीज़ नहिं है। सिर्फ़ चार कवि हैं -- ईगर सिविरयानिन, मायकोवस्की, बुरल्यूक और वसीली कामिनस्की। इनके बीच निस्सन्देह ऐसे प्रतिभाशाली कवि भी हैं, जो आगे चलकर बहुत बड़े कवि बन जाएँगे। आलोचक इन्हें फटकारते हैं जबकि वास्तव में ऐसा करना ग़लत है। इन्हें फटकारना नहीं चाहिए बल्कि इनके प्रति आत्मीयता दिखानी चाहिए। हालाँकि मैं समझता हूँ कि आलोचकों की इस फटकार में भी इनके भले और अच्छाई की इच्छा ही छिपी है। ये युवा हैं पर गतिहीन नहीं हैं। वे नवीनता चाहते हैं। एक नया शब्द। और निस्सन्देह यह एक उपलब्धि है।
उपलब्धि इस अर्थ में है कि कला को जनता तक पहुँचाना ज़रूरी है। आम आदमी तक, भीड़ तक, और ये लोग यह काम कर रहे हैं, हालाँकि काम करने का इनका तरीका बहुत भद्‍दा है, लेकिन उनकी इस कमी को नज़र‍अन्दाज़ किया जा सकता है।
हंगामे-भरे गीत गाने वाले ये गायक, जो पता नहीं ख़ुद को भविष्यवादी कहना क्यों पसन्द करते हैं, अपना छोटा-सा या बहुत बड़ा काम कर जाएँगे, जिससे एक दिन सारे रास्ते खुल जाएँगे। चुप रहने से तो बेहतर है कि शोर हो, हंगामा हो, चीख़ें हों, ग़ालियाँ हों और हो जोश-ख़रोश-उन्माद।
अभी यह कहना बहुत कठिन है कि आगे चलकर ये लोग किस रूप में ढलेंगे, लेकिन मन कहता है कि ये नई तरह के युवक होंगे, नई तरह की ताज़ा आवाज़ें। हमें इनका बेहद इन्तज़ार है और हम ये आवाज़ें सुनना चाहते हैं। इन्हें ख़ुद जीवन ने पैदा किया है, हमारी वर्तमान परिस्थितियों ने। ये कोई गिरा दिया गया गर्भ नहीं हैं, बल्कि ये तो वे बच्चे हैं जिन्होंने ठीक समय पर जन्म लिया है।
मैंने हाल ही में उन्हें पहली बार देखा। एकदम जीवन्त और वास्तविक। और मेरा ख़याल है कि वे उतने भयानक भी नहीं हैं, जैसाकि वे ख़ुद को दिखाते हैं या जैसा उन्हें आलोचक प्रस्तुत करते हैं। उदाहरण के लिए मायकोवस्की को ही लें। वह एकदम नवयुवक है, केवल बीस वर्ष का। वह चीख़ता-चिल्लाता है, उद्दण्ड है, लेकिन निस्सन्देह उसके भीतर, कहीं गहराई में, प्रतिभा छिपी हुई है। उसे मेहनत करनी होगी, सीखना होगा और फिर वह वास्तव में बहुत अच्छी कविताएँ लिखेगा। मैंने उसका कविता-संग्रह पढ़ा है और उसकी कुछ कविताओं ने मुझे बेहद प्रभावित भी किया है। वे वास्तव में सच्चे मन से लिखी गई कविताएँ हैं।" 
***
 
उन दिनों हमें लगातार जगह-जगह कविता पढ़ने के लिए बुलाया जाता था और हम सबके बीच मायकोवस्की ऐसा लगता था मानो युद्ध के मैदान में तमाम फ़ौजी गाड़ियों के बीच कोई टैंक धड़धड़ाता हुआ तेज़ी से आगे बढ़ रहा हो। वह गरजने लगा था। उसे देखकर आश्चर्य होता था। सभी कवियों में वह अकेला ऐसा कवि था जिसने सबसे पहले युद्ध के विरुद्ध आवाज़ उठाई। इससे उन देशभक्त लेखकों के बीच रोष की लहर दौड़ गई जो दुश्मन पर रूस की विजय को देखने को लालायितथे। लेकिन मायकोवस्की सब बाधाओं को धकेलता हुआ टैंक की तरह आगे बढ़ रहा था।
एक बार बरीस प्रोनिन के बोहिमियाई तहख़ाने में बने ’आवारा कुत्ता’ क्लब में, जहाँ हम जैसे बहुत से लेखक-कलाकार अक्सर इकट्ठे होते थे, मायकोवस्की ने बड़े कठोर शब्दों में युद्ध का विरोध किया और अपनी कविता पढ़ी --
औरतों और पकवानों के प्रेमियों
तुम्हारे लिए
क्या तुम्हारे सुख को बनाए रखने के लिए
हम अपनी जानें गवाँ दें?
इससे तो अच्छा यह होगा कि मैं
किसी शराबख़ाने में रण्डियों को देने लगूँ
अनानास की शराब ’आबे-हयात’
बड़ा भारी झगड़ा खड़ा हो गया। वहाँ उपस्थित एक विशिष्ट सरकारी मेहमान ने मायकोवस्की पर बोतलें फेंकनी शुरू कर दीं। यह तो अच्छा हुआ कि एक भी बोतल उसे नहीं लगी। तभी हम सब उस मेहमान पर टूट पड़े और उसे वहाँ से निकाल बाहर किया। हमने मायकोवस्की से वैसी ही और कविताएँ पढ़ने को कहा और वह हम लोगों की सुरक्षा में कविताएँ पढ़ने लगा --
यह क्या माँ?
सफ़ेद पड़ गई हो तुम, बिल्कुल सफ़ेद
जैसे देख रही हो तुम सामने ताबूत
छोड़ो इसे, भूल जाओ
भूल जाओ, माँ, तुम उस तार को
मौत की ख़बर लाया है जो
ओह, बन्द करो
बन्द कर दो आँखें अख़बारों की !
’पतलूनधारी बादल’ का पाठ वहाँ इतना सफल रहा कि उस दिन से मायकोवस्की को प्रतिभाशाली और दक्ष कवि माना जाने लगा। यहाँ तक कि उसके शत्रु भी उसकी इन ऊँचाइयों को बड़े विस्मय और आतंक के साथ देखते थे। और स्वयं कवि इतने शानदार ढंग से यह कविता पढ़ता था मानो वह सारी मानवजाति का प्रतिनिधि हो। उस तरह से कविता का पाठ हमारी दुनिया में शायद ही कभी कोई कर पाएगा। काव्य-पाठ करने का वह ढंग कवि मायकोवस्की के साथ ही हमेशा के लिए काल के गाल में समा गया। मेरा विश्वास है कि उसकी इस कविता का वैसा ही पाठ करना किसी अन्य व्यक्ति के लिए मुमकिन नहीं है क्योंकि इसके लिए ख़ुद मायकोवस्की होना ज़रूरी है। वह ख़ुद भी यह बात कहता था --देख लेना, जब मैं मर जाऊँगा, कोई भी एकदम मेरी ही तरह यह कविता नहीं पढ़ पाएगा।
हमारी दोस्ती के बीस वर्ष के काल में मैंने हज़ारों बार मायकोवस्की को कविता पढ़ते हुए सुना था और हर बार मुझे ऐसा अप्रतिम सुख मिलता था, ऐसा नशा-सा चढ़ जाता था, जिसका वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता। उसके दैत्यनुमा वज़नी शब्दों में जैसे कोई विराट आत्मा-सी प्रविष्ट हो जाती थी। जब पहली बार मैंने उसकी ’पतलूनधारी बादल’ कविता का पूरा पाठ सुना, तब उसकी उम्र केवल बाईस वर्ष की थी। मैं उसकी तरफ़ बेहद अचरज से देख रहा था मानो दुनिया का आठवाँ आश्चर्य देख रहा हूँ। मैं उसको सुन रहा था और सोच रहा था -- क्या यह वही किशोर है, जिससे मैं चार वर्ष पहले मिला था। मुझे इस जादू पर विश्वास नहीं हो रहा था। लेकिन यथार्थ यही था। द्रुतगति के साथ हुए कवि के इस विकास को समझ पाना बेहद कठिन था। मेरे लिए तो और भी कठिन क्योंकि मैं दिन-रात उसके साथ, उसके आसपास ही रहता था। अब बाईस वर्षीय मायकोवस्की वह पुराना किशोर कवि नहीं, बल्कि एक वयस्क सुविज्ञ पुरुष था, जो महत्त्वपूर्ण और ठोस कामों में निमग्न था।
***
फ़रवरी-क्रान्ति के बाद मायकोवस्की ने बुरल्यूक को मेरे साथ लगा दिया था ताकि हम लोग अस्थाई बुर्जुआ सरकार का विरोध करते हुए सर्वहारा क्रान्ति के पक्ष में प्रचार के काम को तेज़ गति दे सकें। हम लोगों ने दिन-रात प्रचार शुरू कर दिया। एक राजनीतिक वक्ता के रूप में भी मायकोवस्की को सुनना मेरे लिए आश्चर्यजनक ही था। इस क्षेत्र में भी उसकी प्रतिभा नई ऊँचाइयों को छू रही थी। उसने सभी कलाकारों से आह्वान किया कि वे सर्वहारा क्रान्ति के नायक मज़दूर-वर्ग को अपनी कला का विष्य बनाएँ। मायकोवस्की के स्वरों में 1908 का (तब वह कम्युनिस्ट पार्टी का सदस्य था) वह बोल्शेविक फिर से बोलने लगा था। उसने जनता से अपील की --
आप सब
अपनी-अपनी मशीनों पर पहुँचें
अपने-अपने दफ़्तरों में
अपनी-अपनी खदानों में पहुँचें, भाइयो
इस धरती पर हम सभी
सैनिक हैं
नए जीवन को रचने वाली
एक ही फ़ौज के
अब उस पुराने विद्रोही मायकोवस्की को पहचानना मुश्किल था, जो भविष्यवादी आन्दोलन का प्रवक्ता था और पीली कमीज़ में घूमा करता था। अब वह बालिग़ हो गया था, सामान्य कपड़े पहनता था, सिर्फ़ राजनीतिक घटनाओं के बारे में बातचीत करता था और ख़ुद को बोल्शेविक कहता था। फ़रवरी-क्रान्ति के बाद के उस दौर में हम लगभग रोज़ ही क्रान्ति-समर्थक कवियों के रूप में विभिन्न सभाओं में कविताएँ पढ़ने जाया करते थे और हर सभा में मायकोवस्की यह घोषणा किया करता था -- दोस्तो, बहुत जल्दी ही सर्वहारा-क्रान्ति होने वाली है। तब यह बुर्जुआ सरकार ख़त्म हो जाएगी।
***
 
