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शुक्रवार, 2 अक्टूबर 2015

चेख़फ़ की कहानी - कमज़ोर

 

चेख़व की कहानी - कमज़ोर

हाल ही में मैंने अपने बच्चों की अध्यापिका यूलिया वसिल्येव्ना को अपने दफ़्तर में बुलाया। मुझे उनसे उनके वेतन का हिसाब-किताब करना था।
मैंने उनसे कहा -- आइए...आइए...बैठिए। ज़रा हिसाब कर लें। आपको पैसों की ज़रूरत होगी। पर आप इतनी संकोची हैं कि ज़रूरत होने पर भी आप ख़ुद पैसे नहीं माँगेंगी। ख़ैर...। हमने तय किया था कि हर महीने आपको तीस रुबल दिए जाएँगे।
--- चालीस...।
--- नहीं...नहीं... तीस। तीस ही तय हुए थे। मेरे पास लिखा हुआ है। वैसे भी मैं हमेशा अध्यापकों को तीस रुबल ही देता हूँ। आपको हमारे यहाँ काम करते हुए दो महीने हो चुके हैं...।
--- दो महीने और पाँच दिन हुए हैं।
--- नहीं, दो महीने से ज़्यादा नहीं। बस, दो ही महीने हुए हैं। यह भी मैंने नोट कर रखा है। तो इस तरह मुझे आपको कुल साठ रूबल देने हैं। लेकिन इन दो महीनों में कुल नौ इतवार पड़े हैं। आप इतवार को तो कोल्या को पढ़ाती नहीं हैं, सिर्फ़ थोड़ी देर उसके साथ घूमती हैं... इसके अलावा तीन छुट्टियाँ त्यौहार की भी पड़ी हैं...।
यूलिया वसील्येव्ना का चेहरा आक्रोश से लाल हो उठा था। लेकिन उन्होंने कुछ नहीं कहा और अपने घाघरे की सलवटें ठीक करती रहीं।
--- तीन त्यौहार की छुट्टियों को मिलाकर बारह दिन हुए। इसका मतलब आपकी तनख़्वाह में से बारह रूबल कम हो गए। चार दिन कोल्या बीमार रहा और आपने उसे नहीं पढ़ाया। ... तीन दिन तक आपके दाँत में दर्द रहा। तब भी मेरी पत्नी ने आपको यह इजाज़त दे दी थी कि आप उसे दोपहर में न पढ़ाया करें। इसके हुए सात रूबल। तो बारह और सात मिलाकर हुए कुल उन्नीस रूबल। अगर साठ रुबल में से उन्नीस रूबल निकाल दिए जाएँ तो आपके बचे कुल इकतालीस रूबल। क्यों... मेरी बात ठीक है न...?
--- यूलिया वसिल्येव्ना की दोनों आँखों के कोरों पर आँसू चमकने लगे थे। उनका चेहरा काँपने लगा था। घबराहट में उन्हें खाँसी आ गई और वे रुमाल से अपनी नाक साफ़ करने लगीं। पर उन्होंने कोई आपत्ति नहीं की।
--- नए साल के समारोह में आपने एक कप-प्लेट भी तोड़ दिया था। दो रूबल उनके भी जोड़िए। प्याला तो बहुत ही महँगा था। बाप-दादा के ज़माने का था। लेकिन, चलिए... छोड़ देता हूँ। आख़िर नुक़सान तो हो ही जाता है। बहुत-कुछ गँवाया है...एक प्याला और सही। आगे... आपकी लापरवाही के कारण कोल्या पेड़ पर चढ़ गया था और उसने अपनी जैकेट फाड़ ली थी। दस रूबल उसके। फिर आपकी लापरवाही के कारण ही नौकरानी वार्या के जूते लेकर भाग गई। आपको सब चीज़ों का ख़याल रखना चाहिए। आख़िर आपको इसी काम के लिए रखा गया है। जूतों के भी पाँच रूबल लगाइए... और दस जनवरी को आपने मुझसे दस रूबल उधार लिए थे...।
--- नहीं, मैंने आपसे कुछ नहीं लिया। यूलिया वसिल्येव्ना ने फुसफुसा कर कहा।
--- लेकिन मैंने यह नोट कर रखा है।
--- चलिए...चलिए... ठीक है। कुल सत्ताईस रूबल हुए।
--- इकतालिस में से सत्ताईस घटाइए। बाक़ी बचे चौदह।
--- उनकी दोनों आँखें आँसुओं से भर गई थीं। उनकी सुन्दर और लम्बी नाक पर पसीने की बूँदें झलकने लगी थीं। बेचारी लड़की !
--- मैंने सिर्फ़ एक ही बार पैसे लिए थे -- उन्होंने काँपती हुई आवाज़ में कहा -- आपकी पत्नी से मैंने तीन रूबल लिए थे। इसके अलावा कभी कुछ नहीं लिया...।
--- अच्छा? अरे, यह तो मेरे पास लिखा हुआ ही नहीं है। तो चौदह में से तीन और घटा दीजिए। बाक़ी बचे ग्यारह। ...लीजिए, ये रहे आपके पैसे। तीन...तीन...तीन.. एक... और एक... उठा लीजिए।
और मैंने उन्हें ग्यारह रूबल दे दिए। उन्होंने चुपचाप पैसे ले लिए और काँपते हुए हाथों से उनको अपनी जेब में रख लिया।
--- धन्यवाद। उन्होंने फ़्राँसिसी भाषा में फुसफुसाकर कहा।
मैं झटके से उठ खड़ा हुआ और कमरे में चक्कर काटने लगा। मुझे गुस्सा आ गया था।
--- किसलिए धन्यवाद? मैंने पूछा।
--- पैसों के लिए धन्यवाद।
--- पर मैंने तो आपको लूट लिया है। बेड़ा ग़र्क हो मेरा ! किसलिए धन्यवाद?
--- दूसरी जगहों पर तो मुझे यह भी नहीं दिया जाता था।
--- नहीं दिया जाता था? तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है? मैंने तो आपसे मज़ाक किया है। मैंने आपको एक क्रूर सबक सिखाया है। मैं आपका एक-एक पैसा दे दूँगा। ये देखिए, यह लिफ़ाफ़े में आपकी पूरी तनख़्वाह रखी हुई है। आप ग़लत बात का विरोध क्यों नहीं करतीं। आप चुप कैसे रह जाती हैं? क्या इस दुनिया में कोई इतना बेचारा और असहाय भी हो सकता है? क्या आपकी इच्छाशक्ति इतनी कमज़ोर है? क्या यह सम्भव है?
वह उदासी से मुस्कराई और मैंने उसके चेहरे पर पढ़ा -- हाँ, यह सम्भव है।
मैंने अपने क्रूर व्यवहार के लिए उससे माफ़ी माँगी और उसे दो महीने की पूरी तनख़्वाह के अस्सी रूबल दे दिए। वह आश्चर्यचकित हो उठी और बेहद संकोच के साथ मेरा आभार प्रकट करने लगी। फिर वो कमरे से बाहर चली गई और मैं सोचने लगा कि इस दुनिया में ताक़तवर बनना बहुत आसान बात है !
मूल रूसी भाषा से अनुवाद

