सोमवार, 28 सितंबर 2015

व्लदीमिर सरोकिन की कहानी 

         मल्लाह की रानी

                    समकालीन रूसी लेखक व्लदीमिर सरोकिन

इस बार हम आपको मिलवा रहें हैं समकालीन रूसी लेखक व्लदीमिर सरोकिन से। उनका जन्म 1955 में मास्को ज़िले में हुआ। मास्को के तेल और गैस इन्स्टीट्यूट में उन्होंने शिक्षा पाई। पढ़ाई के दिनों में ही उनमें लेखन की अदम्य लालसा जाग उठी थी, सो वे एक साहित्यिक पत्रिका में काम करने लगे। 1972 में एक कवि के रूप में उन्होंने साहित्य की दुनिया में पहले क़दम रखे। इसके साथ ही वे चित्रकारी भी करने लगे और पुस्तक-सज्जा का काम भी। उन्होंने अनेक कला-प्रदर्शनियों में भाग लिया  और लगभग पचास पुस्तकों के लिए चित्र बनाए।

उन्नीसवीं सदी में ही तलस्तोय जैसे महान लेखकों ने साहित्य में यथार्थवाद को ऐसे शिखर पर पहुँचा दिया था कि आज भी सारे संसार में यथार्थवाद ही लेखन की मुख्य धारा है। यों बीसवीं सदी में विश्व-साहित्य में कई नई-नई धाराएँ सामने आईं। रूसी साहित्य भी इनसे अछूता नहीं रहा। सोवियत संघ में इन नई साहित्यिक धाराओं को  सरकारी मान्यता प्राप्त नहीं थी, सो इस दिशा में प्रयोग करने वाले कलाकार ’भूमिगत’ रहते थे, उनकी रचनाएं छपती भी थीं तो यूरोप के दूसरे देशों में। सोरोकिन भी शुरू से ही भूमिगत रहे। 1985 में पेरिस में उनकी छह कहानियों और एक उपन्यास का संग्रह छपा, जबकि स्वदेश में पहली पुसतक 1989 में ही प्रकाशित हुई। मुख्य धारा से हटकर लिखने के कारण उनके बारे में  पाठकों और समीक्षकों की राय में ज़मीन-आसमान का अन्तर दिखाई देता है। कोई उनकी तारीफ़ के पुल बाँधता है तो कोई उनपर  थू-थू करता नज़र आता है। वैसे ख़ुद व्लदीमिर सरोकिन का कहना है -- मैं लिखते समय यह बिलकुल नहीं सोचता कि मेरी इस रचना को कौन पढ़ेगा। मुझे तो आज यह सोच कर भी हैरानी होती है कि मैं जो करता हूँ उसमें लोग दिलचस्पी क्यों लेते हैं ?
आज हम प्रस्तुत कर रहे हैं उनकी कहानी  -- नाविक की रानी।  इस कहानी को रूसी आलोचकों और समीक्षकों ने एक अतियथार्थवादी रचना माना है। इस कहानी में व्लदीमिर सरोकिन ने यह धारणा अभिव्यक्त की है कि सच्ची कलाकृति में उसके रचयिता की प्रकृति भी प्रतिबिम्बित होती है।

                         मल्लाह की रानी

पुलिस इन्स्पेक्टर ने सिर उठाया।
-- आ जाओ !
दरवाज़ा खुला और छोटे कद की एक युवती ने कमरे में प्रवेश किया। उसके हाथ में एक थैला था।
-- नमस्ते !
-- नमस्ते !
अपने हाथ में पकड़ा पैन एक ओर रखकर इंस्पेक्टर ने लड़की पर सवालिया नज़र डाली।
-- जी, बताइए, क्या काम है ?
-- मैं. वो...।
लड़की को हिचकिचाता देखकर इंस्पेक्टर ने कुर्सी की ओर इशारा किया और कहा --
-- बैठ जाइए ।
-- बात यह है, कामरेड इंस्पेक्टर, मैं यहाँ पर, मेरा मतलब है कि मैं अपनी माँ के साथ रहती हूँ...समझ में नहीं आ रहा बात कहाँ से शुरू करूँ...
 -- घबराइए, नहीं। बस, बताती जाइए।
लड़की ने एक गहरी साँस ली।
-- वो, हुआ यह कि बीती गर्मियों में एक लेफ्टिनेण्ट ने... नेवी के लेफ्टिनेण्ट ने हमारे घर में कमरा किराए पर लिया था।  वे सरकारी काम से यहाँ आए हुए थे, पर होटल में ठहरने का उनका मन नहीं हुआ।
-- ठीक, तो फिर हुआ क्या ?
-- बस, महीना भर रहे हमारे यहाँ। किराया ठीक वक्त पर देते रहे। बड़े हँसोड़ स्वभाव के थे, साफ़-सुथरे, सलीकेदार।  तीन बार छुट्टी की शाम को मुझे डाँस-क्लब ले गए, फ़िल्म भी दिखाने ले गए। माँ से बैठे बातें करते रहते। जब लौटने का दिन आया तो मुझसे कहने लगे -- आपकी इजाज़त हो तो मैं याददाश्त के तौर पर अपना दिल आपको तोहफ़े में देना चाहता हूँ ।
-- अच्छा...।
-- बोले, जब मेरा जहाज़ दूर समुद्र में होगा, तो कभी-कभार मुझे याद करके उदास हो लेना। मैंने मज़ाक में जवाब दिया -- कामरेड लेफ्टिनेण्ट, आपकी बात बड़ी प्यारी है, मगर मुझे यह समझ नहीं आ रहा है कि इतना बड़ा तोहफ़ा  मैं कहाँ संभाल कर रखूँगी।  और फिर कोई लडकी किसी के लिए उदास हो, इसके लिए तो उसके दिल में ख़ास जगह बनानी होती है।