सोवियत सत्ता की स्थापना के प्रारम्भिक दिनों में, जब सड़कों पर लोग झुण्ड बना-बनाकर खड़े रहते थे, हम बड़ी शान के साथ काफ़ी-हाउस में पहुँचते थे। वहाँ रोज़ ही लेखक-कलाकार इकट्ठे होते थे। कुछ लोगों को सुख तथा कुछ लोगों को पीड़ा पहुँचाते हुए हम काफ़ी-हाउस के बीचोंबीच बने मंच पर खड़े होकर सहर्ष यह घोषणा करते कि हम रूस के मज़दूर-वर्ग की जीत का स्वागत करते हैं। भविष्यवादियों ने सबसे पहले सोवियत सत्ता का स्वागत किया था, इस वजह से बहुत से लोग हमसे छिटक कर दूर हो गए थे। ये छिटके हुए लोग हमें घृणा की दृष्टि से देखते थे और हम जैसे ’जंगली-पाग़लों’ की गतिविधियों से आतंकित थे। वे हमारी तरफ़ ऐसे देखते थे मानो इस धरती पर हमारा जीवनकाल अब सिर्फ़ दो सप्ताह ही और शेष रह गया है, उसके बाद बोल्शेविकों के साथ-साथ हमारा भी सफ़ाया कर दिया जाएगा।
लेकिन अक्तूबर-क्रान्ति से हमारे भीतर पैदा हुआ उत्साह बढ़ता जा रहा था। काफ़ी-हाउस में मुरालफ़, मन्देलश्ताम, अरासेफ़ और तीख़ा मीरफ़ जैसे नए बोल्शेविक लेखक दिखाई देने लगे थे। वहाँ प्रतिदिन बन्दूकधारी मज़दूर लाल-गारद के सिपाही भी नज़र आते। कभी-कभी तो ऐसा होता कि कोई कवि अभी काफ़ी-हाउस के मंच पर खड़ा कविता पढ़ ही रहा होता कि लाल-गारद का एक दस्ता भीतर घुस आता और वहा~म उपस्थित लोगों के पहचान-पत्रों की जाँच शुरू कर देता। जब जाँच पूरी हो जाती तो हम अपनी काव्य-सन्ध्या को आगे बढ़ाते। लाल-गारद के सदस्य भी वहिं खड़े रहकर हमारी कविताएँ सुनते। मायकोवस्की प्रतिदिन वहा~म अपनी कविताएँ पढ़ता था और मज़दूर-वर्ग की जीत का जश्न मनाता था। वह जैसे क्रान्ति की आग में जल रहा था। उसके हर शब्द में बुर्जुआ-वर्ग के लिए गुस्सा भरा होता था। वह उसके सर्वनाश की कामना करता था। नई मज़दूर सत्ता का वह स्वागत करता था और हर्ष से उल्लसित होकर उसके लम्बे जीवन की कामना करता था। उत्साही और जोशीले श्रोताओं के समक्ष वह एक प्रचारक-कवि के रूप में किसी लौह-पुरुष की तरह खड़ा रहता। लोगों के मन में उसकी यही छवि बस गई थी।
अक्तूबर क्रान्ति को मायकोवस्की उस समय मिला था जब वह अपनी उम्र के स्वर्णकाल से गुज़र रहा था। वह पूरी तरह से वयस्क हो चुका था और कम्युनिज़्म की स्थापना के लिए किए जा रहे संघर्ष में हाथ बँटाने के लिए पूरे तन और मन से तैयार था। उसके सामने एक विस्तृत महान रास्ता खुल गया था और सर्वहारा वर्ग का प्रतिभाशाली प्रचारक-कवि व्लदीमिर मायकोवस्की विश्वासपूर्वक डग भरता हुआ अपने बड़े-बड़े क़दमों से उस महान् रास्ते पर आगे बढ़ रहा था।
मूल रूसी से अनुवाद : अनिल जनविजय




गुरुवार, 10 सितंबर 2015

रूसी कवि अलेक्सान्दर ब्लोक की कविताएँ

अलेक्सान्दर ब्लोक की कविताएँ
प्रेम करता हूँ मैं आपको मदाम !

मौत की गोद में जा रहे हैं क़बीले
बीत रहे हैं तेज़ी से गुज़र रहे हैं साल
कोई छीन नहीं सकता दिन प्रेम के नशीले
कसमसाएँ दिल में जो करते हैं धमाल

सिर्फ़ एक बार देखना चाहता हूँ तुझे
झुकना चाहता हूँ क़दमों में तेरे, सरेआम
कहना चाहता हूँ मरने से पहले यह तुझे
प्रेम करता हूँ मैं आपको, मदाम !

जीवित हूँ मैं अभी, हिया मेरा बघेरा
जानकर यह तुम कि जीवित हूँ मैं
ख़ूब गहरी नींद सो रही हो, प्रिया !
पर भड़क उठेगा मेरा गुस्सा जिस समय
तोड़ डालूँगा तब मैं, तुम्हारा यह जूआ

याद होगा तुम्हें शायद पुराना वह गीत
जिसमें आधी रात को मृतक एक किशोर
क़ब्र से उठ आया था निभाने को रीत
फिर साथ ले गया अपने वह कन्या चित्त-चोर

ओ अनुपमे ! ओ सुलक्षणे ! तू विश्वास कर मेरा
बहुत भोली और पवित्र, प्यारी बालिका है तू
जीवित हूँ मैं अभी, हिया मेरा बघेरा
सभी मृतकों से बलशाली है अभी मेरी रुह


रूसी से अनुवाद : अनिल जनविजय

सीथियाई
माना तुम हो लाखों
लेकिन हम प्रचण्डधारा अटूट हैं
वेग हमारा रोक नहीं पाओगे
हम हैं सीथिआई

सोचो रक्त एशिया अपना
सामूहिक भूखें वक्र बनाती हैं
अपनी भकुटी को

धीमे-धीमे शब्द तुम्हारे
अपने लिए मात्र घंटे-से
चाटुकर गर्हित दासों-सा है यूरोप तुम्हारा
मंगोल दलों से जिसे बचाता
पर्वताकार विस्तृत अपार पौरुष अपना

सदियों रोक षड़यन्त्रों को
तुमने हिम दरकन-सा
सुनी पुकारें अनहोनी अनजान कथा-सी
लिस्बन और मसीना की

सदियों स्वन तुम्हारे सीमित थे पूरब तक
लूटा माल चुराये मोती छिपा लिया सब
धोका देकर घेरा हमको बन्दूकों से