मंगलवार, 29 सितंबर 2015

अन्तोन चेख़फ़ की कहानी--

                  एक छोटा-सा मज़ाक

अन्तोन चेख़व की कहानी - एक छोटा-सा मज़ाक 
 
सरदियों की ख़ूबसूरत दोपहर... सरदी बहुत तेज़ है। नाद्या ने मेरी बाँह पकड़ रखी है। उसके घुँघराले बालों में बर्फ़ इस तरह जम गई है कि वे चाँदनी की तरह झलकने लगे हैं। होंठों के ऊपर भी बर्फ़ की एक लकीर-सी
दिखाई देने लगी है। हम एक पहाड़ी पर खड़े हुए हैं। हमारे पैरों के नीचे मैदान पर एक ढलान पसरी हुई है जिसमें सूरज की रोशनी ऐसे चमक रही है जैसे उसकी परछाई शीशे में पड़ रही हो। हमारे पैरों के पास ही एक स्लेज पड़ी
हुई है जिसकी गद्दी पर लाल कपड़ा लगा हुआ है ।

—चलो नाद्या, एक बार फिसलें ! — मैंने नाद्या से कहा— सिर्फ़ एक बार ! घबराओ नहीं, हमें कुछ नहीं होगा, हम ठीक-ठाक नीचे पहुँच जाएँगे ।

लेकिन नाद्या डर रही है। यहाँ से, पहाड़ी के कगार से, नीचे मैदान तक का रास्ता उसे बेहद लम्बा लग रहा है। वह भय से पीली पड़ गई है। जब वह ऊपर से नीचे की ओर झाँकती है और जब मैं उससे स्लेज पर बैठने को कहता हूँ तो जैसे उसका दम निकल जाता है। मैं सोचता हूँ— लेकिन तब क्या होगा, जब वह नीचे फिसलने का ख़तरा उठा लेगी! वह तो भय से मर ही जाएगी या पागल ही हो जाएगी ।

—मेरी बात मान लो ! — मैंने उससे कहा — नहीं-नहीं, डरो नहीं,  तुममें हिम्मत की कमी है क्या ?

आख़िरकार वह मान जाती है। और मैं उसके चेहरे के भावों को पढ़ता हूँ। ऐसा लगता है जैसे मौत का ख़तरा मोल लेकर ही उसने मेरी यह बात मानी है। वह भय से सफ़ेद पड़ चुकी है और काँप रही है। मैं उसे स्लेज पर बैठाकर, उसके कन्धों पर अपना हाथ रखकर उसके पीछे बैठ जाता हूँ। हम उस अथाह गहराई की ओर फिसलने लगते हैं। स्लेज गोली की तरह बड़ी तेज़ी से नीचे जा रही है। बेहद ठंडी हवा हमारे चेहरों पर चोट कर रही है। हवा ऎसे चिंघाड़ रही है कि लगता है, मानों कोई तेज़ सीटी बजा रहा हो। हवा जैसे गुस्से से हमारे बदन को चीर रही है, वह हमारे सिर उतार लेना चाहती है। हवा इतनी तेज़ है कि साँस लेना भी मुश्किल है। लगता है, मानों शैतान हमें अपने पंजों में जकड़कर गरजते हुए नरक की ओर खींच रहा है। आसपास की सारी चीज़ें जैसे एक तेज़ी से भागती हुई लकीर में बदल गई हैं। ऐसा महसूस होता है कि आनेवाले पल में ही हम मर जाएँगे ।

मैं तुम से प्यार करता हूँ, नाद्या ! — मैं धीमे से कहता हूँ ।

स्लेज की गति धीरे-धीरे कम हो जाती है। हवा का गरजना और स्लेज का गूँजना अब इतना भयानक नहीं लगता। हमारे दम में दम आता है और आख़िरकार हम नीचे पहुँच जाते हैं। नाद्या अधमरी-सी हो रही है। वह सफ़ेद पड़ गई है। उसकी साँसें बहुत धीमी-धीमी चल रही हैं... मैं उसकी स्लेज से उठने में मदद करता हूँ ।

अब चाहे जो भी हो जाए मै कभी नहीं फिसलूँगी, हरगिज़ नहीं! आज तो मैं मरते-मरते बची हूँ। — मेरी ओर देखते हुए उसने कहा। उसकी बड़ी-बड़ी आँखों में ख़ौफ़ का साया दिखाई दे रहा है। पर थोड़ी ही देर बाद वह सहज हो गई और मेरी ओर सवालिया निगाहों से देखने लगी। क्या उसने सचमुच वे शब्द सुने थे या उसे ऐसा बस, महसूस हुआ था, सिर्फ़ हवा की गरज थी वह? मैं नाद्या के पास ही खड़ा हूँ। मैं सिगरेट पी रहा हूँ और अपने दस्ताने को ध्यान से देख रहा हूँ।

नाद्या मेरा हाथ अपने हाथ में ले लेती है और हम देर तक पहाड़ी के आसपास घूमते रहते हैं। यह पहेली उसको परेशान कर रही है। वे शब्द जो उसने पहाड़ी से नीचे फिसलते हुए सुने थे, सच में कहे गए थे या नहीं? यह बात वास्तव में हुई या नहीं। यह सच है या झूठ? अब यह सवाल उसके लिए स्वाभिमान का सवाल हो गया है. उसकी इज़्ज़त का सवाल हो गया है। जैसे उसकी ज़िन्दगी और उसके जीवन की ख़ुशी इस बात पर निर्भर करती है। यह बात उसके लिए महत्त्वपूर्ण है, दुनिया में शायद सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण। नाद्या मुझे अपनी अधीरता भरी उदास नज़रों से ताकती है, मानों मेरे अन्दर की बात भाँपना चाहती हो। मेरे सवालों का वह कोई असंगत-सा उत्तर देती है। वह इस इन्तज़ार में है कि मैं उससे फिर वही बात शुरू करूँ। मैं उसके चेहरे को ध्यान से देखता हूँ — अरे, उसके प्यारे चेहरे पर ये कैसे भाव हैं ? मैं देखता हूँ कि वह अपने आप से लड़ रही है, उसे मुझ से कुछ कहना है, वह कुछ पूछना चाहती है। लेकिन वह अपने ख़यालों को, अपनी भावनाओं को शब्दों के रूप में प्रकट नहीं कर पाती। वह झेंप रही है, वह डर रही है, उसकी अपनी ही ख़ुशी उसे तंग कर रही है...। — सुनिए! — मुझ से मुँह चुराते हुए वह कहती है। — क्या बात है ? — मैं पूछता हूँ । — चलिए, एक बार फिर फिसलें ।