-- तो फिर, वह चला गया?
इंस्पेक्टर बड़े कौतूहल से युवती को देख रहा था।
-- जी हाँ, चले गए। पर उनके जाने के बाद अपने पलंग के बगल में रखी छोटी अल्मारी में मुझे यह बोतल मिली  है।
लड़की ने थैले में से चौड़े मुँह की एक बोतल निकालकर इंस्पेक्टर के सामने रख दी। कसकर बन्द की हुई बोतल में दिल रखा था जो धड़क रहा था। इंस्पेक्टर ने अपनी ठोडी खुजलाई।

-- तो यह वह छोड़ गया है ?
-- जी हाँ ।
-- मतलब यह उसका दिल है?
-- और नहीं तो किसका होगा?
-- पर आप हमारे पास...मेरा मतलब पुलिस के पास क्यों आई हैं?
-- आप ही बताइए, और कहाँ जाऊँ ? अपनी मिल वालों के पास गई थी, वो कुछ सुनने को तैयार नहीं हैं। कहते हैं – हमारा इससे कोई लेना-देना नहीं।  अब मैं जाऊँ तो कहाँ जाऊँ ?

बोतल को देखते हुए इंस्पेक्टर सोच में डूब गया।
-- अच्छा, अभी इसे यहीं छोड़ जाओ। सोमवार को आना।
लडकी उठकर दरवाज़े की ओर चल दी।
-- सुनिए, जाते-जाते वह कुछ कह कर तो नहीं गया था?
लड़की ने कुछ देर सोचकर कन्धे उचका दिए।
-- वे शायद कुछ बुरा मान गए थे। जैसे-तैसे नमस्ते करके चले गए। जवान लड़की  का मज़ाक नहीं समझे, एकदम बुद्धू थे।| इतने दिनों से रोज़ाना डाकिए की राह देख रही हूंँ। पर कुछ लिख भी नहीं रहे। अजीब नौसैनिक हैं। अपना पता तक नहीं भेज रहे।
उसने सिर पर बँधा रूमाल ठीक किया।
-- बड़ा दुख होता है और झुंझलाहट भी, कामरेड इंस्पेक्टर कि मैंने उनसे ऐसा क्यों कहा  और प्यार से बात नहीं की। मेरा तो दिल ही बुझ गया है। इससे ज़्यादा खिसियाहट तो इस बात पर होती है कि सब लोग, और तो और मेरे घरवाले भी मुझे मल्लाह की रानी कहने लगे हैं...पता नहीं क्यों...।
इंस्पेक्टर ने उसकी बात समझते हुए सिर हिलाया और उसके पास गया।
-- कहते हैं तो कहते रहें। आप परवाह मत कीजिए। हम आपके इस मामले से निपट लेंगे। जाइए, घर जाइए।

लड़की चली गई। इंस्पेक्टर अपनी मेज़ पर वापिस लौट आया और उसने बोतल उठाई। बोतल का काँच अन्दर से पसीज गया था। बोतल का कार्क मोम से सीलबन्द था। इंस्पेक्टर ने दराज़ में से फोल्डिंग चाकू निकाला, उसे खोला और कार्क को एक सिरे से उखाड़ा। कार्क आसानी से खुल गया। बोतल में से अजीब सी गंध आई। इंस्पेक्टर ने बोतल में से दिल निकालकर अपनी हथेली पर रख लिया। वह नरम औए गरम था। गाढ़े लाल रंग की उसकी सतह पर गुलाबी और नीली शिराओं का जाल बिछा हुआ था और दिल पर बड़ी सफ़ाई से जहाज़ का लंगर गुदा हुआ था।
1978

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