आ पहुँचा है समय
कयामत ने अपने डैने फैलाये
बहुत कर चुके तुम अपमानित
अब अपनी भकुटी तनती है
घंटा बजा कि हमने तोड़ा
अहं तुम्हारे का दुखदायी घेरा
ढेर लगाया दुर्बल पैस्तमों का

अत:वद्ध जग ठहरो
वरना जो अन्तिम आशा है
उसका अन्त निकट है
लो प्रज्ञा से काम
तुम्हारे चमत्कार अब श्रान्त-क्लान्त है
वद्ध ईडिपस
स्फिंक्स खड़ा है अब भी
इसके सम्मुख आओ
पढो द्गों में गूढ पहेली


रात सड़क लैम्प...  
रात
सड़क
लैम्प
कैमिस्ट की दुकान

धुंधली और अर्थहीन रोशनी
और अगर जिओ तुम
एक चौथाई शताब्दी
तब भी सभी कुछ
होगा ऎसा ही
इससे निकलने का
रास्ता नहीं

मर जाओगे
नए सिरे से फिर से शुरू करोगे
और पुराने जैसा
सब कुछ दोहराओगे


रात
सड़क
लैम्प
कैमिस्ट की दुकान
अंग्रेज़ी से अनुवाद : रमेश कौशिक

इवान बूनिन को याद करते हुए

इवान बूनिन को याद करते हुए


इवान बूनिन की मृत्यु विदेश में और मुसीबतों से भरा जीवन जीते हुए फ़्राँस में हुई और वे हमेशा अपने देश को याद करते हुए अपनी जनता को याद करते हुए, गहरे वियोग में तड़पते रहे। ये पंक्तियाँ रूस के एक महान् कवि और श्रेष्ठ लेखक इवान बूनिन को याद करते हुए रूसी लोग प्रायः दोहराते हैं। इवान बूनिन ऐसे पहले रूसी लेखक थे, जिन्हें नोबल पुरस्कार मिला था। 22 अक्तूबर को इवान बूनिन का जन्मदिन मनाया जाता है। आज अगर वे हमारे बीच होते तो 140 वर्ष के हो गए होते।
इवान अलेक्सेयविच बूनिन का जन्म 22 अक्तूबर 1870 को वरोनेझ नगर के निकट एक जागीरदार परिवार में हुआ था। वरोनेझ मध्य-रूस का एक प्रसिद्ध प्रांत है और जैसाकि बूनिन ने अपनी आत्मकथा में लिखा है - "तलस्तोय सहित रूस के करीब-करीब सभी महान् लेखक मध्य-रूस में ही जन्मे हैं।"
इवान बूनिन ने बहुत छोटी उम्र में लिखना शुरू कर दिया था। वे निबन्ध, रेखाचित्र और कविताएँ लिखा करते थे। उनके रचनाएँ इतनी गम्भीर होती थीं कि रूसी आलोचकों और समीक्षकों का ध्यान तुरन्त ही उनकी ओर चला गया और 1903 में रूस की विज्ञान अकादमी ने उन्हें पूश्किन पुरस्कार देकर सम्मानित किया। बूनिन को दो बार पूश्किन पुरस्कार दिया गया। फिर 1909 में इवान बूनिन को रूस की साहित्य अकादमी का महत्तर सदस्य चुन लिया गया। इस तरह क्रान्तिपूर्व ज़ारकालीन रूस में इवान बूनिन सबसे कम उम्र के अकादमीशियन बन गए थे।
ख़ुद इवान बूनिन का मानना था कि पाठकों के बीच उनकी लोकप्रियता उनकी कहानियों से बढ़ी। उनकी लम्बी कहानियोँ का संग्रह "गाँव" जब प्रकाशित होकर आया तो पाठकों के बीच बेहद लोकप्रिय हो गया क्योंकि उसमें गाँव का सच्चा रूप, गाँव का सही और सच्चा जीवन दिखाया गया था। लेकिन उस क़िताब को उनके समकालीन लेखकों ने स्वीकार नहीं किया क्योंकि बूनिन के अनुसार उन कहानियों में गाँव की निर्मम और बेरहम सच्चाई को उन्होंने निदर्यता के साथ व्यक्त किया था। लेकिन उनकी ये ही कहानियाँ भविष्यदृष्टा कहानियाँ मानी जाती हैं क्योंकि 1917 की महान् अक्तूबर समाजवादी क्रान्ति ने गाँव के उस जीवन को ही पूरी तरह से ख़त्म कर दिया, जो इवान बूनिन को बेहद प्रिय था।
समाजवादी क्रान्ति के बाद 1918 में इवान बूनिन मास्को छोड़कर रूस के दक्षिण में जाकर रहने लगे थे। रूस में "लाल सेना" और "श्वेत सेना" के बीच चल रहे गृहयुद्ध के दौरान रूस का यह दक्षिणी इलाका कभी लाल सेना के हाथ लग जाता था तो कभी उस पर फिर से श्वेत सेना का कब्ज़ा हो जाता। बूनिन इस गृह-युद्ध से बेहद परेशान और दुखी थे। दो वर्ष बाद उन्होंने रूस छोड़ने का निर्णय ले लिया। वे एक जलयान से पहले बलकान क्षेत्र में पहुँचे और वहाँ से वे फ़्राँस चले गए। बूनिन की जो रचनाएँ आज सारी दुनिया में प्रसिद्ध हैं, वे सभी रचनाएँ उन्होंने अपने प्रवास-काल में ही लिखीं।
इवान बूनिन और उनकी पत्नी वेरा मुरमत्सेवा शुरू में कुछ समय पेरिस में रहे और उसके बाद फ़्राँस के दक्षिण में स्थित ग्रास नगर में रहने चले गए। फिर यहीं पर उन्होंने अपने जीवन का लम्बा समय बिताया। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान और उसके बाद भी काफ़ी लम्बे समय तक बूनिन परिवार ग्रास में ही रहा। फ़्राँस में बूनिन ने ढेरों नई कहानियाँ और उपन्यास लिखे। फिर 1930 में उनका आत्मकथात्मक उपन्यास "अरसेनी का जीवन" प्रकाशित हुआ। इस उपन्यास पर उन्हें नोबल पुरस्कार दिया गया।
10 नवम्बर 1933 को इवान बूनिन को नोबल पुरस्कार देने की घोषणा की गई। लेकिन बूनिन की रचनाएँ उससे पहले ही यूरोप में लोकप्रिय हो चुकी थीं। नोबल पुरस्कार ने उन्हें विश्वप्रसिद्ध लेखक बना दिया। इवान बूनिन को नोबल पुरस्कार के रूप में जो बड़ी धनराशि मिली थी, वह जल्दी ही ख़त्म हो गई क्योंकि बूनिन को पैसे को संभाल कर रखना नहीं आता था। इसके बाद के साल बूनिन परिवार ने बेहद ग़रीबी और निर्धनता में बिताए। द्वितीय विश्वयुद्ध के वर्षों में जब तक फ़्राँस पर फ़ासिस्ट जर्मनी का अधिकार रहा, बूनिन ने कुछ नहीं लिखा। उनका कहना था कि फ़ासिस्टों के साथ मैं कोई सहयोग नहीं करूँगा। फिर 1943 में न्यूयार्क में बूनिन की प्रेम-कहानियों का एक संग्रह प्रकाशित हुआ, जिसका नाम था "अँधेरी गलियाँ"।
अपने जीवन के अन्तिम वर्षों में इवान बूनिन महान् रूसी लेखक अन्तोन चेख़व के बारे में एक संस्मरणात्मक पुस्तक लिख रहे थे। लेकिन वह पुस्तक अधूरी रह गई। 8 नवम्बर 1953 की रात को अपनी पत्नी की गोद में सिर रखे-रखे इवान बूनिन का देहान्त हो गया। उन्हें पेरिस की सेंत झेनेव्येव-दे-बुआ रूसी कब्रगाह में दफ़ना दिया गया। तत्कालीन रूस में यानी तब के सोवियत संघ में इवान बूनिन की रचनायें प्रकाशित करने पर प्रतिबंध लगा हुआ था। लेकिन बूनिन की मृत्यु के बाद बूनिन की स्वदेश वापसी हो गई। 1954 से सोवियत संघ में बूनिन की कविताओं और कहानियों का प्रकाशन किया जाने लगा। करोड़ों की संख्या में उनकी रचनाएँ रूस में प्रकाशित हुईं। उनकी अब तक कई रचनावलियाँ और उनकी "चुनी हुई रचनाओं" के बीसियों संग्रह रूस में प्रकाशित हो चुके हैं। यहाँ यह बात भी उल्लेखनीय है कि रूस में उनकी वे किताबें, जिनमें उन्होंने रूस की अक्तूबर समाजवादी क्रान्ति के दिनों का ज़िक्र किया था, सिर्फ़ सोवियत संघ के विघटन से कुछ पहले ही प्रकाशित होनी शुरू हुई थीं। यहाँ हम  पाठकों के लिए उनकी कुछ कविताएँ प्रकाशित कर रहे हैं। इन सभी कविताओं का मूल रूसी भाषा से हिन्दी में अनुवाद किया है - हिन्दी के कवि अनिल जनविजय ने।