हम फिर से पहाड़ी के ऊपर चढ़ जाते हैं। मैं फिर से भय से सफ़ेद पड़ चुकी और काँपती हुई नाद्या को स्लेज पर बैठाता हूँ। हम फिर से भयानक गहराई की ओर फिसलते हैं। फिर से हवा की गरज़ और स्लेज की गूँज हमारे कानों को फाड़ती है और फिर जब शोर सबसे अधिक था मैं धीमी आवाज़ में कहता हूँ — मैं तुम से प्यार करता हूँ, नाद्या ।

नीचे पहुँचकर जब स्लेज रुक जाती है तो नाद्या एक नज़र पहले ऊपर की तरफ़ ढलान को देखती है जिससे हम अभी-अभी नीचे फिसले हैं, फिर दूसरी नज़र मेरे चेहरे पर डालती है। वह ध्यान से मेरी बेपरवाह और भावहीन आवाज़ को सुनती है। उसके चेहरे पर हैरानी है। न सिर्फ़ चेहरे पर बल्कि उसके सारे हाव-भाव से हैरानी झलकती है। वह चकित है और जैसे उसके चेहरे पर यह लिखा है — क्या बात है? वे शब्द किसने कहे थे? शायद इसी ने? या हो सकता है मुझे बस, ऐसा लगा हो, बस ऐसे ही वे शब्द सुनाई दिए हों ?

उसकी परेशानी बढ़ जाती है कि वह इस सच्चाई से अनभिज्ञ है। यह अनभिज्ञता उसकी अधीरता को बढ़ाती है। मुझे उस पर तरस आ रहा है। बेचारी लड़की! वह मेरे प्रश्नों का कोई उत्तर नहीं देती और नाक-भौंह चढ़ा लेती है। लगता है, वह रोने ही वाली है। — घर चलें? — मैं पूछता हूँ। — लेकिन मुझे... मुझे तो यहाँ फिसलने में ख़ूब मज़ा आ रहा है। — वह शर्म से लाल होकर कहती है और फिर मुझ से अनुरोध करती है — और क्यों न हम एक बार फिर फिसलें ?

हुम... तो उसे यह फिसलना 'अच्छा लगता है'। पर स्लेज पर बैठते हुए तो वह पहले की तरह ही भय से सफ़ेद दिखाई दे रही है और काँप रही है। उसे साँस लेना भी मुश्किल हो रहा है। लेकिन मैं अपने होंठों को रुमाल से पोंछकर धीरे से खाँसता हूँ और जब फिर से नीचे फिसलते हुए हम आधे रास्ते में पहुँच जाते हैं तो मैं एक बार फिर कहता हूँ — मैं तुम से प्यार करता हूँ, नाद्या !

और यह पहेली पहेली ही रह जाती है। नाद्या चुप रहती है, वह कूछ सोचती है... मैं उसे उसके घर तक छोड़ने जाता हूँ। वह धीमे-धीमे क़दमों से चल रही है और इन्तज़ार कर रही है कि शायद मैं उससे कुछ कहूँगा। मैं यह नोट करता हूँ कि उसका दिल कैसे तड़प रहा है। लेकिन वह चुप रहने की कोशिश कर रही है और अपने मन की बात को अपने दिल में ही रखे हुए है। शायद वह सोच रही है।

दूसरे दिन मुझे उसका एक रुक्का मिलता है —"आज जब आप पहाड़ी पर फिसलने के लिए जाएँ तो मुझे अपने साथ ले लें। नाद्या।" उस दिन से हम दोनों रोज़ फिसलने के लिए पहाड़ी पर जाते हैं और स्लेज पर नीचे फिसलते हुए हर बार मैं धीमी आवाज़ में वे ही शब्द कहता हूँ — मैं तुम से प्यार करता हूँ, नाद्या !

जल्दी ही नाद्या को इन शब्दों का नशा-सा हो जाता है, वैसा ही नशा जैसा शराब या मार्फ़ीन का नशा होता है। वह अब इन शब्दों की ख़ुमारी में रहने लगी है। हालाँकि उसे पहाड़ी से नीचे फिसलने में पहले की तरह डर लगता है लेकिन अब भय और ख़तरा मौहब्बत से भरे उन शब्दों में एक नया स्वाद पैदा करते हैं जो पहले की तरह उसके लिए एक पहेली बने हुए हैं और उसके दिल को तड़पाते हैं। उसका शक हम दो ही लोगों पर है — मुझ पर और हवा पर। हम दोनों में से कौन उसके सामने अपनी भावना का इज़हार करता है, उसे पता नहीं। पर अब उसे इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता। शराब चाहे किसी भी बर्तन से क्यों न पी जाए — नशा तो वह उतना ही देती है। अचानक एक दिन दोपहर के समय मैं अकेला ही उस पहाड़ी पर जा पहुँचा। भीड़ के पीछे से मैंने देखा कि नाद्या उस ढलान के पास खड़ी है, उसकी आँखें मुझे ही तलाश रही हैं। फिर वह धीरे-धीरे पहाड़ी पर चढ़ने लगती है ...अकेले फिसलने में हालाँकि उसे डर लगता है, बहुत ज़्यादा डर! वह बर्फ़ की तरह सफ़ेद पड़ चुकी है, वह काँप
रही है, जैसे उसे फ़ाँसी पर चढ़ाया जा रहा हो। पर वह आगे ही आगे बढ़ती जा रही है, बिना झिझके, बिना रुके। शायद आख़िर उसने फ़ैसला कर ही लिया कि वह इस बार अकेली नीचे फिसल कर देखेगी कि "जब मैं अकेली होऊंगी तो क्या मुझे वे मीठे शब्द सुनाई देंगे या नहीं?" मैं देखता हूँ कि वह बेहद घबराई हुई भय से मुँह खोलकर स्लेज पर बैठ जाती है। वह अपनी आँखें बंद कर लेती है और जैसे जीवन से विदा लेकर नीचे की ओर फिसल पड़ती है... स्लेज के फिसलने की गूँज सुनाई पड़ रही है। नाद्या को वे शब्द सुनाई दिए या नहीं — मुझे नहीं
मालूम... मैं बस यह देखता हूँ कि वह बेहद थकी हुई और कमज़ोर-सी स्लेज से उठती है। मैं उसके चेहरे पर यह पढ़ सकता हूँ कि वह ख़ुद नहीं जानती कि उसे कुछ सुनाई दिया या नहीं। नीचे फिसलते हुए उसे इतना डर लगा कि उसके लिए कुछ भी सुनना या समझना मुश्किल था।

