बुधवार, 23 सितंबर 2015

रूसी कवि अनतोली परपरा की कविताएँ

 


रूसी कवि अनतोली परपरा की कविताएँ

प्रसिद्ध रूसी लेखक अनातोली परपरा का जन्म 15 जुलाई 1940 को मास्को में हुआ था। 1941 में उनकी माँ अपने बच्चों के साथ स्मालेन्स्क के अपने गाँव में रहने चली गईं। जल्दी ही रूस पर हिटलरी जर्मनी ने हमला कर दिया। हिटलरी नाजीवादी सैनिक बहुत जल्दी ही स्मालेन्स्क पहुँच गए और उन्होम्ने उस गाँव को जला दिया, जहा उनकी माँ अपने बच्चों के साथ रह रही थीं। पूरे गाँव में सिर्फ़ आठ व्यक्ति ज़िन्दा बचे, बाक़ी सभी गाँववालों को जर्मन सैनिकों ने मार दिया था। उन आठ लोगों में अनातोली पारपरा भी थे। द्वितीय विश्व-युद्ध समाप्त होने के बाद सैन्य स्कूल कि शिक्षा समाप्त करके अनातोली परपरा ने मास्को विश्वविद्यालय के पत्रकारिता संकाय में शिक्षा प्राप्त की। बाद में ’मस्क्वा’ नाम साहित्यिक पत्रिका के सम्पादक मण्डल में रहे। इस साल अनातोली परपरा 75 वर्ष के हो गए हैं। उनकी इस स्वर्ण जयन्ती पर उन्हें हार्दिक शुभकामनाएँ देते हुए  उनकी कुछ कविताएँ। 

1. बरखा का एक दिन

हवा बही जब बड़े ज़ोर से
बरसी वर्षा झम-झमा-झम
मन में उठी कुछ ऐसी झंझा
दिल थाम कर रह गए हम

गरजे मेघा झूम-झूम कर
जैसे बजा रहे हों साज
ता-ता थैया नाचे धरती
ख़ुशियाँ मना रही वह आज

भीग रही बरखा के जल में
तेरी कोमल चंदन-काया
मन मेरा हुलस रहा, सजनी
घेरे है रति की माया

2. सौत-सम्वाद


एक लोकगीत को सुनकर

ओ झड़बेरी, ओ झड़बेरी
मैं तुझे कहूँ व्यथा मेरी

सुन मेरी बात, री झड़बेरी
आता जो तेरे पास अहेरी

वह मेरा बालम सांवरिया
न कर उससे, यारी गहरी

वह छलिया, ठग है जादूगर
करता फुसला कर रति-लहरी

न कुपित हो तू, बहना, मुझ पे
बहुत आकुल हूँ, कातर गहरी

 3. तेरा चेहरा

शरदकाल का दिन था पहला, पहला था हिमपात
धवल स्तूप से घर खड़े थे, चमक रही थी रात
पिरिदेलकिना स्टेशन पे था मुझे गाड़ी का इन्तज़ार
श्वेत पंखों-सा हिम झरे था, कोहरा था अपार

कोहरे में भी मुझे दीख पड़ा, तेरा चारु-लोचन भाल
तन्वंगी काया झलके थी, पीन-पयोधर थे उत्ताल
खिला हुआ था तेरा चेहरा जैसे चन्द्र अकास
याद मुझे है, प्रिया, तेरे मुखड़े का वह उजास

4. अशान्तिकाल का गीत

समय कैसा आया है यह, मौसम हो गया सर्द
भूल गए हम सारी पीड़ा, भूल गए सब दर्द
मुँह बन्द कर सब सह जाते हैं, करते नहीं विरोध
कहाँ गया मनोबल हमारा, कहाँ गया वह बोध

क्यों रूसी जन चुपचाप सहे अब, शत्रु का अतिचार
क्यों करता वह अपनों से ही, अति-पातक व्यवहार
क्यों विदेशियों पर करते हम, अब पूरा विश्वास
और स्वजनों को नकारते, करते उनका उपहास ?

