गुरुवार, 10 सितंबर 2015

इवान बूनिन को याद करते हुए

इवान बूनिन को याद करते हुए


इवान बूनिन की मृत्यु विदेश में और मुसीबतों से भरा जीवन जीते हुए फ़्राँस में हुई और वे हमेशा अपने देश को याद करते हुए अपनी जनता को याद करते हुए, गहरे वियोग में तड़पते रहे। ये पंक्तियाँ रूस के एक महान् कवि और श्रेष्ठ लेखक इवान बूनिन को याद करते हुए रूसी लोग प्रायः दोहराते हैं। इवान बूनिन ऐसे पहले रूसी लेखक थे, जिन्हें नोबल पुरस्कार मिला था। 22 अक्तूबर को इवान बूनिन का जन्मदिन मनाया जाता है। आज अगर वे हमारे बीच होते तो 140 वर्ष के हो गए होते।
इवान अलेक्सेयविच बूनिन का जन्म 22 अक्तूबर 1870 को वरोनेझ नगर के निकट एक जागीरदार परिवार में हुआ था। वरोनेझ मध्य-रूस का एक प्रसिद्ध प्रांत है और जैसाकि बूनिन ने अपनी आत्मकथा में लिखा है - "तलस्तोय सहित रूस के करीब-करीब सभी महान् लेखक मध्य-रूस में ही जन्मे हैं।"
इवान बूनिन ने बहुत छोटी उम्र में लिखना शुरू कर दिया था। वे निबन्ध, रेखाचित्र और कविताएँ लिखा करते थे। उनके रचनाएँ इतनी गम्भीर होती थीं कि रूसी आलोचकों और समीक्षकों का ध्यान तुरन्त ही उनकी ओर चला गया और 1903 में रूस की विज्ञान अकादमी ने उन्हें पूश्किन पुरस्कार देकर सम्मानित किया। बूनिन को दो बार पूश्किन पुरस्कार दिया गया। फिर 1909 में इवान बूनिन को रूस की साहित्य अकादमी का महत्तर सदस्य चुन लिया गया। इस तरह क्रान्तिपूर्व ज़ारकालीन रूस में इवान बूनिन सबसे कम उम्र के अकादमीशियन बन गए थे।
ख़ुद इवान बूनिन का मानना था कि पाठकों के बीच उनकी लोकप्रियता उनकी कहानियों से बढ़ी। उनकी लम्बी कहानियोँ का संग्रह "गाँव" जब प्रकाशित होकर आया तो पाठकों के बीच बेहद लोकप्रिय हो गया क्योंकि उसमें गाँव का सच्चा रूप, गाँव का सही और सच्चा जीवन दिखाया गया था। लेकिन उस क़िताब को उनके समकालीन लेखकों ने स्वीकार नहीं किया क्योंकि बूनिन के अनुसार उन कहानियों में गाँव की निर्मम और बेरहम सच्चाई को उन्होंने निदर्यता के साथ व्यक्त किया था। लेकिन उनकी ये ही कहानियाँ भविष्यदृष्टा कहानियाँ मानी जाती हैं क्योंकि 1917 की महान् अक्तूबर समाजवादी क्रान्ति ने गाँव के उस जीवन को ही पूरी तरह से ख़त्म कर दिया, जो इवान बूनिन को बेहद प्रिय था।
समाजवादी क्रान्ति के बाद 1918 में इवान बूनिन मास्को छोड़कर रूस के दक्षिण में जाकर रहने लगे थे। रूस में "लाल सेना" और "श्वेत सेना" के बीच चल रहे गृहयुद्ध के दौरान रूस का यह दक्षिणी इलाका कभी लाल सेना के हाथ लग जाता था तो कभी उस पर फिर से श्वेत सेना का कब्ज़ा हो जाता। बूनिन इस गृह-युद्ध से बेहद परेशान और दुखी थे। दो वर्ष बाद उन्होंने रूस छोड़ने का निर्णय ले लिया। वे एक जलयान से पहले बलकान क्षेत्र में पहुँचे और वहाँ से वे फ़्राँस चले गए। बूनिन की जो रचनाएँ आज सारी दुनिया में प्रसिद्ध हैं, वे सभी रचनाएँ उन्होंने अपने प्रवास-काल में ही लिखीं।