फिर कुछ ही समय बाद वसन्त का मौसम आ गया। मार्च का महीना है... सूरज की किरणें पहले से अधिक गरम हो गई हैं। हमारी बर्फ़ से ढकी वह सफ़ेद पहाड़ी भी काली पड़ गई है, उसकी चमक ख़त्म हो गई है। धीरे-धीरे सारी बर्फ़ पिघल जाती है। हमारा फिसलना बंद हो गया है और अब नाद्या उन शब्दों को नहीं सुन पाएगी। उससे वे शब्द कहने वाला भी अब कोई नहीं है — हवा ख़ामोश हो गई है और मैं यह शहर छोड़कर पितेरबुर्ग जाने वाला हूँ — हो सकता है कि मैं हमेशा के लिए वहाँ चला जाऊँगा।

मेरे पितेरबुर्ग रवाना होने से शायद दो दिन पहले की बात है। संध्या समय मैं बगीचे में बैठा था। जिस मकान में नाद्या रहती है, यह बगीचा उससे जुड़ा हुआ था और एक ऊँची बाड़ ही नाद्या के मकान को उस बगीचे से अलग करती थी। अभी भी मौसम में काफ़ी ठंड है, कहीं-कहीं बर्फ़ पड़ी दिखाई देती है, हरियाली अभी नहीं है लेकिन वसन्त की सुगन्ध महसूस होने लगी है। शाम को पक्षियों की चहचहाट सुनाई देने लगी है। मैं बाड़ के पास आ जाता हूँ और एक दरार में से नाद्या के घर की तरफ़ देखता हूँ। नाद्या बरामदे में खड़ी है और उदास नज़रों से आसमान की ओर ताक रही है। बसन्ती हवा उसके उदास फीके चेहरे को सहला रही है। यह हवा उसे उस हवा की याद दिलाती है जो तब पहाड़ी पर गरजा करती थी जब उसने वे शब्द सुने थे। उसका चेहरा और उदास हो जाता है, गाल पर आँसू ढुलकने लगते हैं... और बेचारी लड़की अपने हाथ इस तरह से आगे बढ़ाती है मानो वह उस हवा से यह प्रार्थना कर रही हो कि वह एक बार फिर से उसके लिए वे शब्द दोहराए। और जब हवा का एक झोंका आता है तो मैं फिर धीमी आवाज़ में कहता हूँ — मैं तुम से प्यार करता हूँ, नाद्या !

अचानक न जाने नाद्या को क्या हुआ! वह चौंककर मुस्कराने लगती है और हवा की ओर हाथ बढ़ाती है। वह बेहद ख़ुश है, बेहद सुखी, बेहद सुन्दर।

और मैं अपना सामान बाँधने के लिए घर लौट आता हूँ...।

यह बहुत पहले की बात है। अब नाद्या की शादी हो चुकी है। उसने ख़ुद शादी का फ़ैसला किया या नहीं, इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता। उसका पति एक बड़ा अफ़सर है और उनके तीन बच्चे हैं। वह उस समय को आज भी नहीं भूल पाई है, जब हम फिसलने के लिए पहाड़ी पर जाया करते थे। हवा के वे शब्द उसे आज भी याद हैं, यह उसके जीवन की सबसे सुखद, हृदयस्पर्शी और ख़ूबसूरत याद है।

और अब, जब मैं प्रौढ़ हो चुका हूँ, मैं यह नहीं समझ पाता हूँ कि मैंने उससे वे शब्द क्यों कहे थे, किसलिए मैंने उसके साथ ऐसा मज़ाक किया था!...



मूल रूसी से अनुवाद

अन्तोन चेख़फ़ की कहानी -- ग्रीषा

अन्तोन चेख़व की कहानी -- ग्रीषा

दो साल और सात महीने पहले पैदा हुआ ग्रीषा नाम का एक छोटा और मोटा-सा लड़का अपनी आया के साथ बाहर गली में घूम रहा है। उसके गले में मफ़लर है, सिर पर बड़ी-सी टोपी और पैरों में गर्म जूते। लेकिन इन कपड़ों में उसका दम घुट रहा है और उसे बेहद गर्मी लग रही है। सूरज बड़ी तेजी से चमक रहा है और उसकी चमक सीधे आँखों में चुभ रही है। ग्रीषा क़दम बढ़ाता चला जा रहा है। किसी भी नई चीज़ को देखकर वह उसकी तरफ़ बढ़ता है और फिर बेहद अचरज से भर जाता है।
ग्रीषा ने बाहर की दुनिया में पहली बार क़दम रखा है। अभी तक उसकी दुनिया सिर्फ़ चार कोनों वाले एक कमरे तक ही सीमित थी, जहाँ एक कोने में उसका खटोला पड़ा है और दूसरे कोने में उसकी आया का सन्दूक। तीसरे कोने में एक कुरसी रखी हुई है और चौथे कोने में एक लैम्प जला करता है। उसके खटोले के नीचे से टूटे हाथों वाली एक गुड़िया झलक रही थी। वहीं कोने में खटोले के नीचे एक फटा हुआ ढोलनुमा खिलौना पड़ा हुआ है। आया के सन्दूक के पीछे भी तरह-तरह की चीज़ें पड़ी हुई हैं जैसे धागे की एक रील, कुछ उल्टे-सीधे काग़ज़, एक ढक्कनरहित डिब्बा और एक टूटा हुआ जोकर खिलौना।


