मंगलवार, 29 सितंबर 2015

बरीस पस्तेरनाक की कविताएँ

 अनुवाद: वरयाम सिंह

बोरीस पस्तेर्नाक की कविताएँ
1.

हर चीज़ के भीतर एक

हर चीज़ के भीतर तक
पहुँचना चाहता हूँ मैं ।
पहुँचना चाहता हूँ उनके सारतत्‍व तक
काम में, राहों की खोज में
हृदय की उथल-पुथल में ।

पहुँचना चाहता हूँ
बीते दिनों की सच्‍चाई तक,
उनके कारण और मूल तक,
उनके आधार और मर्म तक ।

नियति ओर घटनाओं का
हर समय में पकड़े रखना चाहता हूँ सूत्र,
चाहता हूँ जीना, सोचना, अनुभव करना, प्रेम करना,
उद्घाटित करना नये-नये सत्‍यों को ।

काश संभव होता
भले ही अंशत:
भावावेग के गुणों पर
मात्र आठ पंक्तियों में ।

लिखना अराजकता, पाप, पलायन
और आखेट के बारे में,
आकस्मिक घटनाओं, अचंभों,
कुहनियों और हथेलियों के स्‍पर्श के बारे में ।

मैं ढूँढ़ निकालता उनके नियम
और उनका उद्गम
और अुहराता रहता
उनके नामों के प्रथम अक्षर ।

उद्यान की तरह मैं सजाता कविताएँ,
धमनियों के समस्‍त कंपन के साथ
उनके खिलते रहते मेपल लगातार
एक साथ, जी भरकर ।

कविताओं में लाता गुलाबों के महक
और पुदीने का सत्‍त,
लाता चरागाहें, वलीक घास
और ठहाके गरजते बादलों के ।

इसी तरह शोपां
अपनी रचना में
समेट लाये थे पार्क, उपवन और
समाधियों के आश्‍चर्य।

अर्जित गरिमा की यातना
और खुशी
तनी हुई प्रत्‍यंचा
सधे हुए धनुष की ।

 2.
मेरी ज़िन्दगी बहन

मेरी ज़िन्‍दगी बहन ने आज की बाढ़
और बहार की इस बारिश में
ठोकरें खाई हैं हर चीज़ से
लेकिन सजे-धजे दंभी लोग
बड़बड़ा रहे हैं ज़ोर-ज़ोर से
और डस रहे हैं एक विनम्रता के साथ
जई के खेतों में साँप ।

बड़ों के पास अपने होते हैं तर्क
हमारी तर्क होते हैं उनके लिए हास्‍यास्‍पद
बारिश में बैंगनी आभा लिए होती हैं आँखें
क्षितिज से आती है महक भीगी सुरभिरूपा की ।

मई के महीने में जब गाड़ियों की समय सारणी
पढ़ते हैं हम कामीशिन रेलवे स्‍टशेन से गुजरते हुए
यह समय सारणी होती है विराट
पावन ग्रंथों से भी कहीं अधिक विराट
भले ही बार-बार पढ़ना पड़ता है उसे आरम्भ से ।

ज्‍यों ही सूर्यास्‍त की किरणें
आलोकित करने लगती हैं गाँव की स्त्रियों को
पटड़ियों से सट कर खड़ी होती हैं वे
और तब लगता है यह कोई छोटा स्‍टेशन तो नहीं
और डूबता हुआ सूरज सांत्‍वना देने लगता है मुझे ।

तीसरी घंटी बजते ही उसके स्‍वर
कहते हैं क्षमायाचना करते हुए :
खेद है, यह वह जगह है नहीं,
पर्दे के पीछे से झुलसती रात के आते हैं झोंके
तारों की ओर उठते पायदानों से
अपनी जगह आ बैठते हैं निर्जन स्‍तेपी ।

झपकी लेते, आँखें मींचते मीठी नींद सो रहे हैं लोग,
मृगतृष्‍णा की तरह लेटी होती है प्रेमिका,
रेल के डिब्‍बों के किवाड़ों की तरह इस क्षण
धड़कता है हृदय स्‍तैपी से गुजरते हुए ।
 3.
काश मैं जानता
काश मैं जानता ऐसा ही होता है
जब मैंने लिखना शुरू किया था
कि खून सनी पंक्तियाँ मार डालती हैं
गर्दनियाँ देकर ।