ऊपर की तरफ़ श्वेतकेशी आकाश है मेरे
ऊपर की तरफ़ श्वेतकेशी आकाश है मेरे
और सामने वन
उघड़ा पड़ा है नग्न
नीचे की तरफ़ जंगली पगडंडी को घेरे
काली कीच
पत्तियों को
कर रही है भग्न

ऊपर हो रहा है ठंड का सर्द शोर
नीचे बिछी है चुप्पी
जीवन के मुरझाने से
पूरे यौवन भर यूँ तो मैं
भटकता रहा घनघोर
बस, ख़ुशी मिली तब मुझे,
किसी विचार के आने से

(1889)


कल रात दूर कही कोई
कल रात दूर कहीं कोई गाता रहा देर तक
अँधेरे में जूतियाँ कोई चटकाता रहा देर तक
दूर वहाँ पर गूँजती रही एक उदास आवाज़
बज रहा था बीते सुख और आज़ादी का साज

खिड़की खोली मैंने और गीत वह सुनता रहा
सो रही तू...... मैं रूप तेरा गुनता रहा
वर्षा से भीगी थी रई, खेत महक रहा था
ठंडी और सुगंधित रात, मन बहक रहा था

उस पीड़ित कंपित स्वर ने रुह को जगा दिया
पता नहीं क्यों, उसने मुझको उदास बना दिया
मन में मेरे आया तुझ पर तब वैसा ही लाड़
कभी जैसे तू करती थी मुझसे जोशीला प्यार

(1889)


रंग उड़ गया उस हल्के नीले दीवारी काग़ज़ का 
रंग उड़ गया उस हल्के नीले, दीवारी काग़ज़ का
झलक रही थी कभी वहाँ जो, उस सारी सजधज का
सिर्फ़ वहीं दिखाई देता है अब, थोड़ा-बहुत रंग नीला
जहाँ टँगा था कई वर्षों तक, पोस्टर एक भड़कीला

भूल चुका यह दिल अब, वह सब भूल चुका है
मन को था भाता जो भी, अब मिल धूल चुका है
सिर्फ़ बची यादें उनकी, जो जीवन छोड़ गए
चले गए वे उस दुनिया में, हमसे मुँह मोड़ गए

(31 जनवरी 1916)


रो रही थी विधवा वह उस रात
रो रही थी विधवा वह उस रात
छोड़ चुका था बच्चा जिसका साथ
--हाय! मेरे प्यारे! मेरे लाल !
मुझे इस दुनिया में अकेला छोड़
तू चला गया क्यों, मुझ से मुँह मोड़

उसका बूढ़ा पड़ोसी भी रो रहा था
हाथों से अपने आँखें मल-मल के
रो रहा था नन्हा मेमना भी
ऊपर चमक रहे थे तारे झल-मल से

और अब
रोती है वह माँ रातों को
रोती है रात भी हर रात
दूसरों को भी रुलाती है वह अपने साथ
आकाश में आँसूँ बहाते हैं सितारे
आँखों को मल-मल रोता है ख़ुदा
उस बच्चे को याद कर प्यारे

(24 मार्च 1914)


शब्द

मौन हैं समाधियाँ और क़ब्रें
चुप हैं शव और अस्थियाँ
सिर्फ़ जीवित हैं शब्द झबरे

अँधेरे में डूबे हैं महीन
यह दुनिया क़ब्रिस्तान है
सिर्फ़ शिलालेख बोलते हैं प्राचीन

शब्द के अलाबा ख़ास
और कोई सम्पदा नहीं है
हमारे पास

इसलिए
सम्भाल कर रखो इन्हें
अपनी पूरी ताक़त भर
इन द्वेषपूर्ण दुःख-भरे दिनों में

देना न इन्हें कहीं तुम फेंक
बोलने की यह ताक़त ही
हमारी अमर उपलब्धि है एक

(07 जनवरी 1915, मस्कवा)


कवि से
हमेशा गहरे कुओं का जल
होता है मीठा-शीतल
पर सुस्त और आलसी चरवाहा
जल किसी डबरे से लाता है
अपने रेवड़ को भी वह
गंदा जल वही पिलाता है
लेकिन सज्जन है जो जन
वह करेगा सदा यही प्रयत्न
डोल अपना किसी कुएँ में डालेगा
रस्सियों को आपस में कसकर बाँध
जल वहाँ से निकालेगा

अनमोल हीरा
गिर गया जो अँधेरी रात में
ढूँढ़ता है यह दास उसे
दो कौड़ी के मोमबत्ती के प्रकाश में
धूल भरी राहों को वह
बड़े ध्यान से देखता
और उन पर रोशनी
अपनी शमा की फेंकता
अपने सूखे हाथों से वह
लौ को है घेरता
हवा और अँधेरे को
पीछे की ओर ढकेलता

याद रहे यह
कि आख़िर वह सब कुछ पा लेगा
एक दिन आएगा ऐसा
जब वह हीरा ढूँढ़ निकालेगा ।

(25 अगस्त 1915)


अकेलापन
ठंडी शाम थी वह
दुबली-पतली एक विदेशी औरत
नहा रही थी समुद्र में लगभग निर्वसन
और सोच रही थी मन ही मन
कि अपनी उस नेकर में नीली
शरीर से चिपकी है जो गीली
अधनंगी पानी से बाहर वह निकलेगी जब
शायद पुरुष उसे देखेगा तब

बाहर आई वह समुद्र से
पानी उसके शरीर से टपक रहा था खारा
रेत पर बैठ गई ओढ़ कर लबादा
खा रही थी वह अब एक आलूबुखारा

समुद्र किनारे उगा हुआ था झाड़-झँखाड़
झबरे बालों वाला कुत्ता एक वहाँ खड़ा था खूँखार
भौंकता था वह कभी-कभी ज़ोर से
ख़ुशी से उमग कर लहरों के शोर से
अपने गर्म भयानक जबड़ों में
पकड़ना चाहता था
वह काली गेंद जिसे उड़ना आता था
जिसे होप...होप करते हुए
फेंक रही थी वह औरत
दूर से लग रही थी जो
बिल्कुल संगमरमर की मूरत

झुटपुटा हो चला था
उस स्त्री के पीछे दूर
जलने लगा था एक प्रकाशस्तम्भ
किसी सितारे की तरह था उसका नूर
समुद्र के किनारे गीली थी रेत
ऊपर चाँद निकल आया था श्वेत
लहरों पर सवार हो वह
टकरा रहा था तट से
बिल्लौरी हरी झलक दिखा अपनी
फिर छुप जाता था झट से

वहीं पास में
चाँदनी से रोशन आकाश मे
सीधी खड़ी ऊँची चट्टान पर
एक बैंच पड़ी थी वहाँ मचान पर
पास जिसके लेखक खड़ा था खुले सिर
एक गोष्ठी से लौटा था वह आज फिर
हाथ में उसके सुलग रहा था सिगार
व्यंग्य से मुस्कराया वह जब आया यह विचार
"पट्टियों वाली नेकर में इस स्त्री का तन
खड़ा हो ज़ेबरा जैसे अफ़्रीका के वन"

(10 सितम्बर 1915)


विमाता
मैं ग़रीब अनाथ बालिका थी
और माँ क्रूर थी मेरी
जब घर लौटी मैं, झोंपड़ी थी खाली
और रात अँधेरी

माँ ने मुझे ढकेल दिया था
एक काले अँधेरे वन में
अनाज छानने-फटकारने को,
पिसने को जीवन में

अन्न साफ़ किया मैंने बहुत,
पर जीवन-गान नहीं था
दरवाज़े की साँकल बज उठी
पाहुन अनजान नहीं था

चौखट में दिखलाई दिए मुझे
लौहबन्द लगे दो सींग
यह झबरे पैरों वाली माँ थी,
जो मार रही थी डींग

अपने कठोर दाएँ पंजे से,
झपट उसने मुझे उठाया
विवाह-वेदी पर नहीं मुझे
पीड़ा-वेदी पर बैठाया

भेजा उसने मुझे ऐसी जगह,
घने वनों के पार
जहाँ तीव्रधार नदियाँ बहती थीं
हिम पर्वत था दुश्वार

पर जंगल पार किए मैंने सब,
शमा हाथ में लेकर
उन तेज़ नदियों को लाँघा,
निकले आँसू बह-बह कर

फिर हिम पर्वत पर खड़ी हो गई,
लिए बिगुल एक हाथ
सुनो, लोगो सुनो, जिसे प्यार मैं करती हूँ,
अब वह है मेरे साथ

(20 अगस्त 1913)


तुम्हारा हाथ
तुम्हारा हाथ
अपने हाथ में लेता हूँ
और फिर देर तक उसे
ध्यान से देखता रहता हूँ

मीठी अनुभूतियों से भरी तुम
आँखें झुकाए बैठी हो

इन हाथों में
तुम्हारा सारा जीवन
समाया हुआ है

महसूस कर रहा हूँ मैं
तुम्हारे शरीर की अगन
और डूब रहा हूँ
तुम्हारी आत्मा की गहराइयों में

और भला क्या चाहिए ?
सुखद हो सकता है क्या जीवन
इससे अधिक ?