ग्रीषा की दुनिया अभी बेहद छोटी है। वह सिर्फ़ अपनी माँ, अपनी आया और अपनी बिल्ली को ही जानता है। माँ उसे गुड़िया जैसी लगती है और बिल्ली माँ के फ़र के कोट जैसी। लेकिन माँ के कोट में न तो दुम ही है और न आँखें ही। ग्रीषा के कमरे का एक दरवाज़ा भोजनकक्ष में खुलता है। इस कमरे में ग्रीषा की ऊँची-सी कुरसी रखी हुई है और कमरे की दीवार पर एक घड़ी लगी हुई है, जिसका पेण्डुलम हर समय हिलता रहता है। कभी-कभी यह घड़ी घण्टे भी बजाती है। भोजनकक्ष के बराबर वाला कमरा बैठक के रूप में इस्तेमाल किया जाता है, जिसमें लाल रंग की आरामकुर्सियाँ पड़ी हुई हैं। बैठक में बिछे कालीन पर एक गहरा दाग दिखाई पड़ता है, जिसके लिए ग्रीषा को आज भी डाँटा जाता है।
बैठक के बाद घर का एक और कमरा है, जिसमें ग्रीषा को घुसना मना है। उस कमरे में अक्सर पापा आते-जाते दिखाई पड़ते हैं। पापा ग्रीषा के लिए एक पहेली ही हैं। उसकी माँ और आया तो उसकॊ कपड़े पहनाती हैं, खाना खिलाती हैं, उसको सुलाती हैं। लेकिन ये पापा किसलिए होते हैं, यह ग्रीषा को मालूम नहीं है। ग्रीषा के लिए एक और पहेली हैं उसकी मौसी। वही मौसी, जिसने उसे वह ढोल उपहार में दिया था, जो अब उसके खटोले के नीचे फटा हुआ पड़ा है। यह मौसी कभी दिखाई देती है, कभी लापता हो जाती है। आख़िर ग़ायब कहाँ हो जाती है? ग्रीषा पलंग के नीचे, सन्दूक के पीछे और सोफ़े के नीचे झाँककर देख चुका है, लेकिन मौसी उसे कहीं नहीं मिली।
इस नई दुनिया में जहाँ सूरज की धूप आँखों को चुभ रही है, इतनी ज़्यादा माँएँ और मौसियाँ हैं कि पता नहीं वह किसकी गोद में जाए? मगर सबसे अजीब हैं घोड़े। ग्रीषा उनकी लम्बी-लम्बी टाँगों को देख रहा है और कुछ समझ नहीं पा रहा। वह आया की ओर देखता है कि शायद वह उसे कुछ बताएगी। लेकिन आया भी चुप है।


अचानक क़दमों की भारी और डरावनी आवाज़ सुनाई पड़ती है। सड़क पर लाल चेहरे वाले सिपाहियों का एक दस्ता दिखाई देता है, जो धीरे-धीरे उसकी ओर बढ़ रहा है। सिपाहियों के हाथों में तौलिए हैं। वे शायद नहाकर लौटे हैं। ग्रीषा उन्हें देखकर डर गया और काँपने लगा। उसने आया की तरफ़ सवालिया निगाहों से देखा -- कहीं कोई खतरा तो नहीं है? लेकिन आया नहीं डरी थी। ग्रीषा ने सिपाहियों को आँखों ही आँखों में विदा किया और उन्हीं की तरह क़दमताल करने लगा। सड़क के उस पार लम्बी थूथनों वाली कुछ बिल्लियाँ इधर-उधर भाग रही हैं। उनकी जबानें बाहर निकली हुई हैं और पूँछें ऊपर की तरफ़ खड़ी हुई हैं। ग्रीषा सोचता है कि उसे भी भागना चाहिए और वह बिल्लियों के पीछे-पीछे बढ़ने लगता है।
--- रूको, ग्रीषा रुको। -- तभी आया ने चीख़कर कहा और उसे कन्धों पर से पकड़ लिया -- कहाँ जा रहे हो? बड़ी शरारत करते हो।
वहीं सड़क पर एक औरत टोकरी में सन्तरे लेकर बैठी हुई थी। उसके पास से गुज़रते हुए ग्रीषा ने चुपचाप एक सन्तरा उठा लिया। -- यह क्या बदतमीज़ी है? -- आया ने चिल्लाकर कहा और सन्तरा उससे छीन लिया -- तुमने यह सन्तरा क्यों उठाया?
तभी ग्रीषा की नज़र काँच के एक टुकड़े पर पड़ी, जो जलती हुई मोमबत्ती की तरह चमक रहा था। वह उस काँच को भी उठाना चाहता था, मगर डर रहा था कि उसे फिर से डाँट पड़ सकती है।
--- नमस्कार, बहन जी। अचानक ग्रीषा को कोई भारी आवाज़ सुनाई पड़ी। उसने देखा कि भारी डील-डौल वाला एक आदमी उनकी तरफ़ आ रहा था, जिसके कोट के बटन चमक रहे थे। उस आदमी ने पास आकर आया से हाथ मिलाया और वहीं खड़ा होकर उससे बातें करने लगा। ग्रीषा की ख़ुशी का कोई पारावार नहीं था। सूरज की धूप, बग्घियों का शोर, घोड़ों के दौड़ने की आवाज़ें और चमकदार बटन -- यह सब देखकर वह बेहद ख़ुश था। ये सब दृश्य ग्रीषा के लिए नए थे और उसका मन ख़ुशी से भर गया था। वह ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगा था।
--- चलो ! चल्लो ! -- उस चमकदार बटनवाले आदमी के कोट का एक पल्ला पकड़कर ग्रीषा चिल्लाया।
--- कहाँ चलें? -- उस आदमी ने पूछा।
--- चल्लो ! -- ग्रीषा ने फिर ज़ोर से कहा। वह कहना चाहता था कि कितना अच्छा हो अगर हम अपने साथ माँ, पापा और बिल्ली को भी ले लें। मगर वह अभी अच्छी तरह से बोलना नहीं जानता था।


कुछ देर बाद आया ग्रीषा को लेकर गली से एक इमारत के अहाते में मुड़ी। अहाते में बर्फ़ अभी भी पड़ी हुई थी। चमकदार बटनों वाला वह आदमी भी उनके पीछे-पीछे चल रहा था। बर्फ़ के ढेरों और अहाते में जमा हो गए पानी के चहबच्चों को बड़े ध्यान से पार करते हुए वे इमारत की गन्दी और अन्धेरी सीढ़ियों पर चढ़कर ऊपर एक कमरे में पहुँच गए।
कमरे में धुआँ भरा हुआ था। कोई चीज़ तली जा रही थी। ग्रीषा ने देखा कि अँगीठी के पास खड़ी एक औरत टिक्के बना रही है। ग्रीषा की आया ने उस रसोईदारिन का अभिवादन किया फिर पास ही पड़ी बेंच पर बैठ गई। दोनों औरतें कुछ बातचीत करने लगीं। गरम कपड़ों से लदे ग्रीषा को गरमी लगने लगी। उसने अपने आस-पास देखा और सोचा कि इतनी गरमी क्यों है। फिर कुछ देर वह रसोईघर की काली हो गई छत को ताकता रहा और फिर अँगीठी की तरफ़ देखने लगा।
--- अम्माँ -- उसने कहा।
--- अरे...अरे...रुको भई ! -- आया ने चीख़कर उससे कहा -- ज़रा इन्तज़ार करो !
तब तक रसोईदारिन ने शराब की एक बोतल और तीन जाम समोसों से भरी प्लेट के साथ मेज़ पर रख दिए। दोनों औरतों और चमकदार बटनों वाले आदमी ने अपने-अपने जाम उठाकर टकराए और वे उन्हें पीने लगे। उसके बाद उस आदमी ने आया और रसोईदारिन को गले से लगा लिया। फिर तीनों धीमी आवाज़ में कोई गीत गाने लगे।
ग्रीषा ने अपना एक हाथ समोसों की प्लेट की तरफ़ बढ़ाया। आया ने एक समोसा तोड़कर उसका एक टुकड़ा ग्रीषा को पकड़ा दिया। ग्रीषा समोसा खाने लगा। तभी उसने देखा कि आया तो कुछ पी भी रही है। उसे भी प्यास लग आती है। रसोईदारिन अपने जाम से उसे एक घूँट भरने देती है। घूँट भरने के बाद वह बुरा-सा मुँह बनाता है और घूर-घूरकर सबकी ओर देखने लगता है। फिर वह धीरे से खाँसता है और ज़ोर-ज़ोर से अपने हाथ हिलाने लगता है। रसोईदारिन उसे देखकर हँसने लगती है।