5. बीच सागर में

इस तन्हाई में फकीरे
दिन बीते धीरे-धीरे
यहाँ सागर की राहों में
कभी नभ में छाते बादल
बजते ज्यूँ बजता मादल
मन हर्षित होते घटाओं के
सागर का खारा पानी
धूप से हो जाता धानी
रंग लहके पीत छटाओं के
जब याद घर की आती
मन को बेहद भरमाती
स्वर आकुल होते चाहों के
बस श्वेत-सलेटी पाखी
जब उड़ दे जाते झाँकी
मलहम लगती कुछ आहों पे

 6. माया

नींद में मुझे लगा कि ज्यूँ आवाज़ दी किसी ने
मैं चौंक कर उठ बैठा और आँख खोल दी मैंने
चकाचौंध रोशनी फैली थी औ' कमरा था गतिमान
मैं उड़ रहा था महाशून्य में जैसे कोई नभयान

मैं तैर रहा था वायुसागर में अदृश्य औ' अविराम
आसपास नहीं था मेरे तब एक भी इन्सान

किसकी यह आवाज़ थी, किसने मुझे बुलाया
इतनी गहरी नींद से, भला, किसने मुझे जगाया
क्या सचमुच में घटा था कुछ या सपना कोई आया
कैसी अनुभूति थी यह, कवि, कैसी थी यह माया ?

7. ओस

सुबह घास पर दिखे घनी
रत्न-राशि की कनी

नीलम-रूप झलकाए
हरित-मणि-सी छाए
कभी जले याकूत-सी
स्फटिक शुचि शरमाए

करे धरती का शृंगार
लगे मोहक सुभग तुषार

पल्लव-पल्लव छाए
बीज को अँखुआए
बने वह स्वाति-मुक्ता
चातक प्यास बुझाए

दुनिया में जीवन रचती
इसके बिना न घूमे धरती

8. जलयान पर

रात है
दूर कहीं पर झलक रही है रोशनी
हवा की थरथराती हँसी मेरे साथ है
दाएँ-बाएँ-ऊपर-नीचे चारों ओर अँधेरा है
हाथ को सूझता न हाथ है
कितनी हसीन रात है

रात है
चाँद-तारों विहीन आकाश है ऊपर
अदीप्त-आभाहीन गगन का माथ है
और मैं अकेला खड़ा हूँ डेक पर
नीचे भयानक लहरों का प्रबल आघात है
कितनी मायावी रात है

रात है
गहन इस निविड़ में मुझे कर रही विभासित
वल्लभा कांत-कामिनी स्मार्त है
माँ-पिता, मित्र-बन्धु मन में बसे
कुहिमा का झर रहा प्रपात है
यह अमावस्या की रात है

9. मौत के बारे में सोच

मौत के बारे में सोच
और उलीच मत सब-कुछ
अपने दोनों हाथों से अपनी ही ओर
हो नहीं लालच की तुझ में ज़रा भी लोच

मौत के बारे में सोच
भूल जा अभिमान, क्रोध, अहम
ख़ुद को विनम्र बना इतना
किसी को लगे नहीं तुझ से कोई खरोंच

मौत के बारे में सोच
दे सबको नेह अपना
दूसरों के लिए उँड़ेल सदा हास-विहास
फिर न तुझ को लगेगा जीवन यह अरोच

देख, देख, देख बन्धु !
रीता नहीं रहेगा फिर कभी तेरा मन
प्रसन्न रहेगा तू हमेशा, हर क्षण

10. नववर्ष की पूर्वसंध्या पर

मार-काट मची हुई देश में, तबाही का है हाल
हिमपात हो रहा है भयंकर, आ रहा नया साल

यहाँ जारी इस बदलाव से, लोग बहुत परेशान
पर हर पल हो रहा हमें, बढ़ते प्रकाश का भान

गरम हवा जब से चली, पिघले जीवन की बर्फ़
चेहरों पर झलके हँसी, ख़त्म हो रहा नर्क

देश में फिर शुरू हुआ है, नई करवट का दौर
छोड़ दी हमने भूल-भुलैया, अब खोजें नया ठौर

याद हमें दिला रही है, रूसी माँ धरती यह बात
नहीं, डरने की नहीं ज़रूरत, होगा शुभ-प्रभात

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