पर
ओ देवदूत विद्रोही
हम परवानों पर झपटने वाला है
वह तूफ़ान
सनसना रहा है जो दुनिया के ऊपर
मौत का संदेश लेकर

(1898)


जवानी
सूखे जंगल में लम्बा चाबुक मार रही है
झाड़ी में गाय मुँह जैसे डाल रही है
नीले-पीले-लाल-गुलाबी फूल खिले हैं
पैरों से दबकर सूखी पत्ती खँखार रही है

जल भरा बादल नभ में जैसे घूम रहा है
हरे खेत में ताज़ा पवन झूम रहा है
हृदय में छुपा-छुपा-सा कुछ है जो टीसे है
जीवन रेगिस्तान बना कुछ ढूँढ़ रहा है

(07 जनवरी 1916)


अलस-उनींदा बैठा था बूढ़ा
अलस-उनींदा
बैठा था बूढ़ा
खिड़की के पास आरामकुर्सी पर

मेज़ पर रखा था प्याला
ठंडी हो चुकी चाय का
उसकी उँगलियों में फँसा था सिगार
जिससे उठ रहा था सुगंधित नीला धुँआ

सर्दियों का दिन था वह
चेहरा उसका लग रहा था धुँधला
सुगन्ध भरे उस हलके धुएँ के पार
अनन्त युवा सूर्य झाँक रहा था
सुनहरी धूप ढल रही थी पश्चिम की ओर

कोने में पड़ी घड़ी टिक-टिक कर रही थी
नाप रही थी समय
बूढ़ा असहाय-सा देख रहा था सूर्यास्त
सिगार में सलेटी राख बढ़ती जा रही थी
मीठी ख़ुशबू का धुँआ
उड़ रहा था उसके आसपास

(23 जुलाई 1905)


पहला प्यार
मुझे निद्रा ने आ घेरा जब
आँधी चल रही थी और
मौसम बेहद ख़राब था
शोकाकुल मैं थका हुआ
तब पूरी तरह निराश था

पर जागा सुप्तावस्था से जब
सुख सामने खड़ा
धीमे-धीमे मुस्करा रहा था
और मुझे अपनी फूहड़ता पर
बेहद गुस्सा आ रहा था

बादल दौड़ रहे थे ऊपर
हल्की ऊष्मा से भरे हुए
गर्मी के दिन थे चमकदार
आसमान से झड़े हुए
भुर्ज-वृक्षों के नीचे पथ पर
बिछी हुई थी रेत
छाया पेड़ों की काँप रही थी
हरे-भरे थे खेत

उन हरे-भरे खेतों से होकर
समीर सीत्कार रहा था
मेरे दिल में यौवन का जोश
थपकी मार रहा था
सपने बसे हुए थे दिल में
थी तरुणाई की इच्छा
पहले क्यों यह समझ न पाया
मन चीत्कार रहा था
(1902)

मरीना स्विताएवा की कविताएँ

मरीना स्विताएवा की कविताएँ

  रूसी कवि ब्लोक के लिए   तुम्हारा नाम जैसे हाथ पर बैठी चिड़िया, तुम्हारा नाम जैसे जीभ पर


रूसी कवि ब्लोक के लिए

तुम्हारा नाम जैसे हाथ पर बैठी चिड़िया,
तुम्हारा नाम जैसे जीभ पर बर्फ़ की डली
होठों का हल्का-सा कम्पन।

तीन अक्षरों का तुम्हारा नाम
जैसे उड़ती हुई गेंद आ गई हो हाथ में
जैसे चाँदी की घण्टी की टनटनाहट।

तुम्हारे नाम का उच्चारण
जैसे शान्त तालाब में पत्थर की छपाक्
रात की धीमी-सी आहट के बीच
गूँजता है तुम्हारा नाम
कनपटियों के पास
जैसे बन्दूक के घोड़े का स्पर्श ।

तुम्हारा नाम...उफ़्फ़ ! क्या कहूँ मैं
जैसे चुम्बन कोमल कुहरे का
सहमी आँखों और पलकों पर

तुम्हारा नाम
जैसे बर्फ़ पर चुम्बन
नीले शीतल झरने के पानी का घूँट।

गहरी नींद
सुलाता है
तुम्हारा नाम !
(1916)


 शनि और रविवार के बीच*

शनि और रविवार के बीच
लटकी हूँ मैं—
बैंत के झाड़ में रहने वाली चिड़िया।
चाँदी है मेरे एक पँख पर
और दूसरे पर—
सोना ।

सुख-दुख के बीच
बँटी हुई हूँ मैं आधी-आधी
शनिवार है रजत मेरा
और स्वर्ण मेरा—
रविवार ।

उदासी बहती है मेरी धमनियों में
स्वभाव से मैं कोई चट्टान नहीं,
अपने दाहिने पँख से मैंने
गिरा दिया है एक पर ।

यदि नींद से फिर जाग गया ख़ून
और छा गया है गालों पर
तो इसका मतलब है यह कि
मैंने मोड़ दी सोने की पीठ
इस संसार की तरफ़ ।

मन भरकर देख लो—
जल्द ही दूर देशों की तरफ़
चल देगी रंग-बिरंगे पँखों वाली
बैंत के झाड़ में रहने वाली चिड़िया ।

* मरीना स्विताएवा का जन्म शनि और रवि की आधी रात को हुआ था।
(1919)

साइके
(एक)

मैं घर लौट आई हूँ
मैं छद्मवेशी नहीं हूँ ।
रोटी नहीं चाहिए मुझे
मैं नौकरानी नहीं हूँ ।

मैं हूँ तुम्हारी वासना का आवेग
आराम हूँ तुम्हारा रविवार का ।
दिन हूँ तुम्हारा सातवाँ और
हूँ तुम्हारा सातवाँ आकाश ।

एक पैसा क्या मिला भीख में
चक्की के बाँध दिए पाट मेरे गले में ।
ओ प्रिय, पहचान नहीं पा रहे हो क्या
मैं अबाबील हूँ—
तुम्हारी आत्मा।

(दो)

अभी तक जो रहा कोमल शरीर
आज ढका है चीथड़ों से,
टुकड़े-टुकड़े हो गया सब कुछ
साबुत बचे है सिर्फ़ दो पँख ।

बचाओ, तरस खाओ मुझ पर—
पहनाओ मुझे अपनी गरिमा
और ले जाओ मेरे फटे चीथड़े
अपने परिधानों के पवित्र भण्डार में ।
(1918)

 मैं लिखती रही

मैं लिखती रही स्लेट पर
लिखती रही पँखों पर
समुद्र और नदी की रेत पर
बर्फ़ पर, काँच पर ।

लिखती रही सौ-सौ बरस पुराने डण्ठलों पर
सारी दुनिया को बताने के लिए
कि तू मुझे प्रिय है, प्रिय है, प्रिय है
लिख डाला यह मैंने
इन्द्रधनुष से पूरे आकाश पर

कि इच्छा थी मेरी कि हर कोई
सदियों तक खिलता रहे मेरे साथ,
कि मेज़ पर सिर टिकाए
एक के बाद एक
काटती रही
सबके सब नाम ।

पर तू जो बँध गया है बिके हुए क्लर्क के हाथ
क्यों डंक मारता है मेरे हृदय में
जिसे मैंने बेचा नहीं वह अँगूठी
आज भी रखी है मेज़ पर
(1920)

 ज़माने ने सोचा नहीं

ज़माने ने कुछ सोचा नहीं कवि के बारे में
और मुझे भी ज़माने से क्या मतलब !
भाड़ में जाए यह गड़गड़ाहट, यह शोर
जो आ नहीं रहा है
मेरे अपने वक़्त के बीच से ।