वापिस अपने घर लौटकर ग्रीषा अपनी माँ को, दीवारों को और अपने खटोले को यह बताने लगता है कि आज वह कहाँ-कहाँ गया था और उसने क्या-क्या देखा। इसके लिए वह सिर्फ़ अपनी जबान का ही इस्तेमाल नहीं करता, बल्कि अपने चेहरे के भावों और हाथों का भी इस्तेमाल करता है। वह दिखाता है कि सूरज कैसे चमक रहा था, घोड़े कैसे भाग रहे थे, अँगीठी कैसे जल रही थी और रसोईदारिन कैसे पी रही थी।
फिर शाम को उसे नींद नहीं आती। लाल चेहरे वाले सिपाही, बड़ी-बड़ी बिल्लियाँ, घोड़े, काँच का वह चमकता हुआ टुकड़ा, सन्तरे वाली औरत, सन्तरों की टोकरी, चमकदार बटन... ये सभी चीज़ें उसके दिमाग में चक्कर काट रही हैं। वह करवटें बदलने लगता है और अपने खटोले पर ही एक कोने से दूसरे कोने की ओर लुढ़कने लगता है... और आख़िरकार अपनी उत्तेजना बरदाश्त न कर पाने के कारण रोने लगता है।
--- अरे, तुझे तो बुख़ार है! -- माँ उसके माथे को छूकर कहती है -- यह बुख़ार कैसे हो गया?
--- अँगीठी... ग्रीषा रो रहा है और चीख़ रहा है --- जा...जा... अँगीठी...भाग !
शायद इसने आज ज़रूरत से ज़्यादा खा लिया है, माँ सोचती है और ग्रीषा को, जो नए दृश्यों के प्रभाव से उत्तेजित था, दवा पिलाने लगती है।
मूल रूसी से अनुवाद