सच्‍चाई के साथ मज़ाक करते हुए इस तरह
मैंने इनकार किया होता साफ-साफ।
आरंभ तो अभी दूर था
और पहला शौक इतना भीरूतापूर्ण ।

पर बुढ़ापा होता है एक तरह का रोग
जो आडम्‍बरों से भरे अभिनय के बदले
अभिनेता से संवाद की नहीं
मृत्‍यु की माँग करता है गंभीरता से ।

जब पंक्तियों को लिखवाती हैं कविताएँ
मंच पर भेज देती हैं गुलाम को,
और यहाँ समाप्‍त हो जाती है कला
और साँस लेती है मिट्टी और नियति ।
 4.
अलग होना

चौखट पर से देखता है आदमी
पहचान नहीं पाता घर को
उस स्‍त्री का जाना जैसे गायब हो जाना था
सब जगह बर्बादी के निशान छोड़ कर ।

अस्‍त-व्‍यस्‍त दिखता है सारा कमरा,
कितनी क्षति हुई
देख नहीं पा रहा वह आदमी
सिरदर्द और आँसुओं के कारण ।

सुबह से कानों में गूँज रहा कुछ शोर-सा
वह होश में है या देख रहा है सपना ?
क्‍यों आ रहे हैं विचार
हर क्षण समुद्र के बारे में ।

जब खिडकियों पर लगे आले के बीच से
दिखाई नहीं पड़ता ईश्‍वर का संसार
दूर तक फैला अवसाद
दिखता हैं समुद्र की लंबी निर्जनता की तरह ।

प्रिय लगती थी वह
इतनी कि प्रिय लगती थी उसकी हर बात
जैसे प्रिय लगती हैं
समुद्र को अपनी लहरें, अपना तट ।

तूफान के बाद लहरें
जैसे डुबो देती हैं बाँस को,
उसकी आतमा की गहराई में
चली गई हैं उसकी सारी छवियाँ

यातना भरे जीवन के उन दिनों में
जो विचार से भी परे थे
नियति के अथाह से
लहरें उसे उठा लाई थी पास ।

असंख्‍य बाधाओं के बीच
खतरों से बचते हुए
लहरें उसे ऊपर उठाती रहीं, उठाती रहीं
और अंतत: ले आई उसे एकदम पास ।

और जब उसका यह चले जाना
संभव है एक जबरदस्‍ती हो
चबा डालेगा यह अलगाव
उसकी हड्डियों को अवसाद समेत ।

और आदमी देखता है चारों तरफ
उस स्‍त्री ने जाने से पहले
उलट-पलट कर फेंक दिया है
अलमारी की हर चीज़ को ।

वह टहलता है इधर-उधर
अंधेरा होने से पहले
बिखरे चीथड़ों, कपड़ों के नमूनों को
समेट कर रख देता है अलमारी में ।

अधसिले कपड़े पर रखी सुई
चुभ जाती है उसकी अंगुली में
उस क्षण उसे दिखती है वह पूरी-की-पूरी
और धीरे-से रो देता है वह ।

 5.
अनन्त के लिए क्षणिक बारिश

और ग्रीष्‍म ने विदा ली
छोटे-से रेलवे स्‍टेशन से।
टोपी उतार कर बादलों की गड़गड़ाहट ले
याददाश्‍त के लिए
सैकड़ों तस्‍वीरें लीं रात की  ।

रात के अंधकार मे
बिजली की कौंध दिखाने लगी
ठंड से जमे बकायन के गुच्‍छे
और खेतों से परे मुखिया की कोठ ।

और जब कोठी की छत पर
बनने लगी परपीड़क खुशी की लहर
जैसे तस्‍वीर पर कोयले का चूरा
बारिश का पानी गिरा बेंत की बाड़ पर ।

झिलमिलाने लगा चेतना का भहराव
लगा बस अभी
चमक उठेंगे विवेक के वे कोने
जो रोशन हैं अब दिन की तरह ।

अनुवाद: वरयाम सिंह

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