यदि इस युग को कोई मतलब नहीं
अपने पुरखों से
तो मुझे भी कोई मतलब नहीं
पोतों-पड़पोतों की भीड़ से ।

मेरा युग— ज़हर है मेरा, बुख़ार है मेरा,
मेरा युग— दुश्मन है मेरा, नरक है मेरा ।
(1934)


. न सोच कोई, न शिकायत
न सोच कोई, न शिकायत,
न विवाद कोई, न नींद
न सूर्य की इच्छा, न चन्द्रमा की
न समुद्र की, न जहाज़ की ।

महसूस नहीं होती गरमी
इन दीवारों के भीतर की,
दिखती नहीं हरियाली
बाहर के उद्यानों की ।
इन्तज़ार नहीं रहता अब
उन उपहारों का
जिन्हें पाने की पहले
रहती थी बहुत इच्छा ।

न सुबह की ख़ामोशी भाती है
न शाम को ट्रामों की सुरीली आवाज़,
जी रही हूँ बिना देखे
कैसा है यह दिन ।
भूल जाती हूँ
कौन-सी तारीख़ है आज
और कौन-सी यह सदी ।

लगता है जैसे फटे तम्बू के भीतर
मैं एक नर्तकी हूँ छोटी-सी
छाया हूँ किसी दूसरे की
पागल हूँ दो अँधियारे चन्द्रमाओं से घिरी।

माथा चूमने पर
माथा चूमने पर
मिट जाती हैं सब चिन्ताएँ-
मैं माथा चूमती हूँ ।

आँखें चूमने पर
दूर हो जाता है निद्रा-रोग-
मैं आँखें चूमती हूँ ।

होंठ चूमने पर
बुझ जाती है प्यास-
मैं होंठ चूमती हूँ ।

माथा चूमने पर
मिट जाती हैं आहें-
मैं माथा चूमती हूँ ।


रचनाकाल : 5 जून 1917

कोरा पन्ना
मैं कोरा पन्ना हूँ तुम्हारी क़लम के लिए
सब-कुछ स्वीकार है मुझे । सफ़ेद पन्ना हूँ मैं एक ।
मैं रक्षक हूँ तुम्हारी अच्छाइयों की ।
लेती रहूँगी सौ-सौ जन्म तुम्हारे लिए ।

गाँव हूँ मैं, काली ज़मीन हूँ
और तुम- धूप और वर्षा,
ईश्वर हो तुम
और मैं काली ज़मीन और सफ़ेद पन्ना ।

रचनाकाल : 10 जुलाई 1918

 अब
अब ईश्वर नहीं पहले की तरह उदार
न ही वे नदियाँ उन तटों पर।
साँझ के विशाल द्वारों पर
चली आओ, ओ ख़ूबसूरत फ़ाख़्ताओ !

और मैं ठण्डी रेत पर लेटी
चल दूँगी बिना गिनती, बिना नाम के उस दिन...
जिस तरह पुरानी छोड़ देता है साँप केंचुल
छोड़ आई हूँ पीछे अपना यौवन।

रचनाकाल : 17 अक्तूबर 1921


मायकोव्स्की के लिए
जो ऊँचा है चिमनियों और सलीब से,
बप्तिस्मा हुआ है जिसका आग और धुएँ में,
आदि देवदूत भारी-भरकम
सदियों में एक होता है व्लादीमिर।

घोड़ा और घुड़सवार-- दोनों है वह
सनक है वह और विवेक भी।
साँस लेता, थूक से मलता है हथेलियाँ।
सम्भल जाओ, ओ भार ढोती महानता !

चौराहों के आश्चर्यों का गायक
स्वस्थ, स्वाभिमानी, मलिनमुख,
हीरे भी न कर पाए आकर्षित
चट्टान की तरह भारी उसे।

चट्टानों से चट्टान का शोर।
उबासी लेता, अभिवादन करता और पुन:
लकड़ी के हत्थे-जैसे पंखों पर
सवार होता भारी-भरकम देवदूत।

रचनाकाल : 18 सितम्बर 1921

नियति
निर्धन हूँ मैं और नश्वर-
अच्छी तरह मालूम है तुम्हें यह ।
प्रशंसा का तुम बोलते नहीं हो एक भी शब्द ।
पत्थर हो तुम और मैं एक गीत
स्मारक हो तुम और मैं एक चिड़िया ।

अर्थहीन होता है मई का महीना
काल की विराट आँखों के सामने ।
दोष न दो मुझे
मैं तो बस चिड़िया हूँ
मुझे मिली है नियति भारहीन ।

रचनाकाल : 16 मई 1920

पहला सूरज
ओ, पहले माथे के ऊपर के पहले सूरज।
सूरज की ओर धुआँ छोड़ती
बंदूक की दो नालियों-सी
ये विशाल आँखें आदम की।

ओ पहली ख़ुशी
ओ बाँये पक्ष के पहले सर्पदंश।
ओ, ऊँचे आकाश पर नज़र गड़ाए
हौवे की झलक पाते आदम।

उच्च आत्माओं के जन्मजात घाव-
ओ मेरी ईर्ष्या, मेरी जलन।
ओ मेरे सब आदमों से अधिक जीवन्त पति
ओ प्राचीनों के निरंकुश सूरज।

रचनाकाल : 10 मई 1921

मालूम है मुझे
मालूम है मुझे
कैसी होती हैं दुनिया की सुन्दरताएँ,
कि यह सुन्दर नक्काशी किया प्याला
इस हवा
इन तारों
इन घोसलों से अधिक है नहीं हमारा।

मालूम है मुझे
जानती हूँ कौन है मालिक इस प्याले का।

हल्के पाँवों से आगे बढ़ता
मीनार की तरह ऊँचा
ईश्वर के डरावने और गुलाबी होंठों से
पंखों की तरह अलग हो गया है प्याला !

रचनाकाल : 30 जून 1921

चाँद बोला पागल से
यहीं रहेंगे
जो गुँथे हुए हैं इस जगह से ।
आगे ऊँचाईयाँ हैं
यदि खो जाए आख़िरी बार स्मरणशक्ति
तुम पुन: होश में आना नहीं।

मित्र नहीं होते
प्रतिभाओं और पागलों के।
अन्तिम ज्ञान-प्राप्ति के अवसर पर
ज्ञान तुम प्राप्त करना नहीं।

मैं- आँखें हूँ तुम्हारी
छतों की उल्लू-दृष्टि।
पुकारेगा जब कोई तुम्हारा नाम-
तुम सुनना नहीं।

मैं आत्मा हूँ तुम्हारी : यूरेनस
देवत्व का द्वार।
मिलन के अन्तिम अवसर पर
तुम परखना नहीं ।


यूरेनस= यहाँ यूरेनस का उल्लेख सम्भवत: एफ़्राडायटी के लिए है।


रचनाकाल : 20 जून 1923

 प्रेम
खंजर? आग?
धीरे से।
इतनी ज़ोर से बोलने की क्या ज़रूरत!

चिर-परिचित यह दर्द
जैसे आँखों के लिए हथेली,
जैसे होंठों के लिए
अपने बच्चे का नाम।

रचनाकाल : 1 दिसम्बर 1924

हथेली
हथेलियाँ ! (युवक और युवतियों
के सन्दर्भ-स्रोत)
चूमी जाती है दाईं हथेली
बाँची जाती है बाईं।

आधी रात के षड्यन्त्र के भागीदार-
मालूम करो :
क्या दिखा रही है दाईं हथेली
और क्या छिपा रही है बाईं।
बाईं हथेली- सिब्बिल-
बहुत दूर रहती है ख्याति से।
इतना ही पर्याप्त है दाईं हथेली के लिए
कि स्त्सेवोला की हथेली बनना लिखा है उसकी नियति में।

पर नफ़रत की इन लम्बी घड़ियों में भी
हम दुनिया के हाथों
सौंपते हैं पूरे दिल से
अपनी बाईं हथेली।
और ईश्वर के आक्रोश के सम्मुख
हमने कभी नहीं हिम्मत हारी
दाएँ हाथ के बल पर
हम जीते रहे बाईं हथेली की नियति।

शब्दार्थ :सिब्बिल=पौरोणिक कथाओं में भविष्यवाणी करने वाली स्त्री, जिसे अपोलो से दीर्घायु का वरदान मिला था।
स्त्सेवोला=रोम की एक दन्तकथा का नायक, जिसने अपने साहस व निडरता का परिचय देने के लिए अपना दायाँ हाथ जलती आग पर रख दिया था।