अन्तोन चेख़फ़ की कहानी - भिखारी

अन्तोन चेख़व की कहानी - भिखारी

— ओ साहिब जी, एक भूखे बेचारे पर दया कीजिए! तीन दिन का भूखा हूँ। रात बिताने के लिए जेब में एक पैसा भी नहीं.. पूरे आठ साल तक एक गाँव में स्कूल मास्टर रहा.. बड़े लोगों की बदमाशी से नौकरी चली गई... ज़ुल्म का शिकार बना हूँ... अभी साल पूरा हुआ है बेरोज़गार भटकते फिरते हुए...
बैरिस्टर स्क्वार्त्सोफ़ ने भिखारी के मैले-कुचैले कोट, नशे से गंदली आँखें, गालों पर लगे हुए लाल धब्बे देखे। उन्हें लगा कि इस आदमी को कहीं पहले देखा है।
— अभी मुझे कलूगा जिले में नौकरी मिलने ही वाली है, -- भिखारी आगे बोलता गया -- पर उधर जाने के लिए पैसे नहीं हैं। कृपा करके मदद कीजिए साहिब... भीख माँगना शर्म का काम है, पर क्या करूँ, मजबूर हूँ...
स्क्वार्त्सोफ़ ने उसके रबर के जूतों पर नज़र डाली जिन में से एक नाप में छोटा और एक बड़ा था तो उन्हें एकदम याद आया —
— सुनिए, तीन दिन पहले मैं ने आपको सदोवाया सड़क पर देखा था, - बैरिस्टर बोले, -- आप ही थे न ? पर उस वक़्त आप ने मुझे बताया था कि आप स्कूल मास्टर नहीं, बल्कि एक छात्र हैं जिसे कालिज से निकाल दिया गया है। याद आया?
— न..नहीं.. यह नहीं हो सकता, -- भिखारी घबराकर बुदबुदाया। -- मैं गाँव में मास्टर ही था... चाहें तो कागज़ात दिखा दूँ...
— झूठ मत बोलो ! तुमने मुझे बताया था कि तुम एक छात्र हो, कालिज छूटने की कहानी भी सुनाई थी मुझे! अब याद आया?
स्क्वार्त्सोफ़ साहब का चेहरा गुस्से से तमतमा उठा। घृणा से मुँह बिचकाकर वे भिखारी से दो क़दम पीछे हट गए। फिर क्रोध भरे स्वर में चिल्लाए —
— कितने नीच हो तुम! बदमाश कहीं के! मैं तुम्हें पुलिस के हवाले कर दूँगा! भूखे हो, ग़रीब हो, यह ठीक है, पर इस बेशर्मी से झूठ क्यों बोलते हो?
भिखारी ने दरवाज़े के हत्थे पर अपना हाथ रखकर पकड़े गए चोर की तरह नज़र दौडाई।
— मैं... मैं झूठ नहीं बोलता... — वह बुदबुदाया — मैं कागज़ात...
— अरे कौन विश्वास करेगा! — स्क्वार्त्सोफ़ साहिब का क्रोध बढ़ता गया — गाँव के मास्टरों और ग़रीब विद्यार्थियों पर समाज जो सहानुभूति दिखाता आया है, उस से लाभ उठाना कितना गन्दा, नीच और घिनौना काम है!
स्क्वार्त्सोफ़ साहब क्रोध से आगबबूला हो उठे और भिखारी को बुरी तरह कोसने लगे। अपनी इस निर्लज्ज धोखेबाजी से उस आवारा आदमी ने उनके मन में घृणा पैदा कर दी थी और उन भावनाओं का अपमान किया था जो स्क्वार्त्सोफ़साहब को अपने चरित्र में सब से मूल्यवान लगती थीं। उनकी उदारता, भावुकता, ग़रीबों पर दया, वह भीख जो वे खुले दिल से माँगनेवालों को दिया करते थे -- सब कुछ अपवित्र करके मिट्टी में मिला दिया इस बदमाश ने! भिखारी भगवान् का नाम लेकर अपनी सफाई देता रहा, फिर चुप हो गया और उसने शर्म से सर झुका लिया। फिर दिल पर हाथ रखकर बोला—
— साहिब, मैं सचमुच झूठ बोल रहा था। न मैं छात्र हूँ और न मास्टर। मैं एक संगीतमण्डली में था। फिर शराब पीने लगा और अपनी नौकरी खो बैठा। अब क्या करूँ? भगवान् ही मेरा साक्षी है, बिना झूठ बोले काम नहीं चलता! जब सच बोलता हूँ तो कोई भीख भी नहीं देता! सच को लेकर भूखों मरना होगा या सर्दी में बेघर जम जाना होगा, बस! कहते तो आप सही हैं, यह में भी समझता हूँ, पर क्या करूँ?
— करना क्या है? तुम पूछ रहे हो कि करना क्या है! -- स्क्वार्त्सोफ़ साहब उसके निकट आकर बोले, -- काम करना चाहिए! काम करना चाहिए और क्या !
— काम करना चाहिए! यह तो मैं भी समझता हूँ, पर नौकरी कहाँ मिलेगी?
— क्या बकवास है! जवान हो, ताक़तवर हो, चाहो तो नौकरी क्यों नहीं मिलेगी? पर तुम तो सुस्त हो, निकम्मे हो, शराबी हो! तुम्हारे मुँह से तो वोदका की बदबू आ रही है जैसे किसी शराब की दूकान से आती है! झूठ, शराब और आरामतलबी तुम्हारे ख़ून की बूँद-बूँद पहुँच चुके हैं! भीख माँगने और झूठ बोलने के अलावा तुम और कुछ जानते ही नहीं! कभी नौकरी कर लेने का कष्ट उठा भी लेंगे जनाब तो बस किसी दफ्तर में, या संगीत-मण्डली में, या किसी और जगह जहाँ मक्खी मारते-मारते पैसे कमा लें! मेहनत-मजदूरी क्यों नहीं करते? भंगी या कुली क्यों नहीं बन जाते? ख़ुद को बहुत ऊँचा समझते हो!
— कैसी बात कर रहे हैं आप? - भिखारी बोला। मुँह पर एक तिक्त मुस्कान उभरी। -- मेहनत-मज़दूरी कहाँ से मिलेगी? किसी दुकान में नौकरी नहीं कर सकता, क्योंकि व्यापार बचपन से ही सीखा जाता है। भंगी भी कैसे बनूँ, कुलीन घर का हूँ... फ़ैक्टरी में भी काम करने के लिए कोई पेशा तो आना चाहिए, मैं तो कुछ नहीं जानता।
— बकवास कर रहे हो! कोई न कोई कारण ढूँढ़ ही लोगे! क्यों जनाब, लकडी फाड़ोगे?
— मैंने कब इनकार किया है, पर आज लकड़ी फाड़ने वाले मज़दूर भी तो बेकार बैठे हैं!
— सभी निकम्मे लोगों का यही गाना है! मैं मज़दूरी दिलवाता तो मुँह फेरकर भागोगे! क्या मेरे घर में लकड़ी फाड़ोगे?
— आप चाहें तो क्यों नहीं करूँगा...
— वाह रे! देखें तो सही!
स्क्वार्त्सोफ़ साहब ने जल्दी से अपनी रसोई से अपनी बावरचिन को बुलाया और नाराज़गी से बोले —
— ओल्गा, इन साहब को जलाऊ लकडी की कोठरी में ले जाओ। इनको लकडी फाड़ने के लिएव दे दो!
भिखारी अनमना-सा कन्धे हिलाकर बावरचिन के पीछे-पीछे चल पड़ा। उसके चाल-चलन से यह साफ़ दिखाई दे रहा था कि वह भूख और बेकारी के कारण नहीं, बस अपने स्वाभिमान की वजह से ही यह काम करने के लिए मान गया है। यह भी लग रहा था कि शराब पीते-पीते वह कमज़ोर और अस्वस्थ हो चुका है।काम करने की कोई भी इच्छा नहीं है उस की।
स्क्वार्त्सोफ़ साहब अपने डाइनिंग-रूम पहुँचे जहाँ से आँगन और कोठरी आसानी से दिखाई दे रहे थे। खिड़की के पास खड़े होकर उन्होंने देखा कि बावरचिन भिखारी को पीछे के दरवाज़े से आँगन में ले आई है। गन्दी-मैली बर्फ़ को रौंदते हुए वे दोनों कोठरी की ओर बढ़े। भिखारी को क्रोध भरी आँखों से देखती ओल्गा ने कोठरी के कपाट खोल दिए और फिर धड़ाम से दीवार से भिड़ा दिए।