इवान बूनिन और उनकी पत्नी वेरा मुरमत्सेवा शुरू में कुछ समय पेरिस में रहे और उसके बाद फ़्राँस के दक्षिण में स्थित ग्रास नगर में रहने चले गए। फिर यहीं पर उन्होंने अपने जीवन का लम्बा समय बिताया। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान और उसके बाद भी काफ़ी लम्बे समय तक बूनिन परिवार ग्रास में ही रहा। फ़्राँस में बूनिन ने ढेरों नई कहानियाँ और उपन्यास लिखे। फिर 1930 में उनका आत्मकथात्मक उपन्यास "अरसेनी का जीवन" प्रकाशित हुआ। इस उपन्यास पर उन्हें नोबल पुरस्कार दिया गया।
10 नवम्बर 1933 को इवान बूनिन को नोबल पुरस्कार देने की घोषणा की गई। लेकिन बूनिन की रचनाएँ उससे पहले ही यूरोप में लोकप्रिय हो चुकी थीं। नोबल पुरस्कार ने उन्हें विश्वप्रसिद्ध लेखक बना दिया। इवान बूनिन को नोबल पुरस्कार के रूप में जो बड़ी धनराशि मिली थी, वह जल्दी ही ख़त्म हो गई क्योंकि बूनिन को पैसे को संभाल कर रखना नहीं आता था। इसके बाद के साल बूनिन परिवार ने बेहद ग़रीबी और निर्धनता में बिताए। द्वितीय विश्वयुद्ध के वर्षों में जब तक फ़्राँस पर फ़ासिस्ट जर्मनी का अधिकार रहा, बूनिन ने कुछ नहीं लिखा। उनका कहना था कि फ़ासिस्टों के साथ मैं कोई सहयोग नहीं करूँगा। फिर 1943 में न्यूयार्क में बूनिन की प्रेम-कहानियों का एक संग्रह प्रकाशित हुआ, जिसका नाम था "अँधेरी गलियाँ"।
अपने जीवन के अन्तिम वर्षों में इवान बूनिन महान् रूसी लेखक अन्तोन चेख़व के बारे में एक संस्मरणात्मक पुस्तक लिख रहे थे। लेकिन वह पुस्तक अधूरी रह गई। 8 नवम्बर 1953 की रात को अपनी पत्नी की गोद में सिर रखे-रखे इवान बूनिन का देहान्त हो गया। उन्हें पेरिस की सेंत झेनेव्येव-दे-बुआ रूसी कब्रगाह में दफ़ना दिया गया। तत्कालीन रूस में यानी तब के सोवियत संघ में इवान बूनिन की रचनायें प्रकाशित करने पर प्रतिबंध लगा हुआ था। लेकिन बूनिन की मृत्यु के बाद बूनिन की स्वदेश वापसी हो गई। 1954 से सोवियत संघ में बूनिन की कविताओं और कहानियों का प्रकाशन किया जाने लगा। करोड़ों की संख्या में उनकी रचनाएँ रूस में प्रकाशित हुईं। उनकी अब तक कई रचनावलियाँ और उनकी "चुनी हुई रचनाओं" के बीसियों संग्रह रूस में प्रकाशित हो चुके हैं। यहाँ यह बात भी उल्लेखनीय है कि रूस में उनकी वे किताबें, जिनमें उन्होंने रूस की अक्तूबर समाजवादी क्रान्ति के दिनों का ज़िक्र किया था, सिर्फ़ सोवियत संघ के विघटन से कुछ पहले ही प्रकाशित होनी शुरू हुई थीं। यहाँ हम  पाठकों के लिए उनकी कुछ कविताएँ प्रकाशित कर रहे हैं। इन सभी कविताओं का मूल रूसी भाषा से हिन्दी में अनुवाद किया है - हिन्दी के कवि अनिल जनविजय ने।