रचनाकाल : 27 अप्रैल 1923

घर
जिन लोगों ने
घर नहीं बनाए
वे अयोग्य हैं
इस धरती के

जिन लोगों ने
घर नहीं बनाए
इस धरती पर
लौट कर
नहीं आ सकते वे
भूसे या भस्मी हित शायद
कभी न धरती पर आ सकते

मैंने भी घर नहीं बनाए

ज़िन्दगी से
नदियों के उफ़ान की तरह मेरे
गालों की छिन नहीं सकोगी लाली ।
तुम-- शिकारी, पर हार नहीं मानूँगी मैं
तुम दौड़ हो तो मैं रफ़्तार ।

तुम ज़िन्दा नहीं पकड़ सकोगी मेरी आत्मा-
अपनी दौड़ की पूरी तेज़ी में
अपनी नसें चबाता हुआ
यह लचीला अरबी घोड़ा ।


रचनाकाल : 25 दिसम्बर 1924

जीवन जिया मैंने
जीवन जिया मैंने
कहूँगी नहीं ये मरते हुए ।
अफ़सोस नहीं, न ही किसी पर आरोप लगाने की ज़रूरत ।
उन्माद के तूफ़ानों और प्यार के कारनामों से अधिक
और भी हैं ज़रूरी चीज़ें इस दुनिया में ।

तुम जो पँखों से
दस्तक देते थे मेरी छाती पर
अपराधी हो मेरी युवा प्रेरणा के ।
तुम मान लो ज़िन्दा रहने का मेरा आदेश,
मैं भी मानती रहूँगी तुम्हारी हर बात ।

रचनाकाल : 30 जून 1918

 इस महानगर में
रात छाई है मेरे इस विराट महानगर में,
और मैं... दूर जा रही हूँ सोए पड़े इस घर से।
लोग सोचते हैं... होगी कोई लड़की, कोई औरत,
पर यह मैं ही जानती हूँ
क्या हूँ मैं और क्या है यह रात।

मेरा रास्ता साफ़ कर रही है जुलाई की हवा
संगीत गूँज रहा है धीमा-सा एक खिड़की में।
आज रात सुबह तक बहते रहना है हवा को
एक छाती की पतली दीवारों से दूसरी छाती में।

खड़ा है काला चिनार
खिड़की में रोशनी
घंटाघर में घण्टियों की आवाज़
हाथों में फूल।
किसी का पीछा न करता यह पाँव, यह छाया...
सब-कुछ है यहाँ
बस एक मैं नहीं।

रोशनियाँ जैसे सुनहरे मनकों के धागे,
मुँह में रात की पत्तियों का स्वाद।
मुझे मुक्त करो दिन के बंधनों से,
दोस्तो, विश्वास करो, मैं दिखती हूँ तुम्हें सिर्फ़ सपनों में।

रचनाकाल : 17 जुलाई 1916

आएँगे दिन कविताओं के
आएँगे दिन उन कविताओं के
जिन्हें लिखा मैंने छोटी उम्र में
मैं कवि हूँ-
जब स्वयं को भी नहीं था मालूम यह ।
आएँगे दिन राकेट के अँगारों के
और फव्वारों से छूटते छींटों-सी कविताओं के ।

धूप और आलस के नशे में झूमते
मन्दिर में घुस आए शिशु-देवदूतों-सी
यौवन और मृत्यु की
जो पढ़ी नहीं गईं
आएँगे दिन उन कविताओं के ।

दूकानों की धूल में बिखरी हुई
ख़रीदारों की उपेक्षा की शिकार
महँगी शराब की तरह
मेरी कविताओं के भी दिन आएँगे ।

रचनाकाल : मई 1913
 सभी कविताओं का मूल रूसी भाषा से अनुवाद : वरयाम सिंह

सोमवार, 22 मार्च 2010

येव्गेनी येव्तुशेंको

एक बड़े रूसी कवि येव्गेनी येव्तुशेंको रूस के बेहद विवादास्पद कवियों में से एक हैं। बहुत से रूसी कवि तो उन्हें सिर्फ़ इस बात पर कवि नहीं मानते क्योंकि उनकी कविताएँ एक तरह से रूस में घटने वाली घटनाओं की डायरी हैं। हिन्दी के कवि नागार्जुन की तरह वे किसी भी महत्त्वपूर्ण घटना पर तुरन्त अपनी प्रतिक्रिया दर्ज़ करते हैं और एक कविता लिख देते हैं। सबसे बड़ी बात तो यह है कि सोवियत शासन में भी, जब कवियों का दमन आम बात थी, वो सत्ता के साथ अपनी असहमती दर्ज़ करने से घबराते नहीं थे। लेकिन सरकार ने ही उन्हें नहीं छेड़ा क्योंकि वे दुनिया भर में इतने प्रसिद्ध थे कि सोवियत सरकार को ही यह डर लगा रहता था कि वह उनके विरुद्ध कार्रवाई करके कहीं दुनिया भर में विरोध की कोई मुसीबत मोल न ले ले।
येव्तुशेंको ने रूसी जीवन का बड़ा अच्छा और बड़ा सच्चा ख़ाका अपनी कविताओं में खींचा है। सन‍ 2004 में मैंने उनकी कविताओं का एक संग्रह 'मेधा बुक्स' प्रकाशन से छपवाया था, जिसका नाम था "धूप खिली थी और रिमझिम वर्षा"। यह संग्रह अब आऊट ऑफ़ प्रिंट है। आज उसी संग्रह से उनकी कुछ ऐसी कविताएँ प्रस्तुत हैं जो जीवन के हर पक्ष को चित्रित करती हैं।

1.

"औरत लोग"


मेरे जीवन में आईं हैं औरतें कितनी
गिना नहीं कभी मैंने
पर हैं वे एक ढेर जितनी

अपने लगावों का मैंने
कभी कोई हिसाब नहीं रक्खा
पर चिड़ी से लेकर हुक्म तक की बेगमों को परखा
खेलती रहीं वे खुलकर मुझसे उत्तेजना के साथ
और भला क्या रखा था
दुनिया के इस सबसे अविश्वसनीय
बादशाह के पास

समरकन्द में बोला मुझ से एक उज़्बेक-
"औरत लोग होती हैं आदमी नेक"
औरत लोगो के बारे में मैंने अब तक जो लिखी कविताएँ
एक संग्रह पूरा हो गया और वे सबको भाएँ

मैंने अब तक जो लिखा है और लिखा है जैसा
औरत लोगों ने माँ और पत्नी बन
लिख डाला सब वैसा

पुरुष हो सकता है अच्छा पिता सिर्फ़ तब
माँ जैसा कुछ होता है उसके भीतर जब
औरत लोग कोमल मन की हैं दया है उनकी आदत
मुझे बचा लेंगी वे उस सज़ा से, जो देगी मुझे
पुरुषों की दुष्ट अदालत

मेरी गुरनियाँ, मेरी टीचर, औरत लोग हैं मेरी ईश्वर
पृथ्वी लगा रही है देखो, उनकी जूतियों के चक्कर
मैं जो कवि बना हूँ आज, कवियों का यह पूरा समाज
सब उन्हीं की कृपा है
औरत लोगों ने जो कहा, कुछ भी नहीं वृथा है

सुन्दर, कोमलांगी लेखिकाएँ जब गुजरें पास से मेरे
मेरे प्राण खींच लेते हैं उनकी स्कर्टों के घेरे

2.

"पुराना दोस्त"

मुझे सपने में दिखाई देता है पुराना दोस्त
दुश्मन हो चुका है जो अब
लेकिन सपने में वह दुश्मन नहीं होता
बल्कि दोस्त वही पुराना, अपने उसी पुराने रूप में
साथ नहीं वह अब मेरे
पर आस-पास है, हर कहीं है
सिर मेरा चकराए यह देख-देख
कि मेरे हर सपने में सिर्फ़ वही है

मुझे सपने में दिखाई देता है पुराना दोस्त
चीख़ता है दीवार के पास
पश्चाताप करता है ऎसी सीढ़ियों पर खड़ा हो
जहाँ से शैतान भी गिरे तो टूट जाए पैर उसका
घृणा करता है वह बेतहाशा
मुझसे नहीं, उन लोगों से
जो कभी दुश्मन थे हमारे और बनेंगे कभी
भगवान कसम!