— लगता है, हमने ओल्गा को काफ़ी नहीं पीने दी — स्क्वार्त्सोफ़ साहब ने सोचा, — कितनी ज़हरीली औरत है!
फिर उन्होंने देखा कि झूठा मास्टर लकडी के एक मोटे कुन्दे पर बैठ गया और अपने लाल गालों को अपनी मुट्ठियों में दबोचकर किसी सोच-विचार में डूब गया। ओल्गा ने उसके पैरों के पास कुल्हाड़ी फेंककर नफ़रत से थूक दिया और गालियाँ बकने लगी। भिखारी ने डरते-डरते लकड़ी का एक कुन्दा अपनी ओर खींचा और उसे अपने पैरों के बीच रखकर कुल्हाड़ी का एक कमज़ोर-सा वार किया। कुन्दा गिर गया। भिखारी ने उसे दुबारा थामकर और सर्दी से जमे हुए अपने हाथों पर फूँक मारकर कुल्हाड़ी इस तरह चलाई जैसे वह डर रहा हो कि कहीं अपने घुटने या पैरों की उँगलियों पर ही प्रहार न हो जाए। लकड़ी का कुन्दा फिर गिर गया।
स्क्वार्त्सोफ़ साहब का क्रोध टल चुका था। उन्हें ख़ुद पर कुछ-कुछ शर्म आने लगी कि इस निकम्मे, शराबी और शायद बीमार आदमी से सर्दी में भारी मेहनत-मज़दूरी किस लिए करवाई।
— चलो, कोई बात नहीं, — अपने लिखने-पढ़ने के कमरे में जाते समय उन्होंने सोचा, — उस की भलाई ही होगी!
एक घण्टे बाद ओल्गा ने अपने मालिक को सूचित किया कि काम पूरा हो गया है।
— लो, उसे पचास कोपेक दे दो, — स्क्वार्त्सोफ़ साहब ने कहा, — चाहो तो हर पहली तारीख़ को लकड़ी फाड़ने आ जाया करो। काम मिल जाएगा।
अगले महीने की पहली तारीख़ को भिखारी फिर आ गया। शराब के नशे में लड़खड़ाने पर भी उसने पचास कोपेक कमा ही लिए। उस दिन से वह जब-तब आया ही करता था। हर बार कोई न कोई काम कर ही लेता। कभी आँगन से बर्फ़ हटाता था, कभी कोठरी साफ़ करता था, कभी कालीनों और मेट्रेसों से धूल निकालता था। हर बार वह बीस-चालीस कोपेक कमाता था, और एक बार स्क्वार्त्सोफ़ साहब ने उसे अपने पुराने पतलून भी भिजवाए थे।
नए फ़्लैट में जाते समय स्क्वार्त्सोफ़ साहब ने उसे फर्नीचर बाँधने और उठाकर ले जाने में कुलियों की मदद करने को कहा। उस दिन भिखारी संजीदा, उदास और चुप्पा था। फर्नीचर पर हाथ बहुत कम रखता था, सर झुकाए इधर-उधर मण्डरा रहा था। काम करने का बहाना भी नहीं कर रहा था, बस सर्दी से सिकुड़ता रहा था और जब दूसरे कुली उसकी सुस्ती, कमज़ोरी और फटे-पुराने “साहब किस्म के” ओवरकोट का मज़ाक उड़ाते थे तो शरमाता रहा था। काम पूरा हुआ तोस्क्वार्त्सोफ़ साहब ने उसे अपने पास बुला भेजा।
— लगता है, तुम पर मेरी बातों का कुछ असर पड़ा है, — भिखारी के हाथ में एक रूबल पकडाते हुए उन्होंने कहा, —यह लो अपनी कमाई। देखता हूँ तुमने पीना छोड़ दिया है और मेहनत के लिए तैयार हो। हाँ, नाम क्या है तुम्हारा?
— जी, लुश्कोफ़...
— तो, लुश्कोफ़, अब मैं तुम्हें कोई दूसरा और साफ़-सुथरा काम दिलवा सकता हूँ। पढ़ना-लिखना जानते हो?
— जी हाँ...
— तो यह चिट्ठी लेकर कल मेरे एक दोस्त के यहाँ चले जाना। कागज़ातों की नक़ल करने की नौकरी है। सच्चे मन से काम करना, शराब मत पीना, मेरा कहना मत भूलना। जाओ!
एक पापी को सही रास्ता दिखाकर स्क्वार्त्सोफ़ साहब बहुत प्रसन्न थे। उन्होंने लुश्कोफ़ के कन्धे पर एक प्यार की थपकी दी और उसे छोड़ने बाहर दरवाज़े तक आए फिर उससे हाथ भी मिलाया। लुश्कोफ़ वह चिट्ठी लेकर चला गया और उस दिन के बाद फिर कभी नहीं आया।
***
दो साल बीत गए। एक दिन थिएटर की टिकट-खिड़की के पास स्क्वार्त्सोफ़ साहब को छोटे क़द का एक आदमी दिखाई दिया। वह भेड़ के चमड़े की गरदनी वाला ओवरकोट और एक पुरानी-सी पोस्तीन की टोपी पहने हुए था। उसने डरते-डरते सब से सस्ता टिकट माँगा और पाँच-पाँच कोपेक के सिक्के दे दिए।
— अरे लुश्कोफ़, तुम! -- स्क्वार्त्सोफ़ ने अपने उस मज़दूर को पहचान लिया, -- कैसे हो? क्या करते हो? ज़िन्दगी ठीक-ठाक है न?
— जी हाँ, ठीक-ठाक है, साहिब जी... अब मैं उसी नोटरी के यहाँ काम करता हूँ, पैंतीस रूबल कमाता हूँ...
— कृपा है भगवान् की! वाह, भाई, वाह! बड़ी ख़ुशी की बात है! बहुत प्रसन्न हूँ! सच पूछो तो तुम मेरे शिष्य जैसे हो न! मैं ने तुम्हे एक सच्चा रास्ता दिखाया था! याद है, कितना कोसा था तुमको? कान गर्म हुए होंगे मेरी बातें सुनकर! धन्य हो, भाई, कि मेरे वचनों को तुम भूले नहीं!
— धन्य हैं आप भी, — लुश्कोफ़ बोला, — आपके पास न आता तो अब तक ख़ुद को मास्टर या छात्र बतलाकर धोखेबाजी करता फिरता! आपने मुझे खाई से निकालकर डूबने से बचाया है!
— बहुत, बहुत ख़ुशी की बात है!
— आपने बहुत अच्छा कहा भी और किया भी! मैं आपका आभारी हूँ और आपकी बावरचिन का भी, भगवान् उस दयालु उदार औरत की भलाई करे! आप ने उस समय बहुत सही और अच्छी बातें की थी, मैं उम्र भर आपका आभारी रहूँगा,पर सच पूछिए तो आपकी बावरचिन ओल्गा ही ने मुझे बचाया है!
— वह कैसे?
— बात ऐसी है साहिब जी। जब-जब मैं लकडी फाड़ने आया करता था वह मुझे कोसती रहती — "अरे शराबी! तुझ पर ज़रूर कोई शाप लग गया है! मर क्यों नहीं जाता!" फिर मेरे सामने उदास बैठ जाती, और मेरा मुँह देखते-देखते रो पड़ती — "हाय बेचारा! इस लोक में कोई भी ख़ुशी नहीं देख पाया और परलोक में भी नरक की आग में ही जाएगा! हाय बेचारा, दुखियारा!" वह बस इसी ढंग की बातें किया करती थी। उसने अपना कितना ख़ून जलाया मेरे कारण, कितने आँसू बहाए, मैं आपको बता नहीं सकता! पर सब से बड़ी बात यह हुई कि वह ही मेरा सारा काम पूरा करती रहती थी! सच कहता हूँ साहिब, आपके यहाँ मैंने एक भी लकड़ी नहीं फाड़ी, सब कुछ वही करती थी! उस ने मुझे कैसे बचाया, उसको देखकर मैंने पीना क्यों छोड़ दिया, क्यों बदल गया मैं, आपको कैसे समझाऊँ। इतना ही जानता हूँ कि उसके वचनों और उदारता की वजह से मैं सुधर गया, और मैं यह कभी नहीं भूलूँगा। हाँ साहिब जी, अब जाना है, नाटक शुरू होने की घण्टी बज रही है...
लुश्कोफ़ सर झुकाकर अपनी सीट की ओर बढ़ गया।


मूल रूसी से अनूदित