ऊपर की तरफ़ श्वेतकेशी आकाश है मेरे
ऊपर की तरफ़ श्वेतकेशी आकाश है मेरे
और सामने वन
उघड़ा पड़ा है नग्न
नीचे की तरफ़ जंगली पगडंडी को घेरे
काली कीच
पत्तियों को
कर रही है भग्न

ऊपर हो रहा है ठंड का सर्द शोर
नीचे बिछी है चुप्पी
जीवन के मुरझाने से
पूरे यौवन भर यूँ तो मैं
भटकता रहा घनघोर
बस, ख़ुशी मिली तब मुझे,
किसी विचार के आने से

(1889)


कल रात दूर कही कोई
कल रात दूर कहीं कोई गाता रहा देर तक
अँधेरे में जूतियाँ कोई चटकाता रहा देर तक
दूर वहाँ पर गूँजती रही एक उदास आवाज़
बज रहा था बीते सुख और आज़ादी का साज

खिड़की खोली मैंने और गीत वह सुनता रहा
सो रही तू...... मैं रूप तेरा गुनता रहा
वर्षा से भीगी थी रई, खेत महक रहा था
ठंडी और सुगंधित रात, मन बहक रहा था

उस पीड़ित कंपित स्वर ने रुह को जगा दिया
पता नहीं क्यों, उसने मुझको उदास बना दिया
मन में मेरे आया तुझ पर तब वैसा ही लाड़
कभी जैसे तू करती थी मुझसे जोशीला प्यार

(1889)


रंग उड़ गया उस हल्के नीले दीवारी काग़ज़ का 
रंग उड़ गया उस हल्के नीले, दीवारी काग़ज़ का
झलक रही थी कभी वहाँ जो, उस सारी सजधज का
सिर्फ़ वहीं दिखाई देता है अब, थोड़ा-बहुत रंग नीला
जहाँ टँगा था कई वर्षों तक, पोस्टर एक भड़कीला

भूल चुका यह दिल अब, वह सब भूल चुका है
मन को था भाता जो भी, अब मिल धूल चुका है
सिर्फ़ बची यादें उनकी, जो जीवन छोड़ गए
चले गए वे उस दुनिया में, हमसे मुँह मोड़ गए

(31 जनवरी 1916)


रो रही थी विधवा वह उस रात
रो रही थी विधवा वह उस रात
छोड़ चुका था बच्चा जिसका साथ
--हाय! मेरे प्यारे! मेरे लाल !
मुझे इस दुनिया में अकेला छोड़
तू चला गया क्यों, मुझ से मुँह मोड़

उसका बूढ़ा पड़ोसी भी रो रहा था
हाथों से अपने आँखें मल-मल के
रो रहा था नन्हा मेमना भी
ऊपर चमक रहे थे तारे झल-मल से

और अब
रोती है वह माँ रातों को
रोती है रात भी हर रात
दूसरों को भी रुलाती है वह अपने साथ
आकाश में आँसूँ बहाते हैं सितारे
आँखों को मल-मल रोता है ख़ुदा
उस बच्चे को याद कर प्यारे

(24 मार्च 1914)


शब्द

मौन हैं समाधियाँ और क़ब्रें
चुप हैं शव और अस्थियाँ
सिर्फ़ जीवित हैं शब्द झबरे

अँधेरे में डूबे हैं महीन
यह दुनिया क़ब्रिस्तान है
सिर्फ़ शिलालेख बोलते हैं प्राचीन

शब्द के अलाबा ख़ास
और कोई सम्पदा नहीं है
हमारे पास

इसलिए
सम्भाल कर रखो इन्हें
अपनी पूरी ताक़त भर
इन द्वेषपूर्ण दुःख-भरे दिनों में

देना न इन्हें कहीं तुम फेंक
बोलने की यह ताक़त ही
हमारी अमर उपलब्धि है एक

(07 जनवरी 1915, मस्कवा)


कवि से
हमेशा गहरे कुओं का जल
होता है मीठा-शीतल
पर सुस्त और आलसी चरवाहा
जल किसी डबरे से लाता है
अपने रेवड़ को भी वह
गंदा जल वही पिलाता है
लेकिन सज्जन है जो जन
वह करेगा सदा यही प्रयत्न
डोल अपना किसी कुएँ में डालेगा
रस्सियों को आपस में कसकर बाँध
जल वहाँ से निकालेगा