मुझे सपने में दिखाई देता है पुराना दोस्त
जीवन के पहले उस प्यार की तरह
फिर कभी वापिस नहीं लौटेगा जो

हमने साथ-साथ ख़तरे उठाए
साथ-साथ युद्ध किया जीवन से, जीवन भर
और अब हम दुश्मन हैं एक-दूसरे के
दो भाइयों जैसे पुराने दोस्त

मुझे सपने में दिखाई देता है पुराना दोस्त
जैसे दिखाई दे रहा हो लहराता हुआ ध्वज
युद्ध में विजयी हुए सैनिकों को
उसके बिना मैं- मैं नहीं
मेरे बिना वह- वह नहीं
और यदि हम वास्तव में दुश्मन हैं तो अब वह समय नहीं

मुझे सपने में दिखाई देता है पुराना दोस्त
मेरी ही तरह मूर्ख है वह भी
कौन सच्चा है, कौन है दोषी
मैं इस पर बात नहीं करूंगा अभी
नए दोस्तों से क्या हो सकता है भला
बेहतर होता है पुराना दुश्मन ही
हाँ, एकबारगी दुश्मन नया हो सकता है
पर दोस्त तो चाहिए मुझे पुराना ही

3.


मैंने तुम्हें बहुत समझाया
बहुत मनाया और बहलाया
बहुत देर कंधे सहलाए
पर रोती रहीं,
रोती ही रहीं तुम, हाय!

लड़ती रहीं मुझसे-
मैं तुमसे बात नहीं करना चाहती...
कहती रहीं मुझसे-
मैं तुम्हें अब प्यार नहीं करना चाहती...
और यह कहकर भागीं तुम बाहर
बाहर बारिश थी, तेज़ हवा थी
पर तुम्हारी ज़िद्द की नहीं कोई दवा थी

मैं भागा पीछे साथ तुम्हारे
खुले छोड़ सब घर के द्वारे
मैं कहता रहा-
रुक जाओ, रुक जाओ ज़रा
पर तुम्हारे मन में तब गुस्सा था बड़ा

काली छतरी खोल लगा दी
मैंने तुम्हारे सिर पर
बुझी आँखों से देखा तुमने मुझे
तब थोड़ा सिहिर कर
फिर सिहरन-सी तारी हो गई
तुम्हारे पूरे तन पर
बेहोशी-सी लदी हुई थी
ज्यों तुम्हारे मन पर
नहीं बची थी पास तुम्हारे
कोमल, नाज़ुक वह काया
ऎसा लगता था शेष बची है
सिर्फ़ उसकी हल्की-सी छाया

चारों तरफ़ शोर कर रही थीं
वर्षा की बौछारें
मानो कहती हों तू है दोषी
कर मेरी तरफ़ इशारे-
हम क्रूर हैं, हम कठोर हैं
हम हैं बेरहम
हमें इस सबकी सज़ा मिलेगी
अहम से अहम

पर सभी क्रूर हैं
सभी कठोर हैं
चाहे अपने घर की छत हो
या घर की दीवार
बड़े नगर की अपनी दुनिया
अपना है संसार
दूरदर्शन के एंटेना से फैले
मानव लाखों-हज़ार
सभी सलीब पर चढ़े हुए हैं
ईसा मसीह बनकर, यार!

4.

धूप खिली थी
और रिमझिम वर्षा
छत पर ढोलक-सी बज रही थी लगातार
सूर्य ने फैला रखी थीं बाहें अपनी
वह जीवन को आलिंगन में भर
कर रहा था प्यार

नव-अरुण की
ऊष्मा से
हिम सब पिघल गया था
जमा हुआ
जीवन सारा तब
जल में बदल गया था

वसन्त कहार बन
बहंगी लेकर
हिलता-डुलता आया ऎसे
दो बाल्टियों में
भर लाया हो
दो कम्पित सूरज जैसे

5.

बाकू के
एक प्रसूतिगृह के दरवाज़े पर
एक बूढ़ी आया ने
दंगाइयों को धमकाते हुए कहा--
हटो, पीछे हटो,
मैं हमेशा ही रला-मिला देती थी
शिशुओं के हाथों में बंधे टैग
अब यह जानना बेहद कठिन है
कि तुममें कौन है अरमेनियाई
और कौन अज़रबैजानी...

और दंगाई...
साइकिल की चेन, ईंट-पत्थरों, चाकू-छुरियों
और लोहे की छड़ों से लैस दंगाई
पीछे हट गए
पर उनमें से कुछ चीखे--छिनाल

उस बुढ़िया की
पीठ के पीछे छिपे हुए थे
डरे हुए लोग
और रिरिया रहे थे अपनी जाति से अनजान

हममें से हर एक की रगों में
रक्त का है सम्मिश्रण
हर यहूदी अरब भी है
हर अरब है यहूदी
और यदि कभी कोई भीगा किसी के रक्त में
तो मूर्खतावश, अंधा होकर
भीगा अपने ही रक्त में

एक ही प्रसूतिगृह के हैं हम
पर प्रभु ने बदल डाले हमारे टैग
हमारे जनम के कठिन दौर के पहले ही
और हमारा हर दंगा
अब ख़ुद से ही दंगा है

हे ईश्वर!
इस ख़ूनी उबाल से बचा हमें
अल्लाह, बुद्ध और ईसा के बच्चे
जिन्हें रला-मिला दिया गया था प्रसूतिगृह में ही
बिना टैग के हैं
जीवन और सौन्दर्य की तरह...

6.

हमारी माताएँ
जा रही हैं पास से हमारे
चुपचाप, दबे पाँव
वे गुज़रती जा रही है
और हम
भरपेट भोजन कर
गहन तंद्रा में पड़े हैं
हमें नहीं है कोई ख़्याल
बड़ा भयानक है यह काल

नहीं, अचानक नहीं जातीं
माँएँ हमारे पास से
एकाएक नहीं छोड़तीं वे देह
हमें लगता है सिर्फ़ ऎसा
जब अचानक
हम नहीं पाते उनका नेह

धीरे-धीरे
छिजती जाती हैं वे
धीरे-धीरे छिलती जाती है
हल्के क़दमों से बढ़ती हैं
सीढ़ियाँ उम्र की चढ़ती हैं

कभी-कभी
ऐसा होता है अचानक
बेचैन हो जाते हैं हम किसी वर्ष
मनाते हैं उनका जन्मदिन
हल्ला-गुल्ला करते हैं सहर्ष

लेकिन
यह होता है हमारा
बड़ी देर से किया गया हवन
हम बचाव नहीं कर सकते इससे
अपनी अंतरात्मा का
इससे नहीं बच पाता उनका जीवन

वे सब छोड़
चली जाती हैं
हमसे मुँह मोड़
चली जाती हैं
हम जब तक उनकी परवाह करें
गहरी तन्द्रा से जगें

हाथ हमारे उठें अचानक
ख़ुदा की दुआ में
पर जैसे वे टकराते हैं
ऊपर कहीं हवा में
पैदा हो जाती है वहाँ शीशे की दीवार
देर हो गई बहुत हमें, भाई
अब क्या करें विचार

काल भयानक निकट आ गया
महाकाल हमें भरमा गया
आँसू भरी आँखों से अब
हम देख रहे हैं सारे
कैसे चुपचाप, एक-एक कर
माँएँ स्वर्ग सिधारें

7.

मैंने दोस्त खो दिया
और आप देश की बात करते हैं
मेरा बन्धु खो गया
और आप जनता की चर्चा कर रहे हैं
मुझे नहीं चाहिए वह देश,जहाँ हर चीज़ की कीमत है
मुझे नहीं चाहिए वह जनता, जो आज़ाद होकर भी ग़ुलाम है
मेरा दोस्त खो गया, और खो गया मैं भी
हमने खो दिया वह जो देश से अधिक है
अब आसान नहीं होगा
हमें हमारी आवाज़ों से पहचानना
तो कोने में गोली एक छूटती है
तो रॉकेटों का रुदन सुनाई देता है

मैं थोड़ा-सा वह था
और वह थोड़ा-सा मैं
उसने मुझे कभी बेचा नहीं और मैंने भी उसे
देश हमेशा दोस्त नहीं होता
वह मेरा देश था
जनता बेवफ़ा दोस्त होती है
वह मेरी जनता था

मैं रूसी
वह जार्जियाई
काकेशस अब शवगृह है
लोगों के बीच बेहूदा लड़ाई जारी है
यदि दोस्त मेरा मर गया, मेरी जनता भी मर गई
यदि दोस्त मेरा मारा गया, देश भी मारा गया

अब जोड़ नहीं सकते हम
अपना टूटा हुआ वह देश
हाथ से छूट कर गिर पड़ा है जो
मृतक शरीरों के उस ढेर के बीच
दफ़ना दिया गया है जिन्हें बिना कब्र के ही

मेरा दोस्त कभी मरा नहीं
वह इसलिए दोस्त है
और दोस्त व जनता पर कभी
सलीब खड़ा नहीं किया जा सकता