अनमोल हीरा
गिर गया जो अँधेरी रात में
ढूँढ़ता है यह दास उसे
दो कौड़ी के मोमबत्ती के प्रकाश में
धूल भरी राहों को वह
बड़े ध्यान से देखता
और उन पर रोशनी
अपनी शमा की फेंकता
अपने सूखे हाथों से वह
लौ को है घेरता
हवा और अँधेरे को
पीछे की ओर ढकेलता

याद रहे यह
कि आख़िर वह सब कुछ पा लेगा
एक दिन आएगा ऐसा
जब वह हीरा ढूँढ़ निकालेगा ।

(25 अगस्त 1915)


अकेलापन
ठंडी शाम थी वह
दुबली-पतली एक विदेशी औरत
नहा रही थी समुद्र में लगभग निर्वसन
और सोच रही थी मन ही मन
कि अपनी उस नेकर में नीली
शरीर से चिपकी है जो गीली
अधनंगी पानी से बाहर वह निकलेगी जब
शायद पुरुष उसे देखेगा तब

बाहर आई वह समुद्र से
पानी उसके शरीर से टपक रहा था खारा
रेत पर बैठ गई ओढ़ कर लबादा
खा रही थी वह अब एक आलूबुखारा

समुद्र किनारे उगा हुआ था झाड़-झँखाड़
झबरे बालों वाला कुत्ता एक वहाँ खड़ा था खूँखार
भौंकता था वह कभी-कभी ज़ोर से
ख़ुशी से उमग कर लहरों के शोर से
अपने गर्म भयानक जबड़ों में
पकड़ना चाहता था
वह काली गेंद जिसे उड़ना आता था
जिसे होप...होप करते हुए
फेंक रही थी वह औरत
दूर से लग रही थी जो
बिल्कुल संगमरमर की मूरत

झुटपुटा हो चला था
उस स्त्री के पीछे दूर
जलने लगा था एक प्रकाशस्तम्भ
किसी सितारे की तरह था उसका नूर
समुद्र के किनारे गीली थी रेत
ऊपर चाँद निकल आया था श्वेत
लहरों पर सवार हो वह
टकरा रहा था तट से
बिल्लौरी हरी झलक दिखा अपनी
फिर छुप जाता था झट से

वहीं पास में
चाँदनी से रोशन आकाश मे
सीधी खड़ी ऊँची चट्टान पर
एक बैंच पड़ी थी वहाँ मचान पर
पास जिसके लेखक खड़ा था खुले सिर
एक गोष्ठी से लौटा था वह आज फिर
हाथ में उसके सुलग रहा था सिगार
व्यंग्य से मुस्कराया वह जब आया यह विचार
"पट्टियों वाली नेकर में इस स्त्री का तन
खड़ा हो ज़ेबरा जैसे अफ़्रीका के वन"

(10 सितम्बर 1915)


विमाता
मैं ग़रीब अनाथ बालिका थी
और माँ क्रूर थी मेरी
जब घर लौटी मैं, झोंपड़ी थी खाली
और रात अँधेरी

माँ ने मुझे ढकेल दिया था
एक काले अँधेरे वन में
अनाज छानने-फटकारने को,
पिसने को जीवन में

अन्न साफ़ किया मैंने बहुत,
पर जीवन-गान नहीं था
दरवाज़े की साँकल बज उठी
पाहुन अनजान नहीं था

चौखट में दिखलाई दिए मुझे
लौहबन्द लगे दो सींग
यह झबरे पैरों वाली माँ थी,
जो मार रही थी डींग

अपने कठोर दाएँ पंजे से,
झपट उसने मुझे उठाया
विवाह-वेदी पर नहीं मुझे
पीड़ा-वेदी पर बैठाया

भेजा उसने मुझे ऐसी जगह,
घने वनों के पार
जहाँ तीव्रधार नदियाँ बहती थीं
हिम पर्वत था दुश्वार

पर जंगल पार किए मैंने सब,
शमा हाथ में लेकर
उन तेज़ नदियों को लाँघा,
निकले आँसू बह-बह कर

फिर हिम पर्वत पर खड़ी हो गई,
लिए बिगुल एक हाथ
सुनो, लोगो सुनो, जिसे प्यार मैं करती हूँ,
अब वह है मेरे साथ

(20 अगस्त 1913)


तुम्हारा हाथ
तुम्हारा हाथ
अपने हाथ में लेता हूँ
और फिर देर तक उसे
ध्यान से देखता रहता हूँ

मीठी अनुभूतियों से भरी तुम
आँखें झुकाए बैठी हो

इन हाथों में
तुम्हारा सारा जीवन
समाया हुआ है

महसूस कर रहा हूँ मैं
तुम्हारे शरीर की अगन
और डूब रहा हूँ
तुम्हारी आत्मा की गहराइयों में

और भला क्या चाहिए ?
सुखद हो सकता है क्या जीवन
इससे अधिक ?

पर
ओ देवदूत विद्रोही
हम परवानों पर झपटने वाला है
वह तूफ़ान
सनसना रहा है जो दुनिया के ऊपर
मौत का संदेश लेकर

(1898)


जवानी
सूखे जंगल में लम्बा चाबुक मार रही है
झाड़ी में गाय मुँह जैसे डाल रही है
नीले-पीले-लाल-गुलाबी फूल खिले हैं
पैरों से दबकर सूखी पत्ती खँखार रही है

जल भरा बादल नभ में जैसे घूम रहा है
हरे खेत में ताज़ा पवन झूम रहा है
हृदय में छुपा-छुपा-सा कुछ है जो टीसे है
जीवन रेगिस्तान बना कुछ ढूँढ़ रहा है

(07 जनवरी 1916)


अलस-उनींदा बैठा था बूढ़ा
अलस-उनींदा
बैठा था बूढ़ा
खिड़की के पास आरामकुर्सी पर

मेज़ पर रखा था प्याला
ठंडी हो चुकी चाय का
उसकी उँगलियों में फँसा था सिगार
जिससे उठ रहा था सुगंधित नीला धुँआ

सर्दियों का दिन था वह
चेहरा उसका लग रहा था धुँधला
सुगन्ध भरे उस हलके धुएँ के पार
अनन्त युवा सूर्य झाँक रहा था
सुनहरी धूप ढल रही थी पश्चिम की ओर

कोने में पड़ी घड़ी टिक-टिक कर रही थी
नाप रही थी समय
बूढ़ा असहाय-सा देख रहा था सूर्यास्त
सिगार में सलेटी राख बढ़ती जा रही थी
मीठी ख़ुशबू का धुँआ
उड़ रहा था उसके आसपास

(23 जुलाई 1905)


पहला प्यार
मुझे निद्रा ने आ घेरा जब
आँधी चल रही थी और
मौसम बेहद ख़राब था
शोकाकुल मैं थका हुआ
तब पूरी तरह निराश था

पर जागा सुप्तावस्था से जब
सुख सामने खड़ा
धीमे-धीमे मुस्करा रहा था
और मुझे अपनी फूहड़ता पर
बेहद गुस्सा आ रहा था

बादल दौड़ रहे थे ऊपर
हल्की ऊष्मा से भरे हुए
गर्मी के दिन थे चमकदार
आसमान से झड़े हुए
भुर्ज-वृक्षों के नीचे पथ पर
बिछी हुई थी रेत
छाया पेड़ों की काँप रही थी
हरे-भरे थे खेत

उन हरे-भरे खेतों से होकर
समीर सीत्कार रहा था
मेरे दिल में यौवन का जोश
थपकी मार रहा था
सपने बसे हुए थे दिल में
थी तरुणाई की इच्छा
पहले क्यों यह समझ न पाया
मन चीत्कार रहा था
(1902)

2 टिप्‍पणियां:

नताशा ने कहा…

रशियन साहित्य से परिचित होने की इतनी उम्दा जगह मुझे मिली कि मैं धन्य हुई.

नताशा ने कहा…

रशियन साहित्य से परिचित होने की इतनी उम्दा जगह मुझे मिली कि मैं धन्